भय.
ह
आचाय विज्ञानमिश्च शीर भारतीय दृद्यन मँ उनका स्थान
4 अर्त ज 90200680 20. | 8 126८ 0 [06120 0108० |
क सुरेराचन्द्र श्री वास्तव्य एम्° ए०, शास्त्री, साहित्यरत्न
संस्कृत विभाग, इलाहाबाद युनिव सिटी
नौक्कञादनी प्चनान
१५-ए, महात्मा गान्धी मागं इलाहाबाद--१
प्रकारन १५-ए, महात्मा गान्वी मागं श् इलाहावाद-१ द्वारा प्रकारित ~ © | कापीराइट मूल्य : ०० सुरेरचन््र श्रीवास्तव ब. 9 ५ ष +
@ शर १२५. ^---८-.०--
| प्रथम संस्करण : जनवरी १९६९ ©
इन्डियन प्रेस (प्रा०) लिमिटेड
३६, पन्नालाल मागं
इलाहावाद-र द्वारा मुद्रित
नेरौ अर्चनाओं के पावन प्रतीक पिताजो की उन भाङ्धलिक स्मृतयो को निनकौ स्नेहिल छाया -में जीवन-संघषं के सकल शभसीकर ज्योतिबिन्दु बनते जति ै-
सर्वात्मना समपित
प्राक्कयन
भ्राचायंप्रवर विज्ञानभिष्चु संस्कृेत-वाडः मय के दर्शन-साहित्य के ्रद्भुत्- ञ्ननुपम खष्टा हँ । सांख्य, योग एवं वेदान्त दर्रानों पर उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्य संख्या म भ्रनल्प होने के साथ ही परिमाण मे प्रभूत एवं गाम्भीयं में निरतिशय है । ये ग्रन्थ तीनों ही दर्शनों के पृथक्-पृथक् श्रयवा भिन्न-मिन्न प्रतिपाद्य विषयों एवं उनकी साधना-पद्धतियों कै स्वरूप को श्रनवद्य रूप से प्रकट करने के साय ही प्राचायं भिश्ु की सुदृढ समन्वयात्मक दृष्टि को भी श्रसन्दिग्ध रूप में समक्ष उपस्थित करते ह । उनका यह् दोहरा वैरिष््य सभी दर्खन-प्रमियों को वलात्--वरवस श्रपनी भ्रोर श्राकृष्ट करता है । एसे प्राचां के साङ्खोपाङ्ध भ्रव्ययन की महती उपादेयता विना कहे ही--स्वतः-सिद्ध है । किन्तु किन्दीं कारणों से एतत्पूवं इस भ्रघ्ययन कौ श्रोर विवित्सु्रों ्रयवा विदानो की दुष्टि नहीं गई, जो सचमुच खटकनेवाली श्रौर वड़े चेद की वात है । टमं यह् कटने में हषं श्रौर गवं का अनुभव होता है कि हमारे पूव भ्रन्तेवासी एवं बारह वर्षो से हमारे सहयोगी प्रखर प्रतिभावान् डा० सुरेशचन्द्र॒ भीवास्तव ने इस महनीय कायं को श्रपने डी° िल्° के शोव- भ्रवन्व के रूप में स्तुत्य ठंग से प्रस्तुत क्रियाहै जो मूद्वित होकर विद्वज्जगत्
के समक्ष प्रका में भ्रा गया है । वह् भरव श्राचायं विज्ञानभिष्षु कौ प्रबुद्ध दानिक चेतना एवं गुरूम्भीर भारती का माहात्म्य सुघीजनों के समक्ष प्रकट करेगा
हमें भ्राशा ही नहीं श्रपितु दृढ विर्वास है कि डा० श्रोवास्तव का यह् शोघ- अन्थ सभी गुणौकपक्षपाती, विदयाव्यसनी जनों को सन्तोषप्रद एवं प्रिय होगा । इसके प्रकाशन के इस शुभ भ्रवसर पर हमारी शुभकामना है कि सवे-पररक प्रमु डा० श्रीवास्तव को श्रन्य भ्रनेक सद्-गरन्यों की रचना में निमित्त बनावे
आयाप्रसाद मिभ विजयादशमी, २०२५ वि० । अध्यक्ष संस्कृत-विभाग, भ्रयाग विश्वविद्यालय
भूमिका
(=
विशाल विर्व का विपुल-विलास हमारे जीवन मेँ प्रतिदिन प्रस्तुत श्रौर तिरोहित होता रहता है 1 विविध प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी एवं लता-पादप व्यक्त श्रौर श्रव्यक्त होने का विचित्र चित्र उपस्थित करते रहते हँ । प्रातःकालिक स्फृति श्रौर सायङ्कालिक उल्लास कौ भ्रनुभरूति जीवन का श्रभिन्न भ्रंग वनी रहती है । प्रखर रवि-रदिमयां तथा श्रमन्दसुधारसनिष्यन्दिनी चन्द्र-किरणों श्रपना क्रमिक चमत्कार प्रस्तुत करती हैं । श्राना-जाना, उढठना-वैठना, उगना श्नोर मुर- भाना सव कुच दृष्टिगोचर होता है । कोयल की कूक श्रौर भरो की गज, विजली की कड़क तथा वादल की तड्प कर्णंकुहरों की श्रमन्द-सहचरी बनती ह । पीडा भ्रौर कसक, भ्रानन्द श्रौर उल्लास, इषं श्रौर शोक भांतिभाति के भाव मन मेँ प्रनुदिन घर किए रहते हँ । चित्त में एक प्रबल क्रुतुहल मरङ्ःरित होता है कि ्रन्ततः ये सब वस्तु क्यों है ? कहां से भ्राती है भौर कुछ ॒दिनों से कटां चली जाती है ? भ्राने-जाने का, भ्राविर्भाव भ्रौर तिरोभाव का यहं निर्वन्ब व्यापार क्यों चलता है, कव से चलता है, भ्रौर कव तक चलता रहेगा ? इन वस्तुभरो की सारी क्रीडाग्रों का भव्य प्रांगण-यह जगत्, इसकी पृष्ठ-भमिस्वरूप यह समय, यह् परि वरतेन श्रौर इस परिवर्तन का यह क्रम~ये सव क्या है? क्यों? कते? कव तक हैँ? यह विराट् प्रदनमाला युगयुगान्तर मे चेतन मानव कौ बुद्धि को खकोरती रही है । इसी जिज्ञासा कौ चरम परिएति का प्रतिफलक विचार दर्दान है जीवन-व्यापार के इन रहस्यों का उद्घाटन करने की आकाङ्क्षा ही इसकी मूलाधार है । हमारे पुराठन महषियों ने ्रपनी उत्कट तपस्याभ्नो भौर सवंतोमुखी साघनाभरों के सहारे इस समस्त रहस्य का ज्ञान प्रजित क्रिया था । उन्नकी चिरसंचित यही ज्ञान-राि हमें उपनिषदों एवं दर्ानास्त्रो के रूप म उपलन्ध होती है । इसी ज्ञान-निषि को सांख्य, योग, मीमांसा, न्यायवैरोषिक श्रौर वेदान्त ्रादि रूपों म संस्छृत.वाडःमय ने भ्रानेवले युगो के लिए संजो रक्वा है। दर्दानों का प्रमुख प्रयोजन वास्तविकता का ज्ञान श्रौर तदापादित चिरशान्ति ह । श्र तियो ने ्रात्माकोही वास्तविक या सच्चा रहस्य माना है । इसीलिए
उपनिषदों ने “भ्रात्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिष्यासितन्य'ः+ का
१. बृहादारण्यक उपनिषद् ४।५।६
सन्देद दिया है । श्रवण, मनन श्रौर निदिष्यासन ही दर्शन केद्वार हैँ। इन दारो के श्ननेक श्रौर श्रसंख्यमागं हो सकते है। यही कारण है कि दर्शनों की संख्या का परिसीमन छह, प्राठ या दस श्रादि मँ नहीं किया जा सकता । इन दर्शनों का पारस्परिक सम्बन्व इसी प्रबन्ध के द्वितीय-पटल, प्रथम-म्रघ्याय में
प्रदरित किया जायगा
जीवन के इन परम रहस्यं को जान पाने की उत्सुकता के कारणमेभी सदां दर्दान-शास्त्र के प्रति श्रसीम श्राकषंण का श्रनुभव करता रहा हूँ । इसीलिए वात्यकाल से ही जाने-ग्रनजाने दर्शन के अध्ययन की ओर उन्मुख होता गया धा । इण्टरमीडिएट परीक्षा के लिए 'तकंडास्तर' श्रौर वी° ए० परीक्षा के लिए द्दर्शान- शास्त्र" विषय चुनने मेँ भी निस्सन्देह मेरी यदी प्रवृत्ति निर्णायिका थी । एम्० ए परीक्षा के लिए ॒"्दर्दनिशास्व' विषय को छोड़ कर स्ंस्कृत-विषय' ग्रहण करने मे मेरी यह् धारणा थी क्रि भारतीय दर्दान के गूढ तत्त्वो को जानने मे तभी समथं हो सकता हं जव भारतीय दर्धन के “मूल ग्रन्थो का भ्रध्ययन करू श्रौर यह् बात संस्कृत-विषय लेने मे ही सम्भव थी । साक्षाद् 'दर्शनविषय' लेकर यद्यपि मे इन ग्रन्थों को स्वतः भी पट् सकता था तथापि गुरुमुख से शास््र-श्रवण॒ कौ वात ही रौर हे । संस्छृत-विषय में 'दर्शनि-वगं' मे ये ग्रन्थ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पठाए जाते है 1 इसलिए मैने संस्छृत-विषय [दर्शनवं | लेना हो श्रं यस्कर समभा । प्रारन्ध संस्कारो ने भी इस कार्य में मेरी ्रवदर्य सहायता की होगी ।
यहां पर मूर गुरुवयं महामहोपाध्याय डा० उमेज्ञ मिध.श्रदधेय प० रघुवर मि्लाल जी शास्त्री एवम् भ्रादरणीय डा० श्रादाप्रसाद जी मिश्रके श्रीचरणों म चठ कर न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग ्रौर श्रदरैतवेदान्त पठने का सौभाग्य भरा ष्मा । श्रष्ययन भ्रपन श्राप मे अक्षय सन्तोष की सृष्टि करता है, यह सेन यहीं जाना । सांख्य का श्रघ्ययन करते समय वाचस्पति भिश्च के प्रतं मे विजञानभिश्चु कौ चर्चा भराई । इनके सम्बन्ध मे बहुत कम खोज हुई है एेसा स्व गुख्वय म० म० जी से सुन कर विज्ञानभिष्ु के विषय मे समय श्राने पर शोध करने की श्राकाडक्षा मेरे मन में उत्पन्न हई ।
भ्नुसन्यान के लिये विषय चुनते समय श्रीगुरुमुख से स्वाभिमत विषय प्राप्त `
करके मे महान् हषं हुभ्रा । इस सम्बन्ध मेँ श्रष्ययन की परम्परा प्रारम्भभीन हो पाई थी कि श्रीगुरुचरण डा० वाब्रुरामजी सक्सेना एम्० ए० डी ० लिट्० के शुभाशीरवादस्वरूप इसी विश्वविद्यालय मे श्रगस्त, १ ९५द् से ही रष्यापन-कायं
मिल गया । श्रधीतिबोधाचरणप्रचारण" की क्रमिक जटिलता को कौन श्रस्वीकार
कर सकता है ? श्रतः भ्रनुसन्धान-काल के प्रारम्भिक वर्षो की बलि कठोर भ्रव्यापन- कायं की वेदी पर चडढानी श्रनिवायं हो गई । इस कारण कु शौधिल्य श्रौर उत्साह्- दीनता का संचार भी मुभमें होने लगा किन्तु श्रीगुरुवयं डा° सक्सेना ने मुर कृत- संकल्प होने रौर कमठ शोव-साधना करने के लिये पुनः प्रोत्साहित किया ।
म गुरूपाद-निदिष्ट धमां पर श्रारूढ हुभ्रा श्रौर सफल भी । मुभे उनके भ्रारीर्वादो का संबल श्रौर उनकी कृपा का श्रनन्त श्रवलम्ब था । श्राचायं विज्ञान- भिक्षु की श्रनत्प ज्ञाननिवि को प्रस्तुत करने की चेष्टाभ्रों को मूतं रूप देनेमें मने यथासम्भव निष्पक्ष, ्रनतिरञ्जित श्रौर प्रविछरृत निं य-बुद्धि से काम लिया हे । उनके व्यक्तिगत जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के लिए बाह्य सामग्री समुपलन्व “नहो सकने के कारणा उनके ग्रन्थों के संकेतो श्रौर उनके स्वभाव से परिलक्ष्यमाण प्रभावों पर ही भ्राध्रित रहना पड़ा है 1 इस ्रन्य के प्रथम-पटल मे भ्राचायं विन्ञान- भिक्षु का वैयक्तिक विवरण तया उनकी कृतियों की संख्या, प्रामाणिकता, प्रेरणा रौर उनके स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत किया गया है । विज्ञानभिश्ु की आलोच्य दर्शानिकता दो रूपों की है । एक है उनकी सांड्य, योग श्रौर वेदान्त साघनाभ्रों का स्वह्प भौर दूसरा है उनका निजी दर्शन, जो कि उनके समन्वयवाद के नाम से इस गरस्थ सें विवेचित किया गया है । उनकी दार्शनिकता के दोनों ङ्प अन्ततः एकाकार हो उठते है क्योकि न तो उनका समन्वय उनके सांख्य, योग श्रौर वेदान्त-दर्यनगत सिद्धान्तो के विरुद है श्रौर न ही उनके सांख्य, योग श्रौर वेदान्त-सिद्धान्त कहीं उनके संञ्न्वयवाद का विरोध करते है ।
भ्रास्तिक दर्शानो के समन्वय का संदेश किसी भी भारतीय को बरवस अपनी ओर श्राकृष्ट करता है । इस समन्वय की जडं गहरी है । स्मृतियों ओओर पुराणों मे इस समन्वय के वीज विखरे पड़ ह । श्रतः विज्ञानभिश्चु का इस दिशा मे प्रयास नयापन के दायित्व से बोभिल नहीं है । प्रवयुत इस प्रौढ्-परम्परा के समर्थक तत्वों से संवलित होने के कारण स्तुत्य ही है । कदाचित् युग को भूकपुकार को प्रति. ध्वनि ही उनके मतवाद मँ प्रतिफलित हुई है । मेरी चेष्टा भ्रा्योपान्त विन्ञानभिष्लु के सिद्धान्तो को शुद्ध एवं अविकृत रूप में विद्वज्जगत् के समक्ष प्रस्तुत करने की रही है । ,वैयक्तिक दृष्टि-्क्षेप के प्रभावों का सम्मिश्रण ने यथाराक्ति नहीं होने दिया है । किन्तु इस सम्बन्व मेमं कितने भ्रंशो मे सफल हुभ्रा हूं, कह नहीं सकता ।
विज्ञानभिश्ु के मतवाद की तुलनातमक् समीक्षा रौर उनके सिद्धान्तो कौ तकं संगतता के श्राधार पर , भारतीय दर्शान-जगत् मे उनके स्थान-निर्घारण का भी दायित्व मुके संभालना पडा है। इस ग्रन्थ का तृतीय-पटल इसी साधना का परिणाम है । यह कायं कुचं ॑टेढा श्रौर बड़े पैमाने का भ्रवद्य था परन्तु किसौ
के सिद्धान्तो की पूजो का अ्राकलन करने के परवात् उसका किसी विशिष्ट सन्दर्भ मे मूल्याङ्कन कर सकना सौविध्यपुरां हो जाता है । इसीलिये इस ग्रन्थ का द्वितीय- पटल विज्ञानभिक्चु के सम्पूणं-सिदधान्तों के संकलन से सम्बद्ध है । इसमें उनके दर्शन कौ रूपरेखा, जो उनकी समन्वयात्मक प्रकृति को प्रकट करती है, प्रस्तावित की गई है । उनके वेदान्तसिद्धान्त, सांख्यसिद्धान्त श्रौर योगसिद्धान्त भ्रघ्यायानुसार संकलित करिए गए है । सिद्धान्तो के इस प्रकार के विभाजन कां प्रयोजन दुहरा है । पहला प्रयोजन तो यह था कि उनके वेदान्त-प्रन्थ, सांख्य-ग्रन्थ श्रौर योग-ग्न्थों के निर्णीत मतवादों का श्रलग-श्रलग रूप प्रकट होता है । श्रौर दूसरा प्रयोजन इस प्रकार के विभाजन से यह सिद्ध होता है करि विज्ञानभिश्चु के भ्रनुसार इन तीनों दरनिं फे प्रधान प्रतिपा विषय एकं नहीं हे प्रत्युत भिन्न-भिन्न है । सांख्य के मलान प्रतिपरा्यविपय परमाण, प्रकृति, पुरुष श्रौर विवेक इत्यादि है; वेदान्त के प्रधान प्रत्तिपाद्य ईश्वर या बरह्म तथा जीव श्रादि रहै; जव कि योगके प्रधान प्रतिपाद्य योग, योग के श्रङ्ग रौर सिद्धियां इत्यादि है । प्रतः इस प्रकार के विभाजन के द्वारा श्रपने-प्रपने क्षेत मे प्रावान्येन विवेचित सब पदार्थो का साङ्गोपाङ्ग विवरण प्रस्तुत किया जा सका है ।
मोक्ष का प्रसङ्ग तीनों सिद्धान्तो मे प्राधान्येन उपस्थित हुप्रा है ताकि तीनों रनों कै समन्वितरूप कौ साधना न कर सकनेवाले साधक के लिये भी तीनों मे से किसी एक दर्दान क द्वारा संेतित साधना कै हरा मोक्षलाभ हो सके । तीनों के समन्वित ज्ञान के द्वारा मोक्षलाभ भ्रागुतर सुसम्पाद्य है तथापि समन्वय- सावना-विवजित साधक भी इस परम पुरुषाथं लाभ से वञ्चित न रह जायें, इसके लिए इस एकांगी मागं को भी सफलता से विभ्रुषित किया गया है । इसीलिए विवेचन-क्रम में तीनों दर्शनों के श्रन्तर्गत मोक्ष का प्रधान रूप से विवेचन प्रस्तुत करिया गया है।
इस प्रकार से इस ग्रन्थ के प्रथम-पटल मेँ विज्ञानमिष्यु क्रा वैयक्तिक विवरण, दवितीय-पटल भें उके सिद्धान्तो का सद्कलन तथा वृत्तीय-पटल में भारतरीय-दर्ान जगत् मे उनके तुलनात्मक महत्तर का ॒श्राकलन भ्रौर स्थान-निर्घारण प्रस्तुत करने का भ्यास हमरा है । मु विश्वास है कर इस सरणि से 'विज्ञानभिष्चु का एक श्रध्ययन' भ्रौर ^भारतीयदर्वान में उनका स्थान-निर्घारण॒' सुरुचिपर्णं रूप में प्रस्तुत क्ियाजा सका है । यद्यपि मेरी समीक्षां का विषय उनका पूणं कृतित्व भ्राचोपान्त रहा है तथापि उनकी प्रकारित एवं सुप्रसिद्ध स्वनाश्रों का श्रावार मने मुख्यरूप से ग्रहण क्रिया है । इसका कारण प्रधानतः यही था कि विज्ञानभिक्षु के सम्बन्धं सें विद्- ज्जगत् को वारणां इन्हीं अन्यो को विशेष रूप से दृष्टि में र्रकर बनी हुई है 1 प्रतः उनके विचारों का विवरणनिरदेश करने के लिये ने इन्हीं अन्थों को प्रधिक
उपयुक्त तथा उपादेय समभा है । इस हौली मेँ एकं लाभ मभ यह् भी दृष्टिगोचर हस्रा कि इससे सामान्य भ्रष्येताश्रों को भौ इन सुलभ-निर्देशों के श्राधार पर विज्ञान- भिष्चु के मतवाद के सम्बन्ध मेँ श्रपनी धारणाए्ं स्थिर कर सकने की सहायता मिल सकेगी । इस पद्धति को ग्रहणा करते कौ भरणा मुके इस वात से भी भिली कि विज्ञानभिक्चु के समूचे वाडमयमें स्व-वचो-ग्याघात का कोई प्रसङ्ख नहीं है । शास्त्रगत भ्रन्तर भले हों परन्तु उन भ्रन्तरो को भी वै स्पष्ट ब्दो मेँ तत्तत्स्यलों में सूचित कर देते हँ । इसलिए श्रप्रकारित पाण्डूलिपियों से उनके विचारों का श्रधिक निर्देश न करने पर भी उनके सिद्धान्तो का ज्ञान प्राप्त करने में सामान्य श्रष्येताश्रों के हितों की कोई क्षति नहीं हो सकती ।
विज्ञानभिघ्चु के सास्य श्रौर योग ग्रन्थ सवके सव प्रकारित ही है । उनके वेदान्त-गरनथों मे केवल ॒विज्ञानामृतभाष्य ही प्रकारित है, श्रुतिभाष्य श्रौर ईइवर- गी ताभाष्य श्रभी तक श्रप्रकारित ्रौर पाण्डुलिपियों कौ परिस्थिति मे ही पडहै। विञ्चानभिष्ु के वेदान्त-सिद्धान्त-सम्बन्धी कुच एेसे निर्देश भ्रलबत्ता मु ईरवरगीता- भाष्य कौ पाण्डुलिपि से देने पड़ह जो विज्ञानामृतभाष्य में सुलभ नहीं हो सके थे । भ्रन्य पाण्डुलिपियों से निर्देश यथासम्भव नहीं दिए गए है ।
आभार प्रदशन
इस ग्रन्थ के प्रकारन की प्रवल प्रेरणाएुं मुरे पूज्य गुरुवर्यं डा० वाबरूराम जी सक्सेना, पं० रघुवरमिट्टूलाल जी शास्त्री तथा डा० रामकरुमार जी वर्मा से निरन्तर प्राप्त होती रहीं, जिनके फलस्वरूप यह् ग्रन्थ प्रकाशन को प्रक्रिया पार कर सकरा । इसके लिये इन गुरुजनं के प्रति मँ सर्वात्मना भरपनी कृतज्ञता प्रकट करता हं । परम कारुणिक गुखव्यं डा० श्राद्याप्रसाद जी भिश्च ने समय-समय पर समुचित परामर्श देकर तथा इस ग्रन्थ का भ्राक्कथन लिख कर मुके जो प्रोत्साहन दिया है, उसके लिये मँ श्रसीम श्राभार मानता हं । जिन श्रनेक विद्धानों की कृतियों एवम् सम्मतियों से इस ग्रन्य के लिखने में मुके सहायता मिली है उनके प्रति भी श्राभार प्रदशित करना मँ श्रना परम कर्तव्य मानता हुं ।
प्रका्न को समग्र व्यवस्था श्रपने हाथ भँ लेकर भ्रसीम कौल एवम् सौहादं के साथ इस ग्रन्थ को विद्रज्जनों के समक्न लाने का सत्रयास करने वाले श्र दिनेशचन्द्र जी एवम् श्री राघेनाथ जी चोपड़ा [लोकभारती भ्रकारान, इलाहाबाद] को भी हादिक धन्यवाद दिये विना मेँ नहीं रह सकता । श्रौर ्रन्त में, इस ग्रन्थ की भ्रकारान-परम्परा मे सवंदा एवम् स्वविष सहायता देनेवाले श्वपने प्रिय भागिनेय श्री सतीशचनद्र श्रीवास्तव्य एवम् श्री गिरीश्चन््र श्रीवास्तव्य तथा
प्रपने प्रिय श्नु भ्रौ रविचन्द्र श्रीवास्तन्य एवम् श्री राजेशचन्द्र श्रीवास्तव्य को मै हादिक साधुवाद देता हूं ।
विजयादशमी
घुरेरचन्द्र भीवास्तव्य सं° २०२५ वि०
ए जायका
विषयाचुक्रबणी
पुष्ठ-संख्या [१] भूमिका 2: र [२] विषयानुक्रमणी थ १३-१६ प्रथम-पटल [वियक्तिक-विवरण] अध्याय १--माचायं विज्ञानभिश्ु का परिचय [१९-४५] [१] स्यान-साघनाक्ेतर-जन्म स्यान--विचरण- स्थल । [२] व्यक्तित्व । [३] जीवन-काल, पृष्ठभूमि, समय-निर्घारिण । अध्याय २--माचायं विज्ञानभिष्षु कौ रचना [४६-८८] [१] सूचित रचनाए-प्रामाणिक रचनाए-- रचनाम्रों का क्रम ।
[२] रचनाभ्रं का परिचयात्मक विवरण ।
[३] वेदान्त ग्रन्य--उपदेश रलमाला-- विज्ञानामृत भाष्य--ग्रन्थ का स्वरूप-- उपनिषद् भाष्य-्ईर्वरगीताभाष्य ।
[४] सांस्यग्रन्य-त्रेरणारणं-शाख्यभ्रवचन- - भाष्य का स्वरूप-सास्यसार का स्वरूप ।
[५] योगग्रन्य-योगवातिक-ग्ेरण्ए- योगवारतिक का स्वरूप-- योगसारसंग्रह-ग्रेरणारणं योगसारसंग्रह का स्वरूप ।
[६] रचनां की दरौली ।
दितीय-पटल [सिद्धाम्त-सङ्कलन। अध्याय -- आचारम विज्ञानभि्ु के दर्शन को रूपरेखा [९१-१००] श्राचायं विज्ञानभिक्षु के दर्शन की भ्राघार- भित्ति- समन्वय की प्रवृत्ति-समन्वय का स्वरूप--वर्गीकरण की रीति ।
पुष्ठ-सख्या अध्याय २--आचायं विज्ञानभिक्षु के वेदान्त-सिद्धान्त [१०१-१३९] [१] ब्रह्ममीमांसा के प्रनुबन्व--चतुष्टय , श्रधिकारी-- ब्रह्मविद्या के विषय, प्रयोजन श्रौ र सम्बन्ध ।
[२] ब्रह्म-सत्ता--सिद्धि-त्रह्य का स्वरूप--त्रह्म की उपाधि- ब्रह्म के दो रूप--च्रहय जगत् का भ्रधिष्ठान!कारण है 1
[३] जीव का स्वरूप |
[४] प्रकृति का स्वरू्प-्रकृति श्रौर श्रविया-- भ्कृति को सत्ता--प्रकृति के रूपों का वर्गी- करण--माया--जीवोपाधि--जडजगत् ।
[५] जगत्प्रप्-- नित्यता की सिद्धि-परिणाम- वाद-भेदाभेदवाद-मृक्ति का स्वरूप-मुक्ति के भेद-मूक्ति के साघन--ज्लानकमं श्रौर उपासना ।
अध्याय २--आाचायं विज्ञानभिष्चु के सांस्य-सिद्धान्त [१४१-१८९१] [१] प्रमाण--विवेचन--प्रमाण-धरक्रिया-- प्रमाणो के विशेष लक्षण ।
[२] परुष--विचार--भ्रस्तित्व- पुरुष का स्वरूप--- पुरुष बहुत्व--उपाघि ।
[३] पुरुष भ्रौर जीव ।
[४] पुरुष भ्रौरः ईदवर 1
[५] श्रृति-विचार-श्रकृति कां स्वरूप, प्रकृति का वर्णन ।
[६] गणो का स्वरूप ।
[७] भ्रविद्या ।
[८] सृष्टि-विकास ।
[९] कैवल्य 1
पृष्ठ संख्या अध्याय ४--आचायं विचानभिक्षु के योग-सिदधान्तं [१८२३-२२८]
[१] योगस्वरूप--सम्प्ज्ञात, श्रसम्प्रज्ञात--दोनों का प्रयोजन--दोनों का पारस्परिक सम्बन्व, श्रसम्परज्ञात के भेद श्रौर उनका स्वल्प भवं तथा उपाय--प्रत्यय--प्रसम्परज्ञात योग-- सम्प्रज्ञात योग के भेद ।
[२] धर्ममेध समाधि ।
[३] समापत्तिरयां 1
[४] योग--साघना ॐ सोपान--उत्तम साघकों कौ साधना का स्वरूप--मघ्यम साघकों कौ साघना का स्वरूप- मंन्दाचिकांरियो की योग साघना का स्वरूप 1
[५] ईदवर ।
[६] योग-सिद्धियां ।
[७] कैवल्य-मीमांसा ।
[८] स्षुट विचार--स्फोट-स्फोट क प्रामाणि- कता--क्षण-सिदधि में प्रमाण ।
तृतीय-पटल [स्थान-निधोरण] अध्याय १- -आचायं विक्ञानभिक्षु के दर्शन को तुलनात्मक
समीक्षा-- [२२९-२७३।]
[१] समन्वथ--समीक्षा । [२] वेदान्त--समीक्षा-ब्रह्म--जीव-्रकृति--
भेदाभेदवाद-मुक्ति-मुक्ति की साधना--
ज्ञान श्रौर कर्मं की साघनरूपता 1 [३] सांख्य-समीक्षा--प्रमाणए--पुखष विचार--
प्रकृति श्रौर गुण विचार-परिणाम--सिद्धान्त
्नौर पुरूष का बन्ध-कंवल्य भ्रौर उसको
साधना ।
पृष्ठ संख्या [४] योग--समीक्षा--योग साघना के सोपान सिद्धिर्या--फवल्य 1 [५] ुटकल चर्चा । [६] घार्मिक सावना । अघ्याय २-आचा्य॒विक्ञानभिक्ष्, का भारतीय दर्शन मे स्थान [१] दार्शनिक पृष्ठभूमि । [२] सास्य-दर्शन में विज्ञानमि्चु का स्थान । [३] योग-दर्शन में विज्ञानमि्ु का स्थान । [४] वेदान्त-दर्शन में विज्ञानमि्चु का स्थान । [५] उपसंहार । सहायक ग्रन्थो एवं पत्रिकाभ्नो की सूची २९०.-२९४ परिशिष्ट--१ २९५-२९६ संकेत-शब्दों का विवरण २९७-२९०८
[२७५-२०८९]
रथम् पटल
वियक्तिक्लविवर्ण्]
फा०२
६ ९ ©> ©> ©> १ | आचाय विजानभिक्षुका परय
परिचय तो दुर रहा स्पष्ट ज्ललक भी नहीं भिर्तौ आचायं विज्ञानभिक्षु के गौरवमय व्यक्तित्व की । न निर्चित स्थान ओौर न अस्तित्व को बहुमुखी गाथां । समय का भौ कोई स्पष्ट संकेत नहीं । माता-पिता तथा वन्घर-वान्ववों के नामनिदेशा का कहना ही क्या ? अपनी गुरु-परम्परा का भी कोई उल्ठेख नहीं किथा जाचायं ने । तथापि विद्वत्ता के तेज से आलोक्रित ओौर ज्ञानगरिमा से जगमगाती हई उनको विशाल ग्रन्थ-रारि सें से उनके व्यक्तित्व की कुछ धुंघी रेखाएं अवश्य उभर आती है । इन घूमि रेखाओं के ही सहारे आचाय की एक परिचयात्मक काकी प्रस्तुत करने का प्रयास करियाजारहादै।
स्थान
कल्पनाओं ॐ वल पर कुछ विद्वानों ने आचाय विन्ञानभिक्षु का निवासस्य निरिष्ट करते की कुछ चेष्टा अवश्य की है किन्तु उसके किये प्रमाण प्रस्तुत करने को आवद्यकता क। अनुभव उन्होने नदीं करिया । कुछ विद्वानों" ने उन कर्णाकर्णिका के बर पर गौड-देशवाशो वताया है ओौर कु ने उनके निवासः स्थल के रूप मेँ उत्तरभारत मात्र का निर्देश किथा दै अन्य विद्धान् लोग तोइस प्रसंग को भो भारतीय वामथ के इतिहास के म्मस्थलों मेंसेएक समञ्च कर इसका स्प न करते हुए मौन रहते आए ह । उनके अस्तित्व के स्मारकों का भी सर्वथा अभावदै। न तो उनके नाम या सम््रदायका कोई मठ या मन्दिर कहींहै भोरन ही कहीं उनके कुटीरों का भग्नावन्ञेष । सभी
१. “"णाितपथणपाङप 2 १९८०९ 25 वण 2५९०९८10 ४एवगाहत् 10 € @&ग्पत्> त्ण्पाप्क, (्गकए०पता्ह 10 (€ 710तला करम त्लयप् 2861021."
1000वप्रल0०ा 10 तास ०-8025१2, ४०1. 1. 2. 177 ण 5 €. ०९२५० 20-86€ण्ा०€ 1986.
२. द्रष्टन्य-प्रज्ञानन्दसरस्वतीहृत "वेदन्तदरञनेर इतिहास' पृ० ७४० १९
२० | आचाय विज्ञानभिभु प्रचित वेदान्त सम्प्रदायो का विरो करने के कारण उन-उन सम्प्रदायो कँ अन्ध भक्तों ने इनके प्रति कोई सहानुभूति भी नहीं दिखायी, जिससे कि इनके नाम पर कोई भव्य स्मारक आदि बनने कौ सम्भावना रहती । अन्य बौद्ध, जैन्, वैष्णव तथा दौव सम्प्रदायो के प्रति हिन्दु गृहस्थ जनता को आस्था थी, क्योकि वै सम्प्रदाय गृहस्थो को भी तत्त्वज्ञान ओर इष्टदेव-लोक-प्राप्ति रूप मोक्ष काः मधिकारी मानते थे। विज्ञानभिक्षु के मतवाद मे सांख्य ओौर योग से अनु- प्राणित साधनाएं ओर तात्काछिक अन्य सम्प्रदायो के तीत्र-तम खण्डन की धुओंघार चेष्टाएुं केवल बौद्धिक आध्यामिकता कौ नीव पर आधारित थीं।
साधारण गृहस्थ जनता में बौद्धिकता के प्रति नसगिक ्िज्षक ओर आकषंणहीनता का अनुभव सवथा निदिचत है । आचायं विन्ञानभिक्षु को अपने मतवाद के प्रति जनसामान्य का यह् ओौदासीन्य अवद्य खलता था भौर उनके वाक्यों मे अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव प्रदशित करता था। साधारण-सी बात कहं कर॒ उसके प्रमाणस्वरूप अकारण ही “शत' गौर "सहल" उदाह्रणों काः स्वव नाम लेना" इसी प्रभाव का द्योतक है । कहीं कहीं तो "आग्रह" छोडने के किए जनसामान्य से उन्हँ आग्रह् भी करना पड़ा है ।२ इस प्रकार वैदुष्यके विपुल विलास में व्यग्र विज्ञानभिक्ु जनगण के अन्तर्मन को विल्कुल न सके । उन्होने जिस प्रकार को भव्ति अपनायी वह॒ भी वस्तुतः बौद्धिकता की हदवसम्बन्िनो व्याख्या हौ थी । उसमे न तो निम्बाकं तथा चैतन्य महाप्रभु भादि की भक्ति का वेसुध करने वाला मनोमोहक रस था ओर न रामानुज भादि कौ भविति का दिव्यानुभूत्ति-समन्वित--जीवन का व्यापकं संदेश । 1 क सच्चे योगी होने के कारण योगज चमत्कारोंकेभीवे घोर विरोधी अ्यदाते नमत्कार भौ जनता की भावनागों को उनकी ओर आकधित करने जनता ने उ ज्ान.नाव व म ही घ्वनित जर प्रतिध्वनित होता रहा उतपाह नहीं दिलाया । च शति के , भज्ञानपटङ खोलने मँ श निजञानभक ५ लए ध सार्य-रादूल, योगिराज, वेदान्तविभू
03 -मन्दिर-स्थापना सदा स्थगित ही रही ।
[1 शतैरपि
५ त १ ृिस्ृतातनिरोषः इत्यादि वाव्यत्रतेभ्यः ५ १२ १२२, १६१। द्रष्टल्य यो० वा० प° २१४,
ध २२२, ३१०, ४५६६त्यादि। तथा द्रष्टव्य सां० भ्र ० ० पु ०२, १५ इत्यादि \ * तस्मादाग्रहुं परित्यज्य . , 994 "इत्यादि--वि०्भा० पु० ४७६
अचायं विन्नानभिक्षु का परिचय | २१.
एक सम्भावना यह भी है कि विज्ञानभिक्ष् एक उत्कट त्यागी थे । कदा- चित् इतना महान् त्यागौ भारतीय वाडमय के इतिहास मेँ मिकना असम्भव हे । सांसारिक निष्ठावाले विद्रानों ओर कवियों मेँ तो पूणे परिचय देने को परम्परा रहती है । जिन पुरातन कविथों मेँ यह परिचय वाच्यरूप से नहीं मिक्ता वे व्यञ्जनया अपना पूरा परिचय प्रकाशित कर देते थे। दरंनशस्वरवुरीणों ने भी अपने पिता, माता गौर स्थान के नाम के द्वारा चाहे अपनी गृहस्य क्लाकी भलेही न दी हो परन्तु अपनी गुरुपरम्पराओं का, श्रद्धासमन्वित पद-विन्यासों के माध्यम से, परिचय देने को चेष्टा कोद । गृहस्थ को न सही, उनके ग्रन्थों से आश्रमकरुटीरस्थ ज्ञाकी उनकी अवश्य भिक जाती है । परन्तु धिज्ञानभिन्षु नाम-रूप के सभी प्रदंशनों से पराडमुख रदे ! अपने गुरुके प्रति उनको असीम श्रद्धा थी तथापि उनका नाम-स्थान-संकी्तंन उन्होने कहीं नहीं किया । गुर परम्परा भी उलिकिधित नहीं को । अपने जन्म, जीवन, निवास आदि किसी विषय की ओर स्पष्ट इगित नहीं! पिता, माता करा कोई प्रकरण दही नहीं उठता । कहाँ तक कह अपना भी नाम नहीं दिया उन्दने । “दिज्ञानभिक्षु" केवर एक प्रतीक है जो 'विज्ञानयति'^ "यतीन्द्रविज्ञान, धविन्ञान भिक्षुक", "विज्ञानाकं" र्पो मे भी हमारे सामने आता ह। इस कारण भी उनके स्मारक- निर्माण इल्यादि कौ सम्भावना मतन्भव हो जाती है । उन्होने निरुचय ही अपने शिष्यो को इस प्रकार के आत्म-विज्ञापन-पराथण कार्यो के प्रति हतोत्साह किया होगा ।
कारण चाहे जो भी रहा हो, सत्य इतना अवद्य है कि विज्ञानभिक्षुकी स्मृतियों के नाम पर उनकी गौरवमयी ग्रन्थ राशि के अतिरिक्त ओौर कुछ भी पूजी भारतीय इतिहासनिधि मे अवशिष्ट नहीं है। इस सन्दभं में ऊपर संकेतित उनके निव।स-स्थल का निर्धारण करन। अतीव जटिल है। तथापि उनके ग्रन्थो में जाने-अनजाने एसे अनेक मागं-दरोक प्रकाशस्तम्भ विखरे पड़े हैँ जिनके सहारे उनके स्थान स्वभाव एवं समयका निह्पणकियाजा सकता है । ये प्रकाशस्तम्भ उनके हारा प्रयूक्त हए कच विशिष्ट शब्द,
= १. मनिक्षु" शब्द का अर्थं है संन्यासी । इतत केवल बौद्ध संन्यासी सा अनन करना चाहिए ! अनेक अन्य वेदान्तो ने भी अपने नाल कते आगे भ्श्षु रखा है जैसे नारायण भिक्षु आदि । वि भा० पु०२८ २. द्रष्टव्य, वि० भा० पुं० ५६३ ३. वेदान्तनगरीमागौं विज्ञानार्केण दशितः । ति० भा० ५० १३९
तकाकककाा
२२ | आचायं विज्ञानभिक्षु
वििष्ट अथ-चोतक वाक्य तथा विशिष्ट परम्पराओं के परिचायक प्रसंग है। यद्यपि एसी सामग्री तथ्यो क चरम निर्णायिका नहीं हौ सकती, किन्तु बाधक प्रमाणो के अभाव मे उसका निर्णय स्वीकरणीय ओर मान्यहोता हीहै। आतुषंगिक सूप से एक गौर महान् लाभ एसी सामग्री के उपयोग सते होता है कि आनेवक युग के लिए अनुसन्धान कौ स्थायी पृष्ठभूमि प्रशस्त हो जाती है ।
साधना
इस प्रसंग मे सबसे अधिक कृतुहलमयी सामग्री जो चित्त के सामने रस्तु होती है वह यह है कि आचायं विज्ञानभिक्ु ने हजारों पृष्ठो में फले हए अपने ग्रन्यो मेँ केवर एक देश ओर केवल एक स्यान का ही नाम लिया है' ओर वे देश तथा स्थान हैँ "भारतवषं"* ओौर "प्रयाग'° । उन्होने अपने ब्रह्म सूव्रभाष्य ओर योगव।तिक् दोनो ग्रन्थो मेँ एक-एक वार ये नाम क्ष हैँ।
स्पष्ट है करि इन उद्धरणों मेँ विज्ञानभिक्षु के निचासस्यान से भारतवषे' जौर "्रयाग' का कोई साक्षात् संकेत नहीं भिरुता । तथापि श्रयाग' शब्द मे जुड़ा हुञा "भादि' शब्द अन्य स्थानो का बोधक है । जब अन्य स्थानोंमेभी स्वर्गीय रोगो अर्थात् देवादिगणों का यागादि कृरना स्मृतियों मेँ बताया गयादहैतोदोप्रकार के स्थलोंमेंसे विन्ञानभिक्षु का ्रयाग'का ही नाम लेना कुछ सूचित करता है या कम से कम सूचना की सम्भावना रखता है। प्रबल न सही क्षीण ही कहिए, किन्तु यह भावना तो वनने ही लगती है कि विज्ञानभिक्षु अवश्य ही प्रयाग मे आए यथे ओौर धाभिक कृत्य या तपोऽतुष्ठान करने मे निरत हुए थे। श्रयाग' के प्रति उनकी यह असीम निष्ठा निस्संदेह यह सिद्ध करती है कि यह् स्थान उनकी साधनां का
१. सास्यसुत्रो, वेदान्तसूत्रों ओर योगभाष्य से थानों पहिले ही आए हए स्थानो का द दवारा किया गयां वा मात्र होगा, जं तु पुत्र जदि । यहाँ पर ठ : निर्दिष्ट नगर र देश के नाम से अभिप्राय है ॥ ५ ।
1 स्यादेवं ध म ह यागादिश्रवणात् तेषां कर्माधिकारङ्च देवादि- शक्तत्वा पथः व ष्योन तु भारतवपे स्वोल्टष्टदेवतायागे चार्थिटव- त्वापकृदस्तत्वादिभ्य इति' ।-- ० सू ऋ० भा० पृ० २२१
३. स्वागिणां भारतवषेमागत्य ली गैलामानुषविग्रहेण प्रयागादौ कर्मानुष्ठानस्य तःफलस्य च श्रवणादिति'।-- ह यो० वा० पृ० १६२
आचाथं विज्ञानभिक्षु का परिचय | २३
क्षेत्र अवदय बना होगा, भले ही वे जन्मसे यहां न रहे हों । उनके ग्रन्थों का प्रणयन अधिकांशतः प्रयागमें ही हुआदहै। इस त्थ्य का पोषक एक प्रमाण ओर उपलन्ध होता है! । अविभक्तता के भनेक शास्त्रीय दृष्टान्त ्ुग्घजल' अथवा (लवणजल' आदि का सदा उपयोग करने पर भी सांख्य प्र० भा०के एक प्रकरण मेँ त्रिवेणी कौ अविभक्तता का दृष्टान्त देना दो प्रकार की सम्भावनाएं उपस्थित करता है। एक तो यह् कि इस ग्रन्थ टेन के समय मे यह चित्र उनके सामने भलीर्भाति प्रस्तुत था ओर दूसरी यह् कि उन्हें यह निदवास था कि उनके निकटतम चिष्यों के लिए यह दृष्टान्त अधिक सुलभ ओर सुबोध होगा । ये दोनों सम्भावनां इस तथ्य को परि- पुष्ट करती है कि विज्ञानभिक्षु के ग्रस्यप्रणयनादि कर्मो का क्षेत्र प्रयाय रहा होगा ।
विज्ञानभिक्षु एक संन्यासी थे इतना तो निरिचत दी है; ओर संन्यासकाल में ही उन्होन ये ग्रन्थ लिखि हैँ यह भी उनके ग्रन्थों की पुष्पिकाओं से प्रमाणित है? । अतः वहुत सम्भव है कि वे प्रयागं मे कहीं बाहर से आए हों जौर सावना के लिए उन्होने भारतवषं के इस अन्यतम धार्मिक स्थर को चना हो । एक तकं ओर अधिक इस मान्यता को सवर बनाता दै, वह् यह कि “भारतवषे' ओर -्रयाग' को कर्मकषेत्र बतानेवाङे दोनों उद्धरणों मं देवताओं का लीलामनुष- विग्रह से पृथ्वी पर आना ओर विज्ञानभिक्षु का अपने को भूदेव कहना कुछ उनकी अद्धंचेतन मस्तिष्कगत-सूक्ष्म-वारणा का परिचय कराता है। भारतीय पुनजन्मादि पौराणिक धारणाओं क्षे अनुप्राणित विज्ञानभिक्षु भीतर ही भीतर अपने को सामान्य मनुष्यो से ऊपर, देवी संपत्तर्यौ से युक्त कोई देवता पृथ्वी पर आकर साधना करता हुआ जैसा समञ्षते रहे हों, कम से कम अचचेतन-- मस्तिष्क मे यह सूक्ष्म॒धारण। पड़ी रही हो तो कोई आइचयं नहीं । जिसके
~~
१. सा्यप्रवचनभाष्य में वे लिलते ह -- क $ “निरीदवरवादे तु त्रिवेणीवदन्योन्याविभक्ततयकस्मन् कूटस्थे तेजोमण्ड ल- वदादिस्यमण्डले प्ङृत्यास्यसूष्ष्मावस्थया महदादेरविभागादारनवकम् तत्व" मिति (--सां० १० भा०्पू* सं० २४
२. उनके ग्रन्थो कौ पुष्पिका द्रष्टव्य है । उनमें अधिकांश्ञतः “यतीन्द्र! ओर '्यतिवर' यही शब्द प्रयुक्त हए है ।
३. भुदेवैरमतं तदत्र मथितुं विज्ञानविजैरिह ध शीमदरातिकसल्दरो गुरुतरो मन्थानदण्डो ॥२।--यो० वा० पृ०र३
२४ | आचायं विज्तानभिकषु
कारण ब्राह्मण वर्णं के अन्य पर्याय शब्दों के स्थाने पर उन्होने । अपने किए “भूदेव' शञ्द ही चुना । यह् तकं शुद्ध मनोैज्ञानिक है । मनीषियों का चिन्तन इस प्रसंग मे आकृष्ट होना चाहिए । मेँ इसीलिए इसको ओर केवर ईगित मात्र कर रहा हूं ।
संन्यासी लोगं प्रायः अपनी जन्मभूमि इत्यादिसे दुर रहं कर ही साधना करते ओर अधिकांशतः विचरण करते हैँ । इससे सहज ही यह् कल्पना होती है कि आचाय विज्ञानभिक्ष ने सर्वत्र विचरण करते हए भी ्रन्थ-प्रणयन ओौर योगानृष्ठान आदि साधघनाओं का क्षेत्र प्रयाग को बनाया होगा । इससे यह भी लगता है कि आए यह् कहीं दूसरी जगह से थे, इनकी जन्मभूमि ओर वाल्यकाल क्षेत कीं अन्यत्र है, क्योकि मनूष्य को इन स्थानों में रहते हए रागादिकषायों से जल्दी छुटकारा नहीं मिल पाता ओर विज्ञानभिक्षु ने "राग' कषायको वहृत प्रमुख समन्षते हए छोड़ने कौ घोषणा अपने ग्रन्यों मे कीदहे।'
जन्स्यनि
इनको जन्मभूमि के सम्बन्य मे छिखते समय ध्यान स्वतः इनकी पक्ति "देशो जन्मभूमिनेगरादिः"° कौ ओर खिच जाता है। स्पष्ट संकेत इस स्थान पर कुछ नहीं है किन्तु तुरन्त वुद्धि का आग्रह होता है कि चिज्ञानभिक्षु ने विना किसी चिरोष प्रकरण कौ आकांक्षा के देशो जन्मभूमिर््रामादि :" क्यों नहं छिखा ? सोचते का एक स्फोत सूत्र मिक जाता है। कल्पना होने लगती है कि विज्ञानमिक्षु का जन्म किसी ग्राम में नहीं वलिक किसी नगर मे ही अवदय हुमा था। उस नगर मे बड़ी-वड़ी सडके थी । किसी राज- घराने का महर भी था। वरहा इन लोगों का आना-जाना भी थाः। राजकुल मे इन जोग की प्रतिष्ठा थी। वहां ये लोग साफ-सुथरे कपड़े पहन कर ही जाना पसन्द करते थे। इस वात मेँ तो कोई संशय ही नहीं कि ये ब्राह्मण
१ तथापि अविच्यास्मितासत्वे रागस्यावर्थकत्वाद् देष भययोरच रागसूल-
कत्वाद् राग एव मुख्यतो जन्मादिहेतुतया यथोक्तवाक्यैर्निदिर्यते इति। --सांख्यसार प० ३
२. द्रष्टव्य, योगवातिक पु० ३३३
३. “उत्तरोत्तरभृम्यारोहो राजमागंः' ।-यो० सां० सं०, पृ० १६ योगाभ्यास राजमागंः' ।-यो० सा० सं०, पृ० ४०
४. ¶वासस्ते मलिनं राजङुलं सा गाः' इति !--वि० ०, प० २४९, ५०
आचायं विज्ञानभिक्षु का परिचय | २५
परिवार में उत्पन्न हुए थे'। इस प्रसंग मे प्रस्तुत किथा गया श्री हेयवदनराव जी का यहु मत कि 'विज्ञानभिक्ष् ब्राह्मण--कायस्थ थे" सवथा निमृ है । न केवल इसकिए् करि इस वतके प्रमाण नहीं हँ अपितु इसलिए भी कि इसके विरुद प्रमाण--उनके ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के प्रमाण--पुलभ हैँ । केवल ब्राह्मणों को ही तत्त्वज्ञान संन्यास आदिमे विरिष्टाधिकारटहै एसा वे स्वयं प्रकारित करते दँ ओौर अपने को "भूदेव" स्पष्ट रूप में लिखिते है।
आचाय विक्ञानभि्ु की सम्भावित जन्म-नगरी कौन सी थी? या भारत के किस भाग में थी? यह् कटना टेढ़ी खीर ह। तथापि कतिपय सूक्ष्म क्षीण किन्तु सुदृढ प्रमाण-तन्तुओों को सहायता से निश्च की ओर अग्रसर होना चाहिए--
इनके ग्रन्थों में हिन्दौ चाषा क प्रभाव पूर्णङ्पेण परिलक्षित होता है। एसे रन्यो ओर वात्यांयो की कमी नहीं है जो तंस्छृेत रूप में प्रयुक्त होने पर भी हिन्दी-प्रभावको ही प्रकट करते हँ। उदाहरणा हम कुछ प्रयोग छेते हे :--'बौटक" घोड के किए अवश्यक्तत्वम्" विरम्बसिद्धि"^ ओर शौ घ्रसिद्धि' "विलम्बभविष्यत्ता' “शो भ्रभविष्यत्ता'* “चोघ्रोमार्गं'° (कामनीया वेधनम्” मिलनम्"” 'मिकितिम्” अधिकाः" प्रघट् टकेन"^ जमाखचं वरावर के अथं मे नतुल्यायग्ययत्वम्'* इत्यादि ययपि संस्कृत मे कोरा ओौर व्याकरण से शुद्ध माने जा सकते हँ किन्तु इनका उन-उन अर्थो मे प्रयोग, वह् भी बहुतायत से, यह सिद्ध करता है किये शब्दयातो हिन्दौ व्यवहार से लेकर प्रयुक्त हए हैँ अथवा हिन्दी के निकटस्थ संस्कृ तानुवाद मान है । इन सामान्य लक्षण-
१. “भूदेवैरभतं तदत्र मयित विज्ञानविज्ञरिह' 1 -यो० वा० व २. श्रौ सी° हयवदनराव श्रीभाष्य कौ भूमिका में पु° ३७७ पर लिलते हँ - “ए. 1८ एत्८व्च€ ३ 5757४ 16 25 5210 (0 129४6 06107६९ {0 (€ एशपद्रा<वायुाल्य ०2516... 12125119 8. १. ए7वा1719ु8 (10 {गाएषद्व् श (त्त्पप्पना ग व 1८735018 25 ८211९व
६ 71201427014..
३. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ३३० ४. द्रष्टव्य, यो० वा० प° २८७ ५. „+ यो० सा० सं ६ ६. »„ योऽ वा० पु २९६ ७. + सां० सा०प्०३० ८. # यखै० सां० स० प° ५६ ९. + यो० वा०पु० ४४८ १०. + यो० वा० वृ ३२७ ११. „+ यो० वा० पुण १६७ १२. ५ सां० सा० पु० ४१ १३. „ सर्वग्रन्थेषु १४. + सां० प° भा० पु १५३
२६ | माचायं विज्ञानभिक्
वाले प्रयोगों के अतिरिक्त कुछ विशेष हिन्दी-प्रभावित प्रयोग भी इस प्रसङ्गः में दशनीय दै--
१, नारायणोऽयं भासते
२. येन रात्रिदिनव्यवस्थितिरिति'।
३. मुखङग्नां मसीमिव ॥'
४. एकदापरसूष्षमे प्रवेशासम्भवात्"
५. धानस्यतण्डकस्य चावधातेनेति ।*
ये वाक्या तो निर्चय ही हिन्दी कौ संस्कृत--छायामाव्र है । सूये" को
“सूरय ओौर “सू्ेनारायण' नाम से तौ भारत के अनेक भागों मे व्यवहृत किया जाता है। उत्तरी भारत में तो भाज भी विशेष कर देहातौं मे नारायण जीः उडइ आये' नारायण जी के उदित हो जाने के किए प्रयुक्त क्रिया जाता है । सूयं को केवर (नारायण' शब्द से व्यवह्त करना विज्ञानभिक्षु को हिन्वी- भाषी क्षेत्र का निवासी सूचित करता है । दुसरे उदाहरण मे तौ यह धारणा ओर जागरूक हो जाती है । संस्कृत मे "नक्तंदिवम्, अहोरात्रम्" "रात्रिंदिवम्! इत्यादि समस्त पदों का विपुल प्रयोग देखा जाता है । “रात्रिदिनः जैसा समस्त पद इसी प्रकार के हिन्दी भादि के प्रभाव से पूणं संस्कृतके किसी ग्रन्थ मं अले देखने को मिल जाय किन्तु शुद्ध संस्कृत-वारा के ग्रन्थों मं ये प्रयोग मिलने असम्भव है । यह प्रयोग तो “रातदिन' नामक हिन्दी के वहुप्रयुक्त समस्तपद की संस्कृतछायामातर प्रतीत होता है। तीसरा प्रयोगतो "मुख में र्गी हई काकिल' का शुद्ध संसछृतानुवाद गता है । एकवारगी के अर्थं मे एकदा का प्रयोग पूणंतः हिन्दी के प्रयोग "एकदम' या "एकधम' से अनुप्राणित है। वैसे ही धान (वा) के अथं में “धान' शब्द का प्रयोग हिन्दौ मेँ ही होता है। संस्कृत में ्रणुक्त होनेवाला "घान" शब्द केवर भूने हुए दने मथवा बीज के अथं मे--वह भी केवर बहुवचन भौर स्वरीलिद्धं मे होता है।* इस आधार पर यदि विज्ञानभिक्षु की जन्म-नगरी हम उत्तरप्रदेशमे या बिहार
१. द्रष्टव्य, यो० वा० पु १११ २. द्रष्टव्य, यो० वा०पु० ३४३; ३. » यो० वा० पु० ३५१ ४, „+ सां० प्र भा०पु०२ ५. + सां० प्र भा० पृ०५९ ६. श्वाना भष्टयवे स्त्रियः--अभर० २। ९। ४७
श्वाना भृष्टयवेऽडकूरे धान्याके चणसकतुषु' इति हैमः
अण्व्य इवेसा धाना भगव इति ।--छा० उ० अ० ६। ख० १२
आचायं विक्ञानभिक्षु का परिचय | २७
से अथवा मध्यप्रदेश के उत्तरी भागम माने, जोकि श्थ्वींसे लेकर १७वीं दाताब्दी" तक हिन्दी के अन्यतम गढ रहै, जसा किं हिन्दी ना० प्र० सभा की रिपोटेसे प्रमाणित है, तो सत्यसे वहुत दूर न होगे।
विचरण-स्थल
आचाय विज्ञानभिक्षु संन्यासीथे ही उन्होने देश में परिभ्रमण किया होगा । दशन के ग्रन्थों मे यद्यपि स्थानों के सौन्दयं-चित्रण आदि का कोई अवसर तो रहता नहीं इसक्ए तत्तत् स्थानो की ओर द्ंगित करना हम रोगौ के किए असम्भव होगा तथापि कुछ फुटकल इशारों के वल पर यह कहा जा सकता है कि उन्होने भारत के अनेक भाग देखे थे। उन्होनि न्नीरुगिररि पर्व॑तं का नाम उल्किखित किया है * जिससे उनका दक्षिणी भारत का रमण सिद्ध होता है 1 “उष्ट् कुडकुमवहनवत्' नामक सांख्य सूता का भाष्य करते समय “स्वाम्यम्” पद का उनका प्रयोग॒ राजस्थान तथा प्र्चिमी उ० प्र° के व्यापारियों की प्रगति की ओर आंखों देखा इशारा प्रतीत होता दै। “लुष्नस्य- पाटलिपुत्रस्ययोरिव' सांस्य-सूवांशा के भाष्य मे इन नगरों को उन्होने नगर नहीं कहा अपितु श्देश-विशेष' बताया रहै । न दोनों नगरों के नाम पर १६वीं शताब्दी तक प्रदेशा या इलाक् बन चुके थे । इसकिएु इन इलाक्रों को मलो देलौ प्रादेशिक रूप की सत्ता इन्होने अनुभूत की रै जौर तभी भाष्य मे इनको एसी परिभाषा करने को उदयत हए प्रतीत होते है । इससे भागरा के प्रदेश ओौर मघ्य विहार के प्रदेदों मे नका विचरण निर्णीत दै । प्रयाग क्षेत्र तो इनका साधनास्थक ही रहा । काडी के रहनेवाले श्री भावागणेल दीक्षित इनके साक्षात् श्रिय रिप्य ही थे^। देहातों के सीवे-सादे अनेक चित्र इनके ग्रन्थो मे बिखरे पड़ है" । वन
१. विद्ञानभिक्षु का जोवनकालं इसी अवधि के वीच भें ही निर्धारित होता है। 5
२. ऽश्बतौ 9 प्रप्ता 1१011111 8 रिपोद्स काली नागरी प्रचा- रिणी सभा से प्रकाशित हुई है! वे द्रष्टव्य है]
„ द्रष्टव्य, यो० वा० पु० २३४१
, सां० प्रन्भा० पु १०८
~ » सां० प्रं° भा०प्० ९ ४ ्
६. भावागणेशदीक्षित सम्बन्धी “ १६बीं शताब्दी काजी, में प्राप्त हा हे । छेख पी० के गोडे महोदय का--अडि० =!० ० फरवरी, १९४४ भें ।
७. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० २४४ ३४२
२८ | जाचा्यं विन्नम्
के अंशभूत वृक्षों का विवरण देते हए 'पनसाञ्रदाडिमादि" का कृथन उन प्रेद मेः इनके परिश्रमण का सूचक दै जहां न तीन प्रकारके वृक्षका एक ही वन मे समावेश बहु तायत से रहता है । एसे उपवन सम्भवतः वंगाल के उत्तरी प्रदेश मेँ भधिक पाए जाते हं । तात्पथं यह है कि भारत के अनेक उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी ओर पदिचमी प्रदेशों का इन्दोने परिभ्रमण कियाथा ओर उन-उन स्थलों के चित्र-चिचित्र अनुभवी से इनका ज्ञान परिपृष्ट था। व्यक्तित्वं `
विगत विवेचन से हम यहं निष्कं निकाल सकते ह कि चिज्ञानभिक्षु का जन्म एक समभ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुमा था । उन्होने बड़ी लगन ओर अध्यवसाय के साथ विद्याघ्ययन किया था । संस्कृत साहित्य, व्याकरण, वेद, वेदांग ओर समस्त ददनों का उन्दने ज्ञान उपाजित किया था। उनके दा्लनिक खण्डन-मण्डन-संकरुल ग्रनयो मे भी कालिदास ओर माघः कौ पंक्तिथां वरवस निकल पड़ी हैँ । उनके साहित्यिक अनुशीलन का यह सवल दो्तक है 1 बिवादास्पद पदों का व्यु्पत्ति-निमित्तक अथं देने" की पद्धति इनकी व्याकरण- परायणता की ही व्यञ्जक है। वेद, देन ओर उपनिषदों के सम्बन्ध मे तो इनकी कतिया, साक्षात् प्रमाण है। दक्षेन मेँ स्मृतियों जोर पुराणों के सहयोग सिद्ध करने मतो ये अद्वितीय सजगं प्रहरी रहें है। विद्याव्यस्तन यर अंकरुरित होते हृए वैराग्य के कारण इन्होने प्रत्रज्या ग्रहण कर री । गृहस्य जीचन के प्रति ये उदासीन रहं यह वात उनकी गृहस्य साधकों के ्रति भरदाश्ित हीन दुष्ट से सुस्पष्ट है ।* गुरु से दीक्षा केने के उपरान्त इन्टोने एकान्त योग-प्ावना का मागं ग्रहण क्रिा। ये एक त्रिदण्डो संन्यासी थे।
योगस्ाधना में पर्याप्त सफलता प्राप्त" करके इन्होंने उपदेश देना ओौर ग्रन्थ छिना प्रारम्भ किया होगा क्योकि अपने योगानुभव का उल्लेख
१९ द्रष्टव्य, यो० वा० प° १९८
२. विषमन्यमतंक्वचिद्भवेद्' ।--यो° वा० प° ३१२
३. शुद्धेभोग इवात्मनि' ।--तां भ्र° भा० पू० ५५
४. "चिती संज्ञान इतिव्युत्यर्था चेतनोऽत्राभित्तः"--सां० भ्र भा० १० ८१ इत्यादि न
५. द्रष्टव्य, उपनिबद्भाष्यम्, ईइवरगीतःमाष्यम् ओर अस्थ प्रत्य)
६. , यो० सा० सं° प° ६०
७. “स्वानुभवसिद्धस्वात्"--यो० सा० सं प ८
आचार्यं विज्ञानभिक्षु का परिचय | २९
अपने योग-गरम्थो मे इन्होंने स्वयं किया दै। इस समय तक इनके गुरं ने विदेहकवल्यराम् कर लिया था।' इनके शिष्य भी अनेक लोग हुए । इकर दिष्यों की संख्या बहुत थी । अनेक शिष्य गृहस्थ भी थे जिनमे से भावागणेश इत्यादि बहुत ही प्रसिद्ध है ।? गरन्य-परणयन के साक्षाद् वोध्य इनके दिष्य ही थे ।* शिष्यब्यतपत्तिः ही इनका अधिकांरतः लक्ष्य रहता था। इनके सिद्धान्त की युवितयुक्तता ओौर इनके ज्ञान की सर्वाद्गीणता का पूणं विवेचन तो अगले अध्यायो में किया जायगा । हां यहाँ यह बताना अपेक्षित है कि इनको अपने ज्ञान पर निष्ठाथी ओौर चरम कोटिकी अस्था थी इस आत्म-विदवास कौ अधिकता के कारण उनके ्रन्थो में विपक्षी विद्वानों के प्रति कुछ तीखे वाक्यो" ओर शब्दो का प्रयोग हो गयादै। रङ्ुराचाये आदि दिमगज दाक्ञेनिकों के किए प्रच्छन्नवौद्ध कलिङ़तापसिदधान्तीˆ ओर वेदान्तितरुव+ प्रभृति पदों का प्रयोग न केवल उनके प्रबल आत्मविदवास क्रो प्रकट करता है अपितु तज्जन्य स्वभाव की उग्रता या प्रबरता का भी निदचायक है।
उनकी निर्मम एवं तीव्र ज्ञानात्मकसावना के अन्तरारू में भर्वित-भावना का सुमधुर रसभीहै। जागे के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायगा कि सांख्य, योग, ओर वेदान्त तीनों का समन्वयचाद (योग के प्राधान्य पर ही) विज्ञान- भिक्ष् ने निरूपित किया है। योग भै ईरवरवाद की गंजायश है विज्ञान
~
१. यान्तु श्रीमद्गुरोः पदम् (--वि० भा० पु० १
२. “परिचयात्मक इलोक' भा० गणेडा चिच्चन्दिका के प्रारम्भ मे।
३. इनके दिष्यों मे भावागणेश, प्रसादमाघवयोगी ओर दिरव्यासहमिश्च अधिक प्रसिद्ध है! श्ञरीरकारिकाभाष्यवातिंककार' दिव्यसिंह ने स्पष्ट ही विज्ञानभिक्षु को शिष्यता का वर्णनं किया है ओर प्रसादमाचवयोगो को वि० भि० के शिष्यो से सबसे अधिक व्युत्पन्न बताया हं ।--हालहृत भूमिका 'सांस्यसार' पू० २८
द्रष्टव्य वि० भा० पु० ३३ इत्यादि ।
, वि० भा० पु० ४, १६, ३८, ८७, १२५, ६०१ इत्यादि,
. "्यत्ुकदिचिदविवेकौ" इत्यादि सा० भ° भा०पु०९२. ५
~ यत्तु वेदान्तित्ुवाणामाधुनिकस्य जायावादस्यात्रलिडगं दुद्यते अनर्थं च रीत्या नवीनानामपि भ्रच्छन्नवौद्धानांमायावादिनामविदयामातल्व तुष्छस्य बन्धहेतुत्वम् निराङृतं वेदितव्यम् [--सां० प्र० भा० प° १७ इत्यादि
, द्रष्टव्य, वि° भा० प° २६
, {इत्यादिनैकस्थलेषु'--सां° भर° भा? इत्यादि
@ 6 -@ ०
वि० भा० यों० बा° प ११०
० ^
३० | आचाय विज्ञानभिल्ु
भिक्षु कौ अन्तरात्मा ने ईर्वरवाद के रससिन्धु मे अपने ज्ञानचक्षु धोए थे । इसीलिए योगसाधना के ईरवरमागं को मुख्यकल्प ओर निरीश्वर साधना- पथ को अनुकल्प के खूप मे विन्ञानभिक्षु ने प्रतिपादित किया दं। उन्ोने स्वयं मृख्यक्ल्प की ही शरण ली थी। वेएक भक्त ज्ञानी थे। उनका साध्य ज्ञान ओर तज्जन्य कंवल्य था, साधन थी भव्ति। इस प्रकार से व्र भक्ति-मार्गी ज्ञानी थे। ज्ञानमार्गं भक्त नहीं । उनके ज्ञान का लक्ष्य इष्टदेव के श्रीचरणों कौ भव्ति या रति नहीं है । उनकी भक्ति का लक्ष्य विवेचन- ज्ञान या विवेक-ल्याति है। श६वीं या १७बीं शताब्दी मेँ भारतीय-भक्ति- जागरण के समय मे अपने शिष्यो या स्वयम् अपने को शुष्क ज्ञान मार्गी रख सकना उनके किए भी असम्भव ही था । इसीलिए अपनी रचनाओं मे भये हृए प्रसंगो में राम ओर कृष्ण का नाम उन्होने वड़े आदर से ल्या है ° उन्ह विण्ण्वादि के अंशावतार रूप मेँ स्वीकृत भी कियाह। किन्तु उन्हे साक्षात् वह परमेवर नहीं माना है जो कि ज्ञानात्मक दृष्टि का उदात्त- विन्दु है, निर्गुण है, निविशेष है ओर असद्ध॒दै। यह परमेर्वर भक्तो की भावभीनी कल्पनाओं का सुमधुर प्रतीक नहीं । विज्ञानभिक्षु का अमरसंदेस ज्ञानचक्षुं को खोलने के चि है, भक्तिभावना में विभोर होकर नेत्र बन्द करने के किए नहीं । उनके हरि मोक्षस्वरूप नहीं हैँ केवल मोक्षद अर्थात् मोक्ष-मागे को प्रशस्त करने वाले हैः ।
निस्चय ही चिज्ञानभिक्षुने दीर्घयु पायी थी। अपनी साधनाओं के पङ्चात् उन्होने ग्रन्थलेखन प्रारम्भ किया ओर शिष्य बनाए थे, जिनके किए उन्होने अपने व्याख्याग्रन्थ लिखे ओर संद्धान्तिक खण्डन मण्डन मं बद्धपरिकर इए । ग्रन्थ उन्होने र्गभग १८ ल्खि हवे भी विशाक्काय ओर विचार विरलेषणपूणं । साधनाएं प्रौढ हए विना प्रशस्त नहीं हो सकती थीं । अतः साधनां को प्रौदि के वाद इतनी विशार ग्रन्थ-राशि के प्रणयन के लिए दीघेकाल का अवसर सुलभ होना चादहिए। इसलिए उनके जीवन-काल को हम कम से कम ८०-८५ वषे तक प्रसृत समज्ञ सकते हैँ । अपने अन्तिम दिनों मेँ उन्होने चिरसर्माधि ले री होगी ।
१. द्रष्टव्यः यो० सा०सं° पू ६२, सा०प्र० भा० प० ११५, सां०ष्र०भा० प० १३२ 4
. श्रीयतां व हरिः ।'-सां० प्र° भा० मङ्गलाचरणम् पृ० १ वाले अध्यायमें इन ग्रन्थों का सम्थक् वर्गोकररण होगा ।
~< ९)
क रेसलर ` -
आचायं विक्ञानभिक्षु का परिचय | ३१
नीवन-कालं
पृष्ठभूमि
चिज्ञानभिक्षुं के समय का निर्धारण करना भी उनकी आत्मगोपन की प्रवृत्ति के कारण काफी जटिल विषय ह। भारतीय वाडमय के इतिहास छेखकों ने सामान्य ढंग से उन्हे सोरहवीं रताब्दौ का आचायं माना हे । प्रोऽ ए० वी° कथ महोदय ने इस प्रसंग में वड़ी अनिरिचतता प्रदशित कौ है। अपने ्रन्थ "सांख्य सिस्टम"" मे उन्होने विज्ञानभिक्षु कौ स्थिति श६वीं शताब्दी मे मानी है किन्तु अपने एक अन्य ग्रन्थ (संस्कृत वाङ्मय का इ तिहास-अग्रेजी संस्करण) ° मे चिज्ञानभिक्षु का समय उन्होने १७बीं शताब्दी का मध्य भाग स्वीकार किया है । श्रीयुत एष्० ई० हाक, डा सिचि गावे, प्रो° एम विन्तरनिट्ज डा° एस° एन० दासगुप्त एवं डा राधाकृष्णन्" इत्यादि विद्धानों ने विज्ञानभिक्षु का समय श्वी रतान्दी ही निर्धारित क्रिया है। चकि इस प्रसङ्ग मे पर्याप्त प्रकारा का अभाव था ओर विरोध भी नहींथा इसलिए उक्त मनीषियों ने इस मत कौ पुष्टि के लिए उपयुक्त तर्कोँकी प्रस्तावना भी अधिक नहीं की ।
इस सम्बन्ध में डा० पी० के° गोडे ने अपने एक गवेषणापूणं लेख“ में एक नई सूचना दी है कि विज्ञानभिक्षु के सप्रसिद्ध रिष्य भावागणेश के दारा हस्ताक्षरित एक निणंय पत्र (१५८३ ई०)का मिला है जिससे विज्ञानभिक्षु जौर भावागणेश दोनों का कालनिर्णय वड़ी सुविधा से ^१६बीं राताब्दौ' किया जा सकता है । यह निर्णयपत्र बनारस में मुवितमण्डप पर लिला गया था । इसका
१. ऽत्रपतव शल. ?. 114 ण 4.8. ला.
२. घाऽ्णर 9 ऽवप [लवा १. 489 ४# ^. ए. लप.
३. 2161406 10 1116 अतरपाता2 5812 ?. 7 £. 7. प्21].
४, 169८८ (0 € 1111 २१ प्त २. 8 ण 0. ₹. 2106.
५. [ताश [न्लाश्पा (छली 70.) ?. 487 छ क. पणपष्- 1112
६. पाऽ(० 10ता त एणाग्णग ४०. 1 ए. 212, 221 णि- 9. क. 1025 @प५६.
७. [तार्ण ुषा०ण भ. 0 शाना.
1018 {11 169. * £ 1 न ए. 76 ण २. 9. एणा,
एव 1926.
३२ | आचाय विन्ञानभिन्त्
समय शाक सं० १५०५ ( १५८३) ई० ह । इसमें तात्कालिक वाराणसीय ब्राह्मण गे के मखियों कौ सम्भति भौर उनके हस्ताक्षर टं। उसमे भावागणेश विषयक लेख दष प्रकार है--“तव्र संमतिः। भावये गणेशदौक्षित प्रमुखचिपोरणे ।'
गोडे महोदय ने तकंभाषा कौ टीका तत्त्वप्रनोधिनी के रचयिता गणे दीक्षित“ जिनके पिता का नाम गोविन्द ओर माता का नाम उमा था-ओौर विज्ञानभिक्षुके शिष्य भावागणेश दो क्षित*-डोनों जिनके पिता का नाम चिरवनाथ ओर माता कानाम भवानी था-दोनों को एकी व्यविति मानने की भी सम्भावना की दै ओर उस लेख की पादटिप्पणौ मे इसका हल्का संकेत किया है। इस मान्यता से निरणयपन्र में हस्ताक्षर करने वाले 'भावयेगणेरादीक्षित' को निस्संदेह रूप से एकमात्र विज्ञानभिक्षु के दिष्य रूप में मानने की सम्भावना ओर बड़
१-- ^ पव्तपने नामसाम्य के श्रम से इस ग्रन्थ को भी भावा- गणेदा की ग्रन्थ-सुची में गिना दिया हे : ९ 1. 144 --'भावागणेशदीक्षित' 801 ०६ भावाविहवनाथदीक्षित, € ०105०07: ©: -भावारामकृष्ण' एष] 0॥ ॥ (1111111
--कपिलमत्ररीका 0107 1४, 70. --चिच्चन्द्िका प्रनोधचन्द्रोदयटीन्ता 0{ 1418, ०पत्] ह; 60 एललाऽ 5, 425.
- तत्वप्रवोधिनी, तकंभाषारीका प्ल्] 118४9 गण्य 1456, 7976, २1८९ 108.
-तत्त्वसमासयाथाथ्यंदीपन प्रा 7. 4. 1.. 1787, पि. ५. 386, 894, 596 ०प्ताष 1870, 12. ४, 70 शण, 60. --योगानुशासनसूचवत्ति प] ‰. 11, ए€" 60, पि. ४४. 418, 0प्तो), ॐ] 150, 1२1८६ 190. २. भाष्ये परीक्षितो योऽर्थोवातिके गुरभिःस्वयम् । योगानुज्ञासनसुत्रवृत्तिः पु०१। गुरभि्चवातिकेऽपि कियन्तः प्रदिता : ! पृ ०५५ मङ्गलाचरणरलोकाः। तत्त्वसमासयाथाथूर्यदीपनम् । ओर वही प०८५,८८ ३. प्रनोधचनद्रोदय की चिच्चन्दिकाटीका का प्रथन शलोक आसीद्भावोप- नामा . . -स्तु' \ आसीद्भावोपनामाभुविविदितयशा रामङ्ृष्णोऽतिवित्तः तस्माद्भार्यां विनीतोविविधगुणनिर्धिवदवनाथोऽवती णैः । तस्मात्प्रव्यातकीर्तेविविधमखलृतः प्रादुरासीद् भवाल्याम् शरीसत्यां यो गणेगो भुविविदितगुणस्तस्यचिच्चन्दिकास्तु छ, (वा ४८ दवृप्ाल पाञापवाहा9 पणप, ©0ंरत> वत् रमि 111 एणा?" -^का [एाया एषणाल्पा एन, णा एव्म 1 ए6€०. 1944, २. 20.
आचार्य विक्ञानभिक्षु का परिचय | ३३
जाती है क्योकि अन्य कोई गणेशदीक्षित उन दो-तीन शताब्दियों मे उग्टेखनीयः या प्रसिद्ध हुजा ही नहीं है ।
डा० गोड के मतों का खण्डन उदयवीर शास्त्री ने अपने (सांख्यद्दन का
इतिहास" नामक ग्रन्य मे वड़े मनोयोगसे किया है ओौर साथ ही साथ यहं मतः उपस्थित किया कि विन्ञानभिक्ु श४बीं शताब्दी मेँ हृए। उनके विचारो का सारांश यह् है--
(१) विक्वनाथ ओर गोविन्द तथा उमा ओौर भवानी की एकता असंगत होने के कारण भावागणेश ओर तच्वप्रवोधिनीकार गणेशदीक्षित की अभिन्न-गव्यकतिता एकदम निराधार है।
(२) विक्ञानभिक्ु के शिष्य भावागणेश ने अपने नाम के साय कहींभी दीक्षित पद का प्रयोग नहीं किथा। अतः आफ्रक्ट ओर हालका अपने हस्तलिखित-गरन्थ-सम्बन्धी निदेशो मे भावागणेश के साथ "दीक्षितः पद का प्रयोग करना सर्वथा आरान्तिमूकक है ।
(३) "भावा' ओौर भावये" पद भिन्न-भिन्न दै । एक ही व्यक्ति अपने कए 'मावा' ओर "भावये" दोनों पदों का प्रयोग अलग-अलग स्थलों पर नहीं कर सकता । भावये पद भावे के निकट है भावा के नहीं । अतः निर्णयपत्र मे हस्ताक्षर करनेवाला भावयेगणेश दीक्षित विज्ञानभिक्षु का शिष्य भावागणेल नहीं दै । फलतः निणंयपत्र से विज्ञानभिक्ष के समय पर कोडई प्रका नहीं पडता ।
(४) भ्रतयूत॒विज्ञानमभिक्षु अनिरुढ एवं महादेव के परवर्ती" ओर अद्वैत-ब्ह्मसिद्धिकार सदानन्दः यति के पूरववर्ती रहै।
, सदानन्द यति ने जे
, द्रष्टव्य, पु० २९३-२९८ पयन्त “सांव्यदर्ञन का इतिहास" : पं० उदय-
वीर ज्ञास्त्री ! यह् अरन्य सन् १९५० ई० में विरजानन्द वेदिक संस्थान,
ज्वालापुर, सहारनपुर, से प्रक!शित हुआ है ।
विज्ञानभिक्षु ने अपने सांख्यभाष्य के अनेक स्थलों पर अनिरडधवृत्ति करा खण्डन ओर संकेत किया है--प्० १४५ १५, २४, २२, ५२९ ८८, ८९, ९२, १०४, १४२, १४५, १६२ इत्यादि \ लिन जिन प्रमुख पाठभेदादि कता निदेक्पू्वक खण्डन उन्होने क्या है, वे सब अनिरुडवृत्ति मं उपलब्ध होते है! करीर निवासी भे 'अद्ैतत्रह्यसिद्धि' नाम का प्रसिद्ध ग्रन्थ लिलाहै। वे धवल कोकसानुयषयी ये । आकषट के अनुसार वे ग्रन्थ है--
१-अद्रेतत्रह्मसिद्धि २-स्वरूपनिगेय -स्वरूपभ्रकार ४-जीवरमुवित् प्रत्निया
फा०३
[+ -~ ~~~
| |
३४ | आचार्यं विज्ञानभिक्षु
सदानन्दयति ने बरिज्ञानभिक्षु का नामोल्लेखधूवेक खण्डन किया]
(५) सदानन्द यति ने अपने ग्रन्थ “अदरैतत्रह्मसिद्धि" में रामानुज ओौर मघ्व का जोरदार खण्डन किया है किन्तु वल्लभ ओर निम्बादित्य कीओर कोई संकेत तक नदीं किया । इससे निरिचत होता हं किवे वल्लभ से पूर्ववर्ती है। निम्बादित्यतो वल्लभ से भौ वाद के है । वल्लभ का समय बिल्कुल निर्णीत दै (१४७८ ई में उनका जन्म हुआ था ) ।
(६) सदानन्दयति के अन्यतम ग्रन्ध वेदान्तसारः के सम्बन्ध में किखते समय प्रो° ए० बी० कीथ ने भी सदानन्दयति का समये १५०० ई० के कुछ पूर्वं ही स्वीकृत किया है ।'
(७) इससे स्पष्ट हो जाता दै कि विज्ञानभिक्षु सदानन्द से पर्याप्त पूवं हो चुके थे! किसी भी तरह से वि्ञानभिक्षु को चौदहवीं रताब्दी के बाद का नहीं माना जा सकता । अतः निरिचित ल्प से विज्ञान भिक्षु का समय १३५० ई० के समीप पूवं ही माना जा सकता हं 1"
सपरय-निारण
विज्ञानभिक्षु के समय के विषय मे उनके समग्र ग्रन्थों के गहन अध्ययन से प्राप्त निणेय को इद्कित करने के पूव ऊपर दिये गये विचारों का विवेचन कर लेना अधिक उपादेय होगा । सम्भव रहै काम की कुछ बातें इन विचारों के अनुशीलन-परिशीलन से भी मिक जायें । प° उदयवीर शास्त्री का यहं सत कि-तत्तवप्रवोधिनीकार गणेशदीक्षित ओर विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावा- गणेडा एक ही व्यित नहीं हँ--उपयुक्त है । गोडे महोदय की यह सम्भावना
पं० उदयवीर शास्त्री ने इस ग्रन्थ-तालिका सें वेदान्तसार, पंचदरीरीका ओर अद्रैतदीपिका-विवरण जोड दिये हँ ओर स्वरूपनिणेय तथा स्वरूप- प्रकाश को नहीं गिना है ।--सां० द० का इतिहास, प° २९९
१. यच्चा साल्य-भाष्य-कृता विन्ञानभिक्षुणा समाघानत्वेन प्रलपितम् । --अ०. न्न ० स्षि० द्वितीय संस्करण, कलकत्ता विदवविच्याल्य से प्रकाशितः भु०° ९७
२. पं० उदयवीर शस्त्री ने वेदान्तसारः को सदानन्दयति की रचना बताया है --सां्यदशन का इ तिहास प° ३०१
३. द्रष्टव्य, हिस्ट्री आंफ संसृत लिट्रेचर प° ३०१
४, द्रष्टव्य, सां० द० का इतिहास, प्० ३०४
आचार्यं विज्ञानभिक्षु का परिचय | ३५
कि विश्वनाथ ओौर गोविन्द तथा उमा ओौर भवानी एक ही माने जा सकते है सर्वथा निराधारहै, क्योंकि इस प्रकार का नामभेद विना व्यक्तिभेद के सम्भव नहींदहै। साय ही इस प्रकार वाच्यां के बर पर नामों की समानता करने पर तो जाने कितने आदमी दूसरे आदमियों के स्थान पर प्रहण किये जा सकते हँ । इस प्रकार बहुत बड़ी अव्यवस्था हो जाती है।
तथापि गोडे महोदय की यह् सूचना कि विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावा- गणेश ने निणेयपत्र पर हस्ताक्षर किया है--समोचीन प्रतीत होती है। इस विषय में शस्त्री जी द्वारा प्रस्तुत अपत्तियों को समीक्षा इस प्रकारकी जा सकती है--
(क) विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश ने अपने ग्रन्थों में "दीक्षितः पद का प्रयोग अपने या अपनेपिता विदवनाथ के नाम के साथ कहीं नहीं किया-- यह वात गरुत है। तत्वसमास पराथाथ्यंदोपन कौ परिसमाप्त करते हुए पुष्पिका मे अपने पिता का नामोल्टेख 'विद्वनाथदीक्षित' ल्प में ही भावागणेश ने किया है।' इसकिएु भावागणेश के गोक्षित होने मं सन्देह करना असंगत है ।
(ख) भावा ओर भावये शव्द की भिन्नाथकता या अल्ग-अङग अस्तित्व मानना भी उचित नहीं है । संस्कृत भाषा में प्रयोक्तव्य रूप भावा ही था। इसलिए संस्कृत ग्रन्थ छेखन के समय गणेश अपने को भावा ही लिखिते धे “मावये' नहीं । नि्णंयपत्र में हस्ताक्षर करते समय यद्यपि वह् अपने को भावा भी लिख सकते थे किन्तु दैनिक व्यवहार में अन्य लोगों के द्वारा उच्चरित होनेवाके पद का प्रयोग करना अस्वाभाविक नहीं है। उस निणेयपव्र मे हस्ताक्षर करने वाके "खले कृष्णभटुट प्रमुख कल्ाड' इत्यादि प्रमुख रोगों ने भी वोलचाल के व्यवहार भें प्रचलित नाम लिखे ह उनके संस्कृत रूप नहीं । इसी निणेयपत्र मं एक “भावये हरिभट्ट' भौ निदिष्ट है जो कि 'भावयेगणेश' दीक्षित श्रमुखचिपोलणे' के भाई या चाचा
१. इति श्री भावाविदवनाथ दीक्षितसूनुभावागणेरविरचितं तत्त्वयाथाध्यं- दीपनं समाप्तम् !“--पुष्पिका त° या० द° चौखम्भा सं सी मं प्रकाशित ।
२२. निर्णयपत्न १५८३ ई० ।
३६ | माचायं विज्ञानभिक्षु
ये! । महाराष्ट ब्राह्यणो का यह परिवार जो कि वोलचाल में "भावये" कटाः जाता था शद्वीं शताब्दी में बनारस में प्रतिष्ठित रूप में निवास करता था। यदि महाराष्ट्र निवासी ^भावे' नामक त्राह्यणवंश से व्यतिरिक्त यह् कोई महाराष्ट ब्राह्मण वंश बनारस मेँ आकर "भावये" नाम से प्रसिद्ध होकर रहता था तो इसका उद्गम महाराष्ट मे "भावये या "भावा" नाम से प्रसिद्ध ्ाह्मण-वंश से होना चाहिए । परन्तु महाराष्ट मे “भावये' या “भावा नाम से प्रसिद्ध कोई भी ब्राह्मणकुलं न आज है ओौरन चार-पांच पिछली शताब्दियों मे कभी विद्यमान था ।
एेसी दशा मे "भावये" शव्द को महाराष्ट मेँ प्रचक्ति “भावे शब्द का तात्काछिक बनारसी {संस्करण मानने [के अतिरिक्त ओौर कोई इस भरदन का समाधान ही नहीं हो सकता। १६बीं शताघ्दी मे भी महाराष्ट मे “भावे शब्द ही प्रचक्िति था१। इसीक्ए शास्त्री जी कौ यह मान्यता करि भावये शब्द ही धीरे-धीरे (भावे के रूप मे परिवत्तितहो गया है-अमान्य है । इतने उहापोह के पञ्चात् हम यह निणंय निकार सकते है कि जो वंश सोरहवीं शताब्दी मे महाराष्ट्र में भावे" नाम से प्रसिद्ध था वही महाराष्टरीय त्राह्यणवंश वनारस में उस समय “भाचये' नाम से प्रसिद्ध था 1 गणेश दीक्षित या गणेश भट्ट ओर हरिभट्ट तथा विर्वनाथः दीक्षित उसी भावये" वंश या 'भवे' वंशके ब्राह्मण थे। भावे रोग अपने नाम के आगे "भटृट' गौर "दीक्षित! दोनों या दोमेंसे किसी एक शब्द का
१ डा° पौ के० गोडे के जेख में पु० २५; अ० ला° बु वाल्यम,
१, फवरी १९४४
द्रष्टव्य भावेकूलवृत्तान्त'-जी० वी० भावे पूना, १९४० ई०
यहाँ के धाकुलभटभावे वेतोसी (₹८।०६) चले आए थे लगभग
१६०० इ० स |
, द्रष्टव्य, भा० कु° वु° १९४० ई० पु० १६
४. यह् सम्भव है कि वाद मँ (१७बीं, १८बीं) शताब्दी त्त _ महाराष्ट्र से उत्तर भारत का सम्पकं. वदने पर (मुग्रलों ओर मरागें के शासन कोल मे) वनारस के भाव्ये लोग भौ अपने को महाराष्ट्र स्थित अपने वंशवाले लोगों की भांति अपने को भे कटने खगे हो । जसा कि द्रष्टव्य हे--निणयपत्र सन् १६५७ ई० “संमतन् भावे खदरदी- क्षितस्य ।“--डा० पी० के° गोडे द्वारा निर्दिष्ट \
९४ ९) + *
आचाय विज्ञानभिधतु का परिचय | ३७
भी प्रयोग करते थे।* भावयेगणेशदीक्षित ने अपने संस्कृत ग्रन्थो में इस "भावये" शव्द का संस्कृतीकरण करके भावागणेल' पद का प्रयोग किया होगा । इस विवेचन काल मे एक वात सर्वथा स्मरणीय टै कि निणेयपव्र मे ययपि "तत्रसम्मतिः' या 'तत्रसम्मतम्" पद भले ही संस्कृत भाषा मेहो किन्तु हस्ताक्षरो की भाषा संस्कृत नहीं है अथवा यों कहा जा सकता है कि हस्ताक्षरों में संस्छृत-व्याकरणगत-समासादि नियम का पालन नहीं किया गया दै। हस्ताक्षर उभी रूपमे किए गए टै जिस क्प मे तात्कालिक वोल्चालमे वे नाम उच्चारित किए जाते थे।--इस वातं मेँ कोई अनुपपत्ति भी नहीं दै । इससे यह सिद्ध हुआ कि गोड महोदय द्वारा दी गयी सूचना कि--भावागणेश द्वारा हस्ताक्षरित सन् १५८३ ई० का नि्णंयपत्र विज्ञातभिक्षु ओौर उसके शिष्य के समय-निर्णय मे प्रकादा डाकत। है --चस्त्रौ जी की निवेरु मौर अनुपयुक्त दलीलों के आधार पर त्याज्य ओर हेय नहीं मानी जा सकती । विज्ञानभिक्षु के समय निणेय-प्रसंग मं यह तथ्य उपोद्बलकूप में अवद्य ग्रहण करने योग्य है।
(ग) शास्त्री जी का यह मत कि विज्ञानभिक्ु अनिर से वादके ओौर अद्वैत ह्यसिद्धिकार सदानन्द यति से पहर के है, सवे मान्य है 1 इस विषय मे हमें कोई आपत्ति नदीं । किन्तु इन दोनों व्यक्तियों के काल के विषय मेँ उनके मतः बिल्कुल ही अप्रामाणिक हैँ । हम अगले शौषंकों मे इस तथ्य का विवेचन करेगे । यह बात अरूवत्ता अग्राह्य है कि महादेव वेदान्ती विन्ञानभिक्षु के पूर्ववरीहें। न तो सहादैव वेदान्तो के द्वारा चिज्ञानभिक्ष् के सांख्यसूत्रभाष्य का उद्धरण अपने (सांस्यवृ्तिसार' मे न देना उन्हें विन्ञानभिक्षु से पूरववर्ती बनाता है ओर नही अन्य कोई एेस। अन्तः या बाह्य साक्ष्य सुभ होता हे। “सां व्यवृत्तिसार' नामक महादेव का ग्रन्य सांख्यसूव्र कीं स्वतंत्र टीका नहीं है, यह तो ग्रन्थ के नामकरण से ही स्पष्टदै किं यह ्रन्थ अनिरुद्ध की 'सांख्यसव्रवृ्ति' का सारांश मात्र टै । अतः इसमे केवल अनिरुद्ध के विचारों ओर उसके व्यकित्तगत निदेशो से तथा इसमे विक्ञानभिक्षु
१. भवि खद्रदीक्षितस्य, भावयेगणेदीक्षितस्य, भावागणेज्ञभद्दस्य--यो ° ० वृ० (पुष्पिका) भावयेहरिभदूटः (१५८३ ई० के निवपन म), धाङलभटभावे : भा० कु° वु०, प° १६
२. सं० २० का इतिहास पृ० ३१९ ` ० ९ ओर प° ३०१ १० १२.१३
३८ | आचार्यं विन्ञानभिक्षु
के अनिदश से महादेव का विज्ञानभिक्ु से पू्वंवत्तित्व नहीं सिद्ध होता । प्रत्युत महादेव वेदान्ती के समय का निर्णायक एक लोकः विष्णुसहस्रनाम की टीका में समुपलब्ध होता है जिसके बर पर हम महादेव वेदान्ती को १७बवीं शताब्दी इं०्से पूवं ला ही नहीं. सकते। अतः महादेव वेदान्ती विन्ञानभिक्षु के परवर्ती ही सिद्ध होते हैँ पूरवेवर्ती नहीं ।
(घ) सदानन्द यति का समय निरिचेत करने मे शस्त्री जीनेदो प्रमाण दिये हैँ । पहला प्रमाण यह दै किवे वल्क्भ से पूवेवर्ती हँ क्योकि उन्होने अद्रैतत्रह्यसिद्धि में वल्लभ ओर निम्थाकं का खण्डन नहीं किय। ओर दूसरा प्रमाण यह. है किप्रो° ए० वी० कीथ ने सदानन्द यति के अन्यतम ग्रन्थ वेदान्तसार का समय १५०० ई० के कुछ पूर्वं निचित किया है । इनमें से पहला तकं अद्र तत्रह्यसिद्धि की भूमिका लिखते समय वामन शास्त्री इस्काम- पुरकर'के द्वारा पहले ही दिया गयाथा। इस मत मे कोई जान नहीं हैं । अनेक प्रकारं के वेदान्त शाखावरम्बियों मे से सदानन्द यति ने केवल उन्हीं पर मृद्गरप्रहार किया ह जिन्होने शंकर को श्रच्छच्बौद्ध' संकर' "वेदान्ति- ब्रुवं" माधुनिकवेदान्ती' आदि अपशब्दों से अभिहित किया था जैसे रामानुज, मध्व ओर विज्ञानभिक्षु। अद्ैतत्रह्यसिद्धि में विधारण्यमुनीडवर ओर वेदान्त- मुक्तावरीकार तथा वेदन्तकौमुदीकार का भी" निदेश है किन्तु वे सव शंकरा- नुयायी कौ दृष्टि से महत्वमुणं थे सदानन्द यति के ल्एिन तो वल्लभ ओौर निम्वाकं शंकंरानुयायी थे, ओर न ही उन्टोने कदी भी जपने भाष्यों मे शंकर के किए एक भी अपराव्द का प्रयीग किया । उन लोगों ने शंकर को पूर्वपक्ष
१. ए० वेनिसछ तभूमिका-- (वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली } श्रीमत्स्वयंभ्रकाशाडधिलन्धवेदान्तिसम्पदः महादेवोऽकरोट्व्याख्यां विष्णुसहलनासगाम् 1 खबाणमुनिभूमाने वत्सरे श्रीमुखाभिधे मार्गासिततृतीयायां नगरे ताप्यल्केते ॥
-महादेववेदान्तिकृेत विष्णुसहल्नाम कौ टीका में पुष्पिका । इस इलोक के रचयिता ने इस ग्रन्य कौ रचना १७५० वि०, १६९३ ई० सेकीहै, यह् निश्चित है!
२. द्रष्टव्य, संस्छृत-भूमिका--अदैतन्रल्यसिदि
२ „ अदृतन्रह्यसिद्धि, पृ° १३०; १४३ इत्यादि
४. ‰ अहतन्रह्यसिद्ि
~+
नका
आाचायं विन्नानभिक्षु का परिचय | ३९
के रूपमे उत्थापितं करके जपने भ्यो मेः कहीं भी जोरदार शब्दों मे खण्डित भी नहीं किया है । एेसी स्थिति मेँ बहुत सम्भव है कि इस निर्दोपिता के कारण सदानन्दयति के मदग रप्रहार के रिकार न वने हों। इस वङ् पर सदानन्द यति को वल्लभ का पूवैवर्तीं मानना ठीक नहीं ह ।
रास्त्री जी का दुसरा तकं तो श्रान्तिकी चोटी का नमूना है । सभी संस्कृत-इ तिहासवेत्ता इस बात को जानते हँ कि सदानन्दयति कश्मीर-निवासी थे। उन्टोने वेदान्तसारः की रचना नदीं की ।' वेदान्तसार' के रचयिता सदानन्दयति दँ जो कि रावलपिण्डी के निकट कुन्त्रीर नामक गाँव में पैदा हुए भे मौर वाद मे कारी मे रहते थे," उनके ग् . का नाम श्री अद्रयानन्द था ।* जव कि सदानन्द यति के गृर श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती थे । दोनों व्यक्तियों को एक समञ्च कर उन्होने भ्रान्ति की हद करदी है । अतः यह् निविवाद है करि वेदान्तसार के आधार पर सदानन्दयति का समय निरिचित करना बिल्कुल व्यथं है ।
अद तत्रह्यसिद्धिकार सदानन्दयति का समय निरिचित करना अभी तक इतिहास की एक समस्था है किन्तु उसफी सम्भावित सीमा का निदेश करना यहाँ पर भी अपेक्षित है । सदानन्दयति ने प° ९ पर रघूनायरिरोमणि का नामोल्लेखपू्वक मत-खण्डन किया दै । रघुनाथशिरोमणि का समय सोरहवीं शताब्दी का पूर्वाद्धं (१४७७-१५४७ ई०) रुगभग निरिचतं है'। इत तथ्य का बाधक प्रमाण अभी तक कोई नहीं मिला । अव वँकि बंगाल के नदिया प्रदेश मेः लिखे गये उनके ग्रन्थ को करमीर तक पंच कर पठन पाठन-प्रणारी में प्रसिद्ध होने मे तात्कालिकं देशीय परिस्थिति कौ पृष्ठभूमि मे कम से कम पचास-सा वपं अवदय लगे होंगे । इसकिए रघुनाथरिरोमणि का स्फुट निर्देश करनेवाले ग्रन्थ अद्वैतव्रह्मसिद्धि के रचयिता सदानन्दयति
१. भ्रो० एम्° हिरियन्ना वाला वेदान्तसार का संस्करण प° ९५७ र 1 सिद्दिः 1 २. लक्ष्मणदास्त्री द्राविड द्वारा प्रकाशित 'भदवेतसिद्धि्ार' कौ भूमिका पु० १३-९५ ३. द्रष्टव्य, मडगलाचरण (वेदान्तसार ओर अवं तत्रह्यरि ट) ४. एतेन यत्दा्थलण्डनेक्िरोमणिना--परभाणुसद्भावैः *“ 4, 8 इत्यादि वल्गितं तदष्थयास्तम् अपसि द्धान्तत्वात् । अतत्रह्य मू ५ ५. द्रष्टव्य, दिस्टष आफ़ इण्डियनं कलाजिर प° ५४६२-५ (रघुनाथ भणिचिबयक अच्याय)
४० | आचाय विज्ञानभिकषु
का समय श१७बवीं शताब्दी ई० के पूवं नहीं माना जा सकता । इस्लामपुरकर तथा अन्थ इतिहासफार भी इसी वात से सहमत हं ।
इन सारे तथ्यों के सांगोपांग विवे चन करने से स्पष्ट है किं प° उदयवीर शास्त्री के द्वारा प्रस्तावित विज्नानभिक्षु का समय १४ शताब्दी ई० केवल कपोलकल्पित, निर्मूल एवं सर्वेया अग्राह्य है । समय की पूरव॑सीमा
विज्ञानभिक्ष् के काल्निणेय कौ इस अनिश्चथात्मक पृष्ठभूमिमें हमें कतिपय अन्य सक्त युक्तयो ओर साक्ष्य पर दृष्टि डालनी चाहिए ।
(१) विन्ञानभिक्षु क ग्रन्थों मे अनिरुद * मौर वाचस्पति? मिश्रके मतो के खण्डन के अतिरिक्त चित्सुख के मतो का भी खण्डन हैँ । चित्सु के द्वारा (तत््वप्रदीपिका' में स्थापित 'स्वप्रकाशत्व' के लक्षणः को विज्ञानभिक्षु ने अनेक स्थलों पर निर्दिष्ट किया है भौर योगवातिक' मे तो स्पष्टतः उसका खण्डन किया है--
"यत्त॒ अवे्यत्वे सति अपरोक्ष-व्यवहार-योग्यत्वं स्वप्रकारत्वमित्याधूनिक- वेदान्तिन्ुवाणां प्रलपनं तत्प्रागेव नि राकृतम्' (यो० चा० ४।१४ सूत्र के सन्दभं मे पृ० ४२९)
(२) विन्ञानभिक्षु ने योगवातिक कंवल्यपाद सें श्रौहषे* का नामोट्लेख किया है :-
सस्वम्नादिदष्टान्तेन श्रीहर्षादीन।मसत्वण्डनेन च वेदान्तन्ञानतज्जन्यज्ञानयो- रपि अरमत्वापतत्या वेदान्तप्रामाण्यासिद्रौ तत्प्रतिपायत्रह्यासिद्धिप्रसंगात्' (प्० ४२० यो० वा० ४।१४ सूत्र के सन्दभं मे )
(३) विज्ञानभिक्षु ने योगवातिकसाधनपाद मे कर्मसिद्धान्त पर वार्तिक का उपसंहार करते हुए कमं के एकभविकत्व' का सिद्धान्त खण्डित करने वाले वेदान्ती श्री रामादयाचार्थ^ : वेदान्तकौमुदौकार : का स्फुट खण्डन किया है--
१" छ्य्य्/ सा०अ० ० पृ० १३, १४.१८ इत्यादि २, + यो० वा० प° १२, ३०, ५३ इत्यादि ३. अवेचत्वे सत्यपरोक्षव्यवहारयोग्यतायास्तत्लक्षणं तस्मःदनाविलस्वभ का १ ध । _ --प० ११ तत्लप्रदीपिका--चिल्पुलाचार्य । ध हव जीवन-काल ( १०२०-१०८० सं० ई० ) ए० एनू° जानीक्त ए क्रिटिकल स्टडी आफ नैवधीयचरितन्, पृ० १२९ ` ५. अथप्रायणं स्व॑कर्माणां व्यञ्जक्तम् तानि च सर्वाणि मुनुधुदेहनारभनते 1. , .
| निय
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आयं वित्नोनभिक्ु का परिचय | ५१
'्यच्चाधुनिकवेदान्तिभिरेकमविकृमतं व्यभिचारेण दुपितं तदन्ञानदेव ओत्सगि कमात्रस्य भाष्यकृतोक्तूत्वादिति सर्वं सुस्थम् ।' (पृ० १४७ ध ~ २।१३ सूत्र के सन्दभं मे)
(४) विज्ञानमिक्ु ने योगवातिक के साघनपाद मेँ लिङ्ग-शरीर की विवेचना करमते समय सांख्यसूत्र 'सप्तददोकं लिङ्खमिति' मे आये हए एक शब्द के विषयमे लिखा है--
“सांस्यशास्त्रे प्रोक्तम्" सप्तदशैकं लिङ्गमिति भत्र एकत्वं समष्ट्य- भिभ्राप्रेणोक्तम्, व्यवितिभेदः कमं विरोऽपरादिदुत्तरसूत्रेण व्यत्ितिहपत एकस्यैव लिद्कशरी रस्य व्यगरितमेदवचनात्, अयं च व्यष्टिसिमष्टिभावो न वनवृक्षवत् कि तु पितापुच्रवदेव,
'तच्छरीरसमुतन्तैः कारथस्तैः करणैः सह् ।
क्षेव्ञाः समजायन्त गात्रेभ्यस्तस्य धीमतः ॥ इतिमन्वादिवाकयै हिरण्यग स्यजञ १ रदयांहौरेवािल्पुसा शरीखयोतत्ति-
रिति सिद्धेः, वनवृक्षयोस्तु नैवं काय॑कारणभावोऽस्ति इतिर् ।
(प० २१३ वो० व° सूत्र २।१९ का सन्दभ) इस अवतरण मे लिद्ग-शरीरविषयक व्यष्टिसमष्टिभाव का दृष्टान्त पिता-गु्रवद् है वन-वृक्षवद् नही, इस वात पर पुरा जोर अला भा है। 'वनवृक्ष' वाके ष्टान्त का खण्डन करने के किए शास्त्रीय प्रमाणो का भी भरद्न करना आवद्यक ओर अनिवाथे अनुभव क्या गया है। 4 एसे प्रकरण कौ व्याख्या करते हए जहाँ पर किसौ भी जन्य पूवत टीकाकार ने लिङ्खशरीर के व्यष्टिसमष्टिभाष की चर्चा भी नहीं कौ । मासिर वित्तान- भिक्षु का यह अकाण्डताण्डव क्यों ? ¢
निदचय ही किसी प्रवल विपक्षी कौ इस संवंध की व खण्डन करना ही यहाँ पर उनका बभीष्ट है। स् धी य । एसे आचाय का नहीं हो सकता जिसका नाम इत्यादि ऽना आवइयक होता
निरिचित ङप से पता मनेक दानिक ग्रन्थो का आलोडन-विलोडन करके यहं नि --- ^ ८ यदेहभोग्यफलानां कर्भगा* र + ग त सद निक पी ॥1 भ् श्नुट्याचदशनार् अ स्नायति मणय व्यज्जकत्वरस्पना'
भेकदेहारस्भक्त्वानुपयचेश्च । ` --बेदान्तकोसुदौ पु० ६५ १. द्रष्टव्य-तत्त्ववैशारदी 204 भोज रजवृत्ति १९ पाद २ ।--योगूत्र
071 {06 भाव्य ०६ सूत्र
४२ [ आचायं विज्ञानभिक्षु
चता है कि विदान्तसार' नामक अद्रैतवेदन्तग्रन्थ के ठेखक सदानन्द व्यास! ते इस प्रसंग में इसी पदावली मं यह् दृष्टान्त दिया है--
अत्राप्यखिलसूृक्ष्मररीरमेकवुदधि विषयतयावनवज्जलाशयवद्ा समणष्टिरनेक- लुद्धिविषयतया वृक्षवञ्जल्वद्वा व्यष्टिरपिभवति ! अत्रापि समष्टिव्यष्ट्योस्तदू- पहितस््ात्मतेज सयोवेनवुक्षवत्तदवच्छिन्नाकारावच्चजलारयजकतद्-ग त॒ मप्रति- विम्बाकाशवच्चाभेदः। एवं सृक्ष्मशरीरोत्पत्तिः ।--वे° सा० पृ० ५-६
बहुत अंशो मे सम्भावना हो जाती है कि वैदान्तसारकार सदानन्द व्यास काही यहां पर खण्डन किया गया हो । "वेदान्तसार' विज्ञानभिक्षु के समय तकं काफ़ी लोकप्रिय हो चला था। कदाचित् इसी शली के दोग्रन्थों के शीर्षक विज्ञानभिक्षु ने भी रक्खे भे सांख्यसार ओर योगसार (संग्रह) । साय ही, सांख्य ओरयोग की भांति यद्यपि उन्होने वेदान्तपूत्रौं पर भी भाष्य छ्लिा हें तथापि उनका वेदान्तसार" नाम का कोई ग्रन्थ न छिखना, इस सम्भावना को जौर भी परिपुष्ट करता है फि यह “अन्तःप्ेरणा' कंदी 'अनुकरेणः नाम से फप-ल्प में न कदी जने रुगे, इसीलिए वेदान्तसारः नामं का कोई ग्रन्थ उन्दोने नहीं लिला है । यहं वात स्मरणीय है कि रामानुजाचायं द्वारा छिखा गया वेदान्तसार विज्ञानभिक्षु की अन्तःप्ररणा का आदश इस दिशा में नहीं मना जा सकता क्योकि उस ग्रन्थ में सपूत्र संक्षिप्तं भाष्य दिया गयाहै जव कि विक्ञानभिलषु के दोनों ही ग्रन्थो मे तत्तद् चास्त्रं के सू त्रोपन्यासपुवेक- विषय नहीं दिए गणु हैँ जैसा कि सदानन्दं व्यास ने शैली चलादी थो। इन आधारो पर विज्ञानभिक्षु को सदानन्द व्यासं से परवर्ती मानने की सम्भावना पूणंङूप मे उपस्वित हो जाती है 1
(५) विज्ञानभिक्षु ने अपने वेदान्तभाष्य म एक स्थल पर वेदान्तसू्रो के दौवभाष्यं वेदान्तसूव्र का निदेश इस प्रकार किया है--
अतएच वैष्णवाः रौवाश्चाविवेकिनो विष्ण्वायतिरिक्तं परमेश्वरमविदवांसो ब्रह्ममीमासाशास्वरं विष्ण्वादिपरतया व्याचक्षत इति मन्तव्यम् ।'
(वि० भा० पु० १३९)
ब्रह्मसूत्रो पर वैष्णचभाप्य रामानूज ओर मध्व आदि के निश्चित दही
विज्ञानभिक्ु के पुवं प्रसिद्ध थे । लैवभाष्य भौ उनके सामने चाहे एक ही
१. 2. (. एलफव्प]7*5 [7 ध्0तप्लम (© 5तत112709 तपर,
२. 075 ण्याः प्ल् वप € 15) ८.6.17). प८८्गताष
६0 2. €. एदथण]1, ^. 8. एल फ भात् 14. तोपतफशाा2.
आचायं विज्ञानभिक्षू का परिचय | ४३
हो--मवंश्य वतंमान था, नहीं तो यह् निदेश कंसे होता । यह वात स्पष्ट है कि भारत का शैवं सिद्धान्त बहुत प्राचीन है, किन्तु हौ वमतानुकू वेदान्त- सूत्रभाष्य नीलकण्ठः काही सवंप्रथम है । अतः नीलकण्ठ से कम. से कम सौ साल वाद या ओौर अधिकं वाद विज्ञानभिक्षु का होना निद््ित ह।
इनं अन्तरंग प्रभाणों के आधार पर विज्ञानभिक्षु के समय की पूवंसीमा हम निरिचंतं कर सकते हैँ । वाचस्पति मिश्र (शीं ज्ञ० ई०), अनिरुद्धः (लगभग बीं श० ई०)› नीलकण्ठ, ( १४ीं श० ई०) ओौर सदानन्दव्यास (श्५्वीं शा० ६०) के नाम या सिद्धान्तो का अथवा दोनों का निदेश ओर खण्डनं मण्डन कंरनेवाठे विज्ञानभिक्षु १५०० ई० के वादं ही हए होगे इतना अव निस्संदेह कहा जा सकता हे ।
समय की परसीमा
(१) विन्ञानभिक्षु की समय-सम्बन्िनी परसौमा का निर्धारण करते समय हमारी दृष्टि सर्वप्रथम ^सांख्यसार' नामक उनके ग्रन्य की १६२३ ई₹० में लिखित पाण्डुलिपिः पर जाती है । उसमे समय-नि्देश ^““सं० १६८० भादों सुदिं १०" इस प्रकार से है । अतंः विक्ानभिक्षुं १६२३ ई° के पूर्वं हुए यह् निश्चित रूप से कहां जा सकता है ।
(२) सदानन्दयति,! ` भावोगणेश, नारायण तीर्थ" जौर नागेश-
१. 1716 9४ 51ततादाव 16516 0 पाट {५० गितं पदता॥०ऽ
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संवत् १६८० भादौं सुदि १०1
३. यच्चात्रसांखयभाष्यज्ता विज्ञानभिक्षुणा समाधानत्वेन प्ररुपितम् । द्रष्टव्य--अदे तब्रह्यसिदि--पृ० २७
४, द्रष्टव्य, योग० सु० वृ° सू° प° १, ४, ५९५
५. यत्सूत्रेषुगूढा्थद्योतिकां तनुतेपराम् । वत्ति नारायणोभिक्षुःषुगमां हरिष्ये ॥३॥--यो० स्ि° च०--नारायण- तीथे, पु०१
(--त० या० दी०प्०१
सरम्षः - के -
४४ | आचायं विन्नानभिक्षु
अटट' ने अपने ग्रन्थों मे विज्नानभिकषु का नामोल्लेल किया है । सदानन्द यति ते तो इनके मत का खण्डन क्रिया ह किन्तु जन्य तीन विद्वानों ते इनकी बड़ी भरशस्ति की है। भावागणेश तौ इनके रिष्य ही थे ओर् इपीलिए समसामयिक माने जाने चाहिए । अन्य तीनों कोग इनके पर्याप्त परवर्ती थे । पं० उदयवीर शास्त्री के सदानन्द यति विषयक मत खण्डित हो जाने पर ओर रवूनाथशिरो- मणि के पर्याप्तिं परवर्ती होने के कारण सदानन्दथति का समय ( १७बीं दाताव्दी ई०.के लगभग) माना जा सकता है। नारायणती्थे ओर नागोजी भट्ट १७बीं शताब्दी के बादकेही ह। भावागणेश के समय के सम्बन्व मे किसी अन्य प्रव प्रमाण के अभाव में डा० गोडे कौ सम्भावना मी माननीय है (१५८३-१६२३ के आस-पास) । इतने आवारों पर यह निद्चित ठंगसे कहा जा सकता है कि विज्ञानभिक्षु के सभय कौ पर-सीमा १६०० ई० मानी जा सकती है ।
सभय-निधांरण मे अन्य प्रमाण
(१) डा० गोडे के द्वारा निदिष्ट भावागणेश विषयक सूचना भी इस निर्णेय की पुष्टि करती है डा० दासमगुप्त, डा० राघाश्ष्णन्, डा० विन्तरनित्ज आदि की मान्यता भी इस नि्णंयके अनुकूर है ।
(२) विक्नानभिक्षु केद्वारा रन्यो मे संकेतित सम्राट् ओौर सम्बाद् की दासनव्यवस्था भौ उत्तरी भारत में तात्कालिक मुगृ सम्माट् अकबर के शासनकार की याद दिलाती है जिसमे किरगवों के अध्य जादिकेद्रारा ग्राम-्रवन्ध होता था । तथा प्रवन्थ के अनेक विभागों के अरग-जलक्ग मन्त्री ` होते थे । प्रामाष्यक्षादि भी राज्य्तेवा करनेवके होते थे ओर मंत्री भी। फिर भी उनमें प्राधान्य मन्त्रीकाही होता था।
(३) विज्ञानभिक्षु ने अपने सांख्यभाष्य में राजा के दारा पुननि्मित अथवा नवनिमित नगर (पुर) का संकेत किया दै" 1 यह प्रसिद्ध घटनाभी
{ अक्र के. श।सनकारु में सम्पन्न हुई थौ जव कि अकवर ने फतेहपुर सीकरी" का निर्माण करा कर एक नई नगरी वसाथी थी। चूंकि यह नगर
१. पातञ्जलाग्धौ रचितःसेतुविक्तानभिक्षुणा नहाषडगुमूढतभो येन तंतीणं- वानहम् । -पा० सू० वृ०~-ना० भ० पु० २३०
२. द्रष्टव्य, सा० सा०, पृ० ४७
३. ”“ स्ां० प्र भा०, पु ९१ ओर पु० ९२
४. यथा राक्तः पुरनिर्बाण इत्यथः ।--सां० प्र° भा० ० १४७।
आचायं विज्ञानभिक्षु का परिचय | ४५.
निर्माण एक धार्मिक उपलक्ष्य मेँ (शेखुसरीम चिती के नाम पर) कराया गया था, इसक्एि पूरे भारत में इस वात की जोर-गोर से प्रसिद्धि हुई होगी । प्रयाग का पुननिर्माण भी अकवर के ही द्वारा सम्पन्न हुआ था। अतः विज्ञानभिक्षु का मकवर का समकालिक होना बहुत सम्भव है ।
(४) इस प्रसंग में भाषा-सम्बन्पौ प्रमाण भी सहायक रूप मेंग्रहण किया जा सकता है । इसी अव्याय के स्थान-तिर्णय-विषयक प्रसंग में संकलितः शब्दों, ओर वाक्यों के आघार पर निर्णीत विज्ञानभिक्षु का हिन्दी-माषा- भाषी होना १६बीं शताब्दी के उत्तरभारत में ही उपपन्न हो सक्ता है।
स्तुत प्रमाणं में से कुछ हल्के ओर वु धिक सशत ह| कुछ तथ्य. करी ओर इंगित करते है, कु तथ्य का प्रतिपादन करतेर्ह। इनमें से कुछ को अकाट्य भी कहा जा सकता है। इन सव का समवेत प्रभाव चिज्ञान- भिक्षुके किए प्रस्तुत किए गए वीं ओौर १७बीं शताब्दी वाठे मतो को सवया निस्तेज कर देता है मौर इह निर्धारित करने के ए विवश करता है कि आचाय विज्ञानभिक्षु का जीवन-काल १६
चतुर्थांश अर्थात् रगमग १५२५ ई० से १६०० ई० तक. स्वीकार किया जाय
[गी
वीं चताब्दी ई० का अन्तिम तीन:
२ |आचाथं विज्ञानभिक्ष् की स्वना
सूचित रचनां भारतीय मनीषियों कौ अलौकिक प्रतिभा, अध्यवसाय की प्रबल मनो- वृत्ति एवं सोरहवीं शताब्दी की घर्मप्रवण किन्तु संयत सक्रियता आचाय विज्ञानभिक्षु के व्यक्तित्व में एकाकार होकर निलर उठी हैँ । उनके विस्तृत श्रवण ओर गम्भीर मनन ने भी उनकी प्रज्ञा क्रो अतीव प्रखर वना दियाधा) फलस्वरूप ततत्वदरंन के प्रति उनकी अमन्द जागङ्कता ने उनकी लेखनी को अजस्र एवं सजीव प्रवाह पदान किया है । आत्मतेज से ज्योतित उनको विपुल ्रन्थराशि भारतीय वाङमय के मध्यकालीन युग के निस्सीम गौरव की पुण्य प्रतीक है । अफ़क्ट महोदय ने उनके ग्रन्थों की सारणी इसं प्रकार सूचित की है--
१-आदेशरत्नमाला 1.१७९७ (2150 ०11९५ उपदेशरत्नमाला)
२-ईइवरगीताभाष्य 1.२०५०
३--कठवत्ल्युपनिषदाखोक 1,१८१२
४--कंवल्योपनिषदारोक [१८१०
५--पातजञ्जकभाष्यवातिक या योगचातिक (एपा०]18€प)
द६--प्ररनोपनिपदालोक 1.२०५१
७-त्रह्माददं 0 २३२४.
<--भगवद्गीतारीका कव. २. ४. १०८
1. (€ ग< [75६ ° 18 00०15 25 99212016 17 (11८ (21910्प€§
(21210ह0ाप 0 ^ परिता 70 € 5९60९ 1€8व्5.
ध (न 7 प०४८९७ ०६ ऽत्रपञात६व 7085 ण २. 1. 1419,
0६ ऽप्यपत्ऽ {णः (ब(बरठहुपऽ ८ण्वाल्पा 59715, (गप. ए, ए, णु ^ प्लत 0 गप 1864.
. वपि. 2. अ1वात्ऽ शि (भावर०षटपल ०६ ऽत्ति 58 771 01४२९ ए %165 70 द्गतलया पटला एाठपर ८६७, 41120202 1871-88.
४६
आचायं विन्चानभिक्षु क्ती रचनाए् | ४७
९--माण्डूक्योपनिषदालोक [,१८०८ १०--मुण्डकोपनिषदालोक .१८१३ | ११--मेतरेय्युपनिषदालोक [.१८११ | | १२--योगसारसंग्रह् र्ण २३२ 2 घ] 7. १२, 860 ६७ €!€. १ २३--विन्ञानामृत या त्रह्यसूत्रदऋजुव्याल्या । ?. ५७१ | |~ १४--वेदान्तालोक (1116 दलाल 79716 07 11}5 एएणंा्त. ( 0155€112110115, ) १५--सेतारवतरोपनिषदालोक [१८०९ १६--सांख्यकारिकाभाष्य 1.१२७८ ६ ५३६ र १७--साख्यप्रवचनभाष्य (एण11511€प्) 8 १८--पांख्यपार चिवेक ("015160) । # इन ग्रन्थों के अतिरिक्त विक्ञानभिश्षु-विरचित एक ओौर ग्रन्थ की । स् चना गवनमेण्टसंस्कृतकालेज वनारस के भूतपूवं पुस्तकाक्याध्यक्ष पं० विन्ध्येरवरीप्रसाद सर्मा ने दी ह । उन्होने "योगसारसंग्रह' की भूमिका पु० ७ पर पाद-टिप्पणी में यह् टिखा ह कि-- '्रदास्तपादभाष्यव्याल्यानं वैँशेपिक वातिकम् भिक्षुवातिकनामषेयं वाराणस्यामेकस्य संन्यासिनो निकटेऽस्ति । तत्र॒ इरोकानां षट् सहस्राणि 1" ॐ नमः सच्चिदानन्दमूर्तये परमात्मने । भववन्धच्छिदे तस्मे ब्रह्मविष्णुिचात्मने । “जिज्ञासूनां हितार्थं परमकरूणयायत्प्रणीतं सुवोषम् भूयोभिरदूनिवन्धैः परमिहकणभुक्तन्त्रमाच्छादितम् तत् । | सम्यग्बोवायनालं भवतिमतिमतां क्टेशनिवृ्तिकामो भूयोविज्ञानर्भिक्षुः. .. - - कूतुकाद्वातिकेनाधूना तत् ॥'"° १--कणभक्षमुनेस्तन्त्े यतिविन्ञानभिक्षुणा । प्ररास्तभाष्यव्याख्यानव्याजेनाकारि वातिकम् ।}* इस सूचना के अनुसार विक्ञानभिकषुप्रणीत नैशेषिकशास्त्र के विषय मे “भिश्ुवात्तिक' नाम का एक ग्रन्यहै ।
छाएज्द्तक गः (दव्चशच्ुप् ० पह प फाल तणशक त + >0 1 क (1.
१. प्रारम्भवाक्यमेतद् । २. (115 25 प 560००त 91012 धिा7ए् श्ल (116 परऽ 0
शता लावऽ वप ^व्रह्यविष्णुशिवात्मने" प्र प्राप एग]. ३. समाणग्तिवाक्यमेतद्
४८ | आचायं विक्ञानभिक्षु
्रामाणिक र्चनाषं
विज्ञानभिक्ु यपि एक केखनी के धनौ लेखक थे किन्तु इसका यह् तात्पयं नहीं करि उनके नामसे अंकित अथचा उनके नाम के साथ जोड़ी गई प्रत्येक पुस्तक को हम आंख मृद कर उन्हीं की कृति मान के । हमे इन पुस्तकों के अस्तित्व, कृतित्व तथा कतुंत्व की प्रामाणिकता का भी चिवेचन करना चाहिए । तभी हम किती तथ्य के विषय में निर्णय पर पहुंच सकते है । विज्ञानभिक्षु के सुप्रसिद्ध भौर निर्णीत ग्रन्थों के अन्दर जिन ग्रन्थों का उत्टेख-प्र्यल्लेख दै वे ग्रन्थ तो निस्सन्देह उन्हीं के है। क्योकि भन्तरंग साक्ष्य उच्च कोटि की प्रामाणिकता का निश्चायक होता है । सांख्य-प्रवचन- भाष्य, सांख्यसार° योगवातिंक, योगसारसंग्रह, बरह्यमीमां साभाष्य^, उपदेश- रत्नमाला, ब्रह्मादचे° ओर श्रुतिभाष्यादि” उनके इसी कोटि के निर्णीत ओर प्रामाणिक ग्रन्थ है । अन्तिम ग्रन्थ, श्रुतिभाष्यके साथ क्गा हुजा आदिष्“ पद ईरवरगीताभाष्य का वोधक हो सकता दै क्योक्रि वेदान्त- विषयक भाष्य उन्होने भीं अन्य वेद।न्तियों कौ भाति सूत्र, उपनिषद् ओर गीता पर छिखे है । जहाँ पर श्रुतिभाष्थादिष्^ का उल्ठेख है वहीं पर उसी वारय मेँ उसके पहले ही त्रह्ममोमां सा-भाष्य का अलग से नामोल्लेख है । इसलिए बहुत सम्भव है कि आदि पद से ईरवरगीताभाष्य का ही संकेत हौ । ईरवर-
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१. द्रष्टव्य, यो० वा० प° १२९ २१९ इत्यादि, यो० सा सं० पू० ३५, सासा० पु० १, १०, ९४, १५, १६ २. »„+ यो० साः संर पु ६८, ३५ इत्यादि ३. » सां० प्र भा०पु० ८, १६ ४८, ५२ इत्यादि, यो° सा० सं० पुर १, २, ३५, ६ इत्यादि सां० सार पु०४ ४, + यह ग्रन्थ उनकी रचनाओं में अन्तिम है अतः यह पूर्वं ग्रन्थों का अनेकशः उल्ठेख करता है । ५० + सां० प्र भा० पु ५,२३,३४,४४ यो० वा पृ० ८५, २२२.सा० साण्पु०द३द् +» ब्रह्यमीमांसाभाष्यम्, पृ० ६२ # यो० सार सं० पु° ६८ ५ यो० ना० पूर २२२ , (ततश्चेकल्यैव परमात्मनो मुख्यात्मता सिध्यतीति, एतच्च सर्वं ब्रह्म मौमांसाभाष्ये भृतिभाष्वादिषु च प्रपल्वितमस्माभिः --यो° वा पु० २९२
आचार्यं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ४९
मीताभाष्य की मिलनेवाली अनेक पाण्डुलिपियों में प्राप्य समाप्तिवाक्य' इस सम्भावना को ओर भी अधिक सुदृढ करदेता टै कि विज्ञान भिक्षु ने वेदान्त के गीताभाष्य के किए ईहवरगीताभाष्य ही लिखा था। साथी श्रीमद्भगवद्- गीता-भाष्य का न लिखनाभी इसी समाप्तिवाक्य से सिद्ध हो जातादै) पुराणो के प्रति प्रदरिंत विज्ञानभिक्ु कौ असीमनिष्ठार् भी इसी तथ्य की समथंक है ।
विज्ञानभिक्ु ने श््रु्तिभाष्यादिपु" क् कर जिन उपनिषद्भाष्यों की ओर संकेत किया हे, प्राप्य पाण्डुलिपियों के आधार पर उनकेये नाम हः कठवह्त्युपनिष दालोकः, कं वल्योपनिष दालोकः, परर्तोपनिषदारोकः, माण्डूक्योप- निषदालोकः, मुण्डकोपनिषदालोकः, मैत्य॒युपनिषद।लोक., ेताइवतरोपनिष- दालोकः, तैत्ति रीयोपनिषदालोकः* । इन्हीं आठ उपनिषद भाष्यों का सामूहिक नाम वेदान्ताोक हँ । एक प्रकार से वेदान्ताखोक नामक ग्रन्थ मालाकेही ये आोपृष्पहं। इन माष्यों कौ पुष्पिकाओं से यदी सिद्ध होता है कि वेदान्तारोक नाम का विज्ञानभिक्षु--चिनिमित कोई अरग ग्रन्थ नदीं है अपितु प्रत्येक उपनिषद्भाष्य 'वेदान्ताखोक' नामक पस्तक-सिरीज् का एक अंग है । आफफरक्ट महोदय ने आ्न्तिवज्ञ वेदान्तालोक नाम का एक अलग ग्रन्थ गिना दियाहै। इस प्रसंग में एक वत्त स्मरणीयदहै कि ईशोपनिषद्, केनोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् ओौर वृहदारण्यकोपनिषद् पर इनके भाष्य नहीं द जव कि प्रस्थानत्रय के अन्य भाष्यकारो ने कवल्य जैसी छोटी उपनिषद् पर भाष्य नहीं किला ह किन्तु प्रवान उपनिषदों
१. “सर्ववेदास्तसाराथंसंग्राहिण्या अतिस्फुटम् आष्यमीडवरगीतायाऽचक्रे विज्ञानभि्षुकः । एतेन भगवद्गीताव्यास्यपेक्षाऽपि यास्यति कब्दादिभेदमात्रेणगीतयोरथंसाम्यतः ।\" | इति कूमपुराणे ईश्वरगीतासूष निषत्मुविज्ञानभिक्षु-कृ तभष्ये दशमो- ऽध्यायः ॥ ¡ 5
२. अपने सास्य, वेदान्त ओर योग तीनों प्रकार = ग्रन्थों मं उन्होने पुराणों का पुष्कल मात्रा मे उद्धरण दिया है ओर उन्हे श्रुतिकोटिक प्रामाणिकता प्रदान कौ है । ।
३. यह पुस्तक आफेकंट ने नहीं उल्लिखित को । इस पुस्तक कौ एक भ्रति एशियाटिक सोसायटी बंगाल मे नागर अक्षरों में उपलन्ध है 1 --
४. १८दति विज्ञानभिकषुकृते वेदान्तालोकते प्रनोपनिषदाल्मकः समाप्तः" इतिवत् सवषूपनिषद्भाष्येषु 1 फा० ४
५० | आचायं विज्ञाननिकषु
सपं शादि सी है अपने अपने माप्य किल .ह। - बहत संभव है अपने सिद्धान्तो कौ भनुकूरत। का दृष्टिकोण ही इसका मूल कारण हो।
'तांख्यक्रारिकामाष्य' नामक ग्रन्थ विज्ञानभिक्षु का खा हुभा नहीं है। उनके अन्य ग्रन्थों मेँ इसकी कोई सूचना नेहीं है।इसनाम कीजो पाण्डल्पि पं० विन्घयेश्वरी प्रसाद जी को प्राप्त हुई थी उसके अन्त मं पाण्ड्लिपिलेखक के 'विज्ञानभिक्षुविचरित सांस्यभाष्यम्” नामक वाक्यांश ने अधिकांश विद्वानों को इस भ्रान्ति मे डाल दिया था कि यह ग्रन्थ विज्ञानभिभ्ु का क्िखा हुआ है। इस भ्रान्ति का निराकरण भी उसी स्थल प्र रै। उस ग्रन्थ के अन्तिम इलोक में यह पवित आई हुई है “भाष्यञ्चात्र गौडपादकृतम् । इस इलोक को पढ लेने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि, सांख्यकारिकाभाष्य विज्ञानभिक्षु की रचना है ।
-भिक्ुवात्तिक'? नामक ग्रन्थ की संभावित प्रामाणिकता काभी विचार कर ठेना चाहिए । आपाततः यही धारणा होती है कि सांष्य, योग ओौर वेदान्त पर समान रूप से लिखनेवाऊे आस्तिक दाशेनिक विज्ञानभिकषु ने वैरोषिकं दशन पर भी अवद्य केखनी उठायी होगी । ग्रन्थ की पाण्डुलिपि मे उपस्थित प्रारम्भ" ओर समाप्तिवाक्य, भी यह प्रामाणित करते प्रतीत होते है कि यह् रचना विज्ञानभिक्षु कीटहीरहै। किन्तु फिर भी ग्रन्थ के सिद्धान्त इस सम्भावना को स्वेथा निर्मूल सिद्ध करते ह । यद्यपि एक अनिरिचत नाम ओौर पता वाके संन्याी के पास रहनेवारी पाण्ड्लिपि का पता लगा सकला असम्भव होने के कारण उस प्रति कीतो' जांच नहीं कीजा सकी तथापि प° वि्च्येशवरी प्रसाद जी द्वारा उद्धत अंशम ही एसे सिदधान्त सामने उपस्थित हो जाते है जो विज्ञानभिक्षुसम्मत कदापि नहीं सिदहो सकते--१-उस ग्रन्य का प्रथम वाक्य यह है-ॐ नमः सच्चिदानन्दमूरत॑ये परमात्मने ।' अपने सांख्य, योग ओौर वेदान्त तीनों प्रकार के सभी ग्रन्थों मे विज्ञानभिक्षु ने एक स्वरसे अत्मा तथा परमात्मा की आनन्दल्पता का
१. द्रष्टव्य-यो° सा० स० को भूमिका में पादटिप्पणी प०६ २. » वही न ६ ३. „ वही पू०७ ४, » वही ६.८ ५. ; वही पु०८
आचायं विक्ञानभिक्षु कौ रचनाएं [५१
जोरदार खण्डन किया है। फिर भला चिज्ञानभिक्षु इस एकाकी ग्रन्य में परमात्मा को सच्चिदानन्द-रूप में कंसे स्वीकार करेगे, उस रूप की वन्दना तोदूरकी वात है। २-इसी शोक की दूसरी पंकिति "भवबन्धच्छिदे तस्मैब्रह्म- विष्णुशिवात्मने' भी विचारणीय है । विक्ञानभिक्ष् ने परमतत्माया ब्रह्म पद का वाच्याथं या प्रधान अभिवेया्ं ब्रह्मा, विष्णु भौर शिव" मानने का प्रत्याष्यान किय। है साथ ही ब्रह्मा, विष्णु ओर शिव को जीव ही माना है, परम।तमा नहः । अतः यह पवित भी विज्ञानभिक्षु केद्वारा नहीं क्िषीजा सकती क्योकि विज्ञानभिक्षु के विशाल ग्रन्थ समुदाय में उनकी एक भी बात स्ववचोग्याघात दोष से दूषित नदीं है । उनके सिद्वा त समस्त ग्रन्थों मे एक- रूपै ओर अट्लह।
बहुत सम्भव है कि किसी अन्ध लेखक ने उनकी तात्कालिक सिद्धि से प्रभावित होकर इस प्रन्थ के आदि ओौर अंत मे उनका नमि डाल दिया हो ताकि ग्रन्य का पूणं प्रचलन हो सके । या फिर किसौ अन्य यति ने अपना नाम विज्ञानभिक्षु रक्खा हो जैसा कि एक नाम के अनेक संन्य सी हुभा करते हैँ । मेरा यह निरिचत मतै कि हमारे अध्ययन के आलम्बनरूप आचाय विक्ञानभिक्षु का यह वैशेषिकग्रन्थ नहं है । न्याय ओर वैशेषिक की भूमिक को वे सांख्य योग ओर वेदान्त के पारमा्धिकस्तर से वहत निचली समनज्ञते है । स्याय वैशेषिक का यह अपमान भी इसी बात का सूचक टै कि 'याय- वैरोषिक पर उनकी ठेखनी नहीं उठी । द्विविध वगींकरण
विज्ञानभिक्षु की माणिक स्वनाओं का चर्गकिरण हम दो आधारो पर
१. “एतेन ब्रह्मणः आनन्दरूपत्वमपास्तम्'-- वि० भा० पु० ६३ ओरद्रष्टव्य १,६४,४८४,५७६ इत्यादि ्वानन्दं ननिरानन्दमित्यादिशरुतिभिःस्फुटम् । आत्मन्यानन्दरूपत्वनिषेधाद्यु- वितसंय तात् । = 1 निषेघवाक्यं बल
वद् विधिवाक्याद् इतिस्थितिः 1 (साऽसा० पु २९ भौर भी द्रष्टव्य पु०३०,३५ इत्यादि )
२. अतोविष्ण्वादिदेवानां न साक्नादीश्वरावतारत्वं किन्तु अंश्ञावतारत्वम् । (विश्भा०पु १३३ ओर द्रष्टव्य पु १२५, १३७)
, त्यायवेक्ञेषिकोकतज्ञानस्यपरमार्थभूमौ बाधितत्वाच्च । सां भण भाण पुण ४
1
५२ [ भाचायं विज्ञानभिकषु
कर सकते हैँ । एक प्रकाशन से आधार पर ओौर दूसरे विषयों के आधार पर्) प्रकाशन कौ दृष्टि से वर्गीकरण का स्वरूप यह होगा -- (१) प्रकारित ग्रन्थ-- १--सांस्यसारः' २--सांख्यप्रवचनभाष्यम् ३-योगवातिं कम्? ४--योगसारसंग्रहुः" ५--विन्ञानामृतभाष्यम्^ (२) अग्रकारित ग्रन्थ--
[क] १--ईरवरगीताभाष्यम् २--उपदेशरत्नमाला २--कठवल्ल्युपनिषदालोकः ४--कंवल्योपनिषदालोकः ५--मेतरेय्युपनिषदालोकः ६-म।ण्ड्क्योपनिषदालोकः ७--मुण्डकोपनिषदालोकः ८--प्रनोपनिषदालोकः ९--तंत्तिरीयोपनिषदालोकः १०--उवेतारवतरोपनिषदालोकः
१ विहिलियायिका इण्डिका : एदियारिक सोसायटी आफ़ बंगाल के अधीन कलकत्ता से प्रकाशित १८६२ ई०
२. चौखम्बा संसछृतसीरिज् बनारस से प्रकाशित १९२८ ई० र र [योग कौ अन्य व्याद्याओं से
४. धियासःफिकल पन्लिश्ञिग हाउस, भडयार मद्रास से तथा हिन्दी टीका सहित मोती बनारसी ७५ न° ल° वाराणसौ से भी- मैने निदेश
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएँ | ५३
[ख | १--त्रहयादज्ञः' इस वर्गीकरण के अनन्तर, विषय के आधार पर इन ग्रन्थों का विभा- जन कर लेना चाहिए क्योकि इस विभाजन के वारा इन ग्रन्थों का परि- चयःत्मक विवरण ओौर उनके सिद्धान्तो के संकलन मे भी वडी सुविधा होगी । इस आधार पर एसा वर्गीकरण होगा-- १--सांस्यशास्त्र के ग्रन्थ-- १--सांख्यप्रवचनभाष्यम् २-माख्यसारः र२-- योगशास्त्र के ग्रन्थ-- १--योगसारसंग्रहः २-योगवात्तिकम् -द- वेदान्तशास्त्र के ग्रन्थ-- श त्रह्ममौमांसाभाष्यम् २--ईरवरगीताभाष्यम्ः २-उपदेशरत्नमाला ४--त्रह्यादशैः" ५--कठवल्ल्युपनिष दालोकः" ६-कं वल्योपनिषदालोकः
[~
- महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज का कथन है किं उन्होने स्वयं "ब्रहमादशे” कौ एक पाण्डुलिपि आज से लगभग ५० वषं पुवं स्व० पण्डित दामोदरलाल गोस्वामी वाराणसी के पारिवारिक "पाण्डुक्िपिसंग्रह' में देखी
1
थी । किन्तु प्रयत्नजील होने पर भी मे इस प्रति का दरसन नहीं कर सका । २. सर्ववेदान्तसारार्थसंग्राहिण्या अतिस्फुटम् ई गी० भा० के अन्तिम इलोक को इस पक्ति से यह् स्पष्ट है कि यह् ग्रन्थ वेदान्त के साराथं का ही संग्रह करता हे । ३. यह ग्रन्थ भी वेदान्त का ही एक प्रकरण ग्रन्थ है । मे प्राप्त पाड्ल्पि के आधार पर रह्म ही इस ग्रन्थ का विषय ! वि० भा० में संकेत भी यही सिद करता है । ४.यो० सा० सं में पृ ११२ पर विज्ञानभिक्षु ने स्वयम् इस ग्रन्थ
¬)
को वेदान्त विषयक माना है ।
५ उपनिषद्भाष्य तो वेदान्त' विषयक है हौ । उपनिषद् ही तो वेदान्त ह ! -इन सब का सामूहिक नाम भी वेदान्तालोक ही है।
५४ | आचायं विज्ञानभिक्षु
७--मेतरेय्युपनिष दालोकः ८--माण्ड्क्योपनिष दालोकः ९--मुण्डकोपनिषदारोकः १० प्ररनोपनिषदालोकः ११--तेत्ति रीयोपनिषदालोकः १२--उवेताइवतरोपनिषदालोकः
रचनाया का क्रम
विज्ञानभिक्षु की सभी प्रामाणिक रचनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करने से यह पता चरता है कि उनकी अन्तिम रचना योगसारसंग्रह टै, क्योकि इस रचना वा उल्टेख किसी भी उनकी दूसरी रचना मे नहीं हे । प्रत्युत' उसमें सांख्यसार क, सांख्यप्रवचनभाष्य स, ब्रह्ममोमांसाभाष्यषग, ब्रह्मादर्च घ आदि ग्रन्थो का अनेकशः उल्लेख है । उसके पहले की रचना सांरुगेस।र है क्योकि इसमे सांख्य प्रवचनभाष्य क, ब्रह्ममीमांसाभाष्य ओर योगवार्तिक ग का बहुशः नामनिर्देश किया गया है । उससे पूवं की रचना सांख्यप्रवचनभाष्य' होगी क्योकि उसमे ध्योगवातिंक्क ओौर ब्रह्ममीमांसाभाष्यभ्य के स्पष्ट संकेत ओर नामग्रहण हं । इसौ न्याय के अनुस।र योगवातिंकः कौ रचना ब्रह्ममीमांसा- भाष्य के नामोस्लेख के कारण उसके वाद ही हुई होगी । ब्रह्ममीमां साभाष्य के साथ ही साथ श्नुतिभाष्यादि अर्थात् सभी उपनिषद्भाष्य ओर ईङरगीता- भाष्य का भी उत्कल योगवातिंक में हभ है 1 इस प्रसंग तक पहुंच कर अस्पष्टता आ जाती है कि वेदान्त के इन तीन प्रस्थानोंमें (सूत्र, गीता भौर उपनिषद् मे) से किंस प्रस्थान पर विज्ञानभिक्षु की केखनी पहले ओौर किस पर बाद मे चली होगी ? ब्रह्ममीमांस,भाष्य' एक विशाल ग्रन्थ होनेके कारण उसमे नामनिदेश को सम्भावना अधिक हो सकती थी किन्तुएसान होने के कारण बुद्धि का भाप्रह बहुधा यही होता कि हम इन तीनों प्रकार कौ
१ द्रष्टव्य, यो° सा० सं° में क--पृ० ६८, ३५ इत्यादि, ख- पु° ३५ इत्यादि, ग--पू ० १८, घ--पृ० ६८
२. द्र सारसा०र्म क प° १, १५, १४, १० इत्यादि, ख--पृ० ३२ इत्यादि, ग--पू ०४ इत्यादि
२.द्र०, सा०प्र० भा०म क~ पु० ८, १०, १६, ४८, ५२ इत्यादि, ल-- पू० ५, २२, ३४ ४४, ४५, ७४, ७६ इ््यााद
४. द्०» यो° वा० पु° ८५, २२२ इत्यादि
५, 2०, यो° वा० पु० २२२
|
अक ~
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ५५
रचनायों मेँ सूत्रभाष्य को पहले को ओौर उपनिषद् भाष्य तथा ईदवरगीत्ा- भाष्य कोवाद को रचनाएं मानें । ब्रह्यादशं प्रन्य की कोई पाण्डुक्िपि प्राप्त न कर सकने के कारण इस ग्रन्थ की रचनाका काल यदि वेदान्त-विषयक रचनाकालकेही बीच कहीं मनलेतो सत्यसे बहुत द्रुरन होगे । अव चूंकि 'उपदेशरत्नमाका' ब्रह्मसूत्रभाष्य' मेँ ही उल्लिखित दै अतः यह उनकी वेदान्त-प्रन्यों मेँ प्रयम रचना होगी ।
अन्तरंग साक्ष्यं के आधार पर निर्णीत इन ग्रन्थों के इस काल-कममें गरन्थ-रचना की पृष्ठभूमि का एतिहासिक आधार भी स्पष्ट ओर सगंत प्रतीत होता दै। विज्ञानभिक्षुने वृद्धावस्था के काफी पहले ही संन्यास के प्रति प्रद्शिंत उनको प्रौढ अभिरुचि'्से ही प्रकट है । इसक्िए दी्ंकालोन संन्यास मे इतने अधिक ग्रन्थ लिने का सुअवसर भो उन्हं मिरु सका । उनके सारे ग्रन्थ संन्यासी जीवनमेंही लिखि गए इस वातको ग्रन्थकार क नाम यतिवरविज्ञानभिक्ष, विज्ञानयति या विज्ञानाचायं ही प्रमाणित कर देता क्योकि ये नाम संन्यसकार के ही हो सक्ते हँ । प्रत्येक प्रन्थके मगला- चरणमें की गईग्रु को स्तुति जौर गुरु-दतत ज्ञान को चर्चाभौ इसो तथ्य को प्रमाणित करती है! प्रन्यों का प्रतिपाद्य विषय भी उनकी संन्यास-- कालनिर्मिंति का ही निरचायक है । 'विज्ञानामृतभाष्य'--जो किं विज्ञानभिक्षु की प्रारम्भिक रचनाभों मेँ से एक है--की रचना के पूवं ही उनके गुरुवयं क्¡ देहावसान हो चुका था। मंगलचरग को पंक्तिमे गुरुके दारा प्राप्त पद"? को प्राप्ति ही उनके प्रत्य के अध्ययन का चरमलक्ष्यहै। कहने कौ आवरथकता नहीं कि वह पद कैवल्य या मोक्षपद हौ हो सकता है जीवन्म्क्ति नहीं वयोकि विज्ञानभिक्षु के दशंन में चरमलक्ष्य जीवन्मुवित नहीं विदेहमुक्ति ही है ओौर प्रारन्धकमे का क्षय जीवन्मुक्ति में भी ज्ञान से नहीं हो सकता बल्कं असम्प्रज्ञात समाधि से ही होता है। "चिजित्यज्ञानकमंम्याम्” मे प्रयुक्त ल्यप् प्रत्यय भी इसी तथ्य का समर्थन करता है ।
बहुत सम्भव टै कि संन्यास लेने के पश्चात् अपने गरु के कंवल्यलाभ के अनन्तर उन्होने अपने शिष्यो को ब्रह्मवि्याविषयक उपदेश दिये हों ओर
१. द्रष्टव्य, त्र° सी० भा० पु० ६२ २ | ४ १९६१ श भाष्य। ३, ४. विजित्यज्ञान-क्मभ्यां यान्तुभीमद्गुरोःपदम् 1" वि० भा० पु १
५६ | आचाय विज्ञानभिक्षू
उन्हीं को जिज्ञासु विदानो के लाभार्थं "उपदेश रत्नमाला" में ध् करदिया हो ।' पर इस संग्रह को वे एक साधारण कोटि हा -पकररण पल्य ही मानते व । इसौकिष शुरदक्षिणा' के रूप मे उन्होने ब्रह्मीमांसाभाष्य को ही तुत किया है इसे नहीं । सोलहवीं शताब्दी के वेदान्तप्रधान--दाशंनिक वाताचरण में उनका सवंप्रथम वेदान्त-सूत्रो पर भाष्प लिखने के लिए लेखनी उठाना स्वाभाविक ही था । "उपदेशरत्नमाला' गत सिद्धान्तो के सांख्य संवलित एवं योगयुत वेदान्तीस्वरूप को देखकर सहसा उद्विग्न अन्य॒वेदान्तवगं कौ आलोचनाएं निङचय हौ बड़ी कटु ओौर प्रतिक्रियाएं अत्यन्त तीत्र रही होगरी । अतः अपने सिद्धान्तो के समथंन मे सूत्र, उपनिषद् ओर ईरवरग्रीता पर भाष्य लिखि कर (अपनी दुष्टि से) तथाकथित आधुनिकवेदान्ततरुवों के श्रान्त मत का प्रत्याख्यान करना उनके किए परमावश्यक् था । इसके अनन्तर सांख्य ओर योगशास्त्र के मौक्लिक ग्रन्थों की व्याख्या करनी भी इसक्िएि अत्यन्त आवदथक प्रतीत हई होगी कि कहीं विद्रज्जन उनके सास्य ओर योगज्ञान को केवल वेदान्तविकृत न कहने लगे ओर इस प्रकार से ततत्वदशंन के क्षेत मे घोर स दवान्तिक अव्यवस्था न आ जाय । अपने समी व्याख्या ग्रन्थों को रचना के पचात् अपनी वाणी मं अपने सारे सिद्धान्तं भौर समूची ज्ञानराशि को दो प्रकरणप्रन्थों मे पुञ्जीभूत करने की उनकी अभिलाषा होनी स 'था स्वाभाविक थी । दोनों ग्न्य सारः ग्रन्थ हुए । उनमें से पहका 'सांख्यसार' उनफे श्ञान' की मूल-मत-माला ओौर दुसरा 'योगसार- सग्रह' उनके कर्म" को पावन-विधि है ।* ञान" ओर "करम" के मागं से प्राप्त होनेवाले मोक्ष जैसे परशस्त लक्षय की सिद्धि के किए दोनों एक दुसरे के धुरक € । उनकी दृष्टि में सास्य की सक्रिय साधना ही योग है। कदाचित् इसीलिए इन दोनों रचनाओं के कारुतकरमे उनका उदेश्य, भी 'ईशः' 'हुरिः- ्रीयताम्^ से आगे बढ़ गया है ओौर नातोऽधिको मुमृक्षूणामपेक्ष्यो मोक्षदशने' के रूपमे प्रकट होने रगा था ।
१. वेदान्ततत््वं संक्लिप्तमिदमाकरण्यतां बुधः । उपदेश्ञरतनमाला पण्ड् - लिपि पृ०१ र £ २. इति विजञानभिशषु - विरचितमुषरेशरतनमालास्यवदान्तभकरणं समाप्तम् । ० ₹० भा० की पुष्पिका पाण्डुलिपि । “ ब्रह्मपुत्र ऋन् व्याख्याक्रियते गुरुदक्षिणा । वि० भा० पु० १ विजित्यज्ञानकर्भभ्या यान्तुभ्रौमद्गुरोःपदम् । वि० भाः पु० १ ˆ दष्टव्य, पु के धवं के इलोक वि० भा०, योऽ वा० सां०.भ्र० मा०। ` ष्टव्यः पृष्पिका के पूवं का इलोक यो सा० सं.
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गाचा्थं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ५७
इन अन्तरग ओौर बहिरग प्रमागों की विवेचना पर आधित निर्णयके अनुसार उनको रचनां का क्रम यह् सिद्ध होता है -- १-उपदेशरत्नमाला २-त्रह्यसूत्रभाष्यम् ३-१०--श्रुतिभाष्यादिः (वेदान्तालोकाष्य आटो ग्रन्थ) ११-ईरवरगोताभाष्यम् १२--त्रह्मादशः १३--यो गवातिकम् १४--सांख्यप्रवचनभाष्यम् १५--सांस्यसारः १६-योगसारसंग्रटः
॥| ©+ रचनाभो का परिचयात्मक तितरण
वेदान्तप्रन्थ
१ उपदेशरत्नमाला--पिले अध्याय से यह स्पष्टहै कि संन्यास-ग्रहण करने के परचात् श्रवण ओौर मनन की परम्परा में पूर्णतः निष्णात होकर आचायं विज्ञानभिक्षु ने अपने शिष्य-समुदाय के लिए 'उपदेशरत्नमाका' नाम का अपना प्रथम प्रकरण प्रस्तुत किया था । “उपदेशरतनमाला' उनके वेदान्त सिद्धान्तो का प्रकाशक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ कुल दस खण्डो मे विभक्त है। प्रत्येक खण्ड का प्रतिपाद्य विषय इस प्रकार दै--१-त्रह्यात्मतोपदेशः र-व्यावहारिकपारमाधिकात्मद्वयोपदेशः ३-द्रयोःस्वरूपोपदेशः ४-अन्योऽन्य- विवेकोपदेशः ५-त्रह्याद्रैतोपदेशः ६-त्रह्मचिन्मात्रसत्यतोपदेशः ७-सृष्ट्यादि- ्रक्रिपोपदेशः ८-त्रह्यविद्यास्वरूपोपदेदाः ९-यिचांगोपदेशः १०-विद्याफलो- पदेशः ।
उपदेशरत्नमाला मे प्रमुख विषय बरह्म को चिन्मात्रेता का प्रतिपादन हे ।' फलतः बरह्म कौ आनन्दरूपता का खण्डन भी वलपुवेक किया गया है । ब्रह्य के सम्बन्ध नें प्रस्तुत इस सिद्धान्त ने तत्कालीन अद्रेतवादियों के वीच मे एक प्रवल प्रक्रिया को प्रेरित क्रिया होगा ओौर इस ब्रह्मपरक प्रकरण ~ ग्रन्य की कटु आलोचनामें रंकरमतानुयायिओं ने कोई कसर न रक्ली होगी । अद्वेतवेदान्ती ही नहीं अपितु कोई भी अन्य वेदान्ती-- चाहे वहं विरशिष्टाद्ैत अथवा देत सिद्धान्त का पोषक हो या द्रैतादरैत अथवा शुदधाद्रैत का समर्थक हो-त्रह्मततत्व मे आनन्दरूपता अवश्य मानता आया है । विज्ञान भिषषु ने पदे पहल वेदान्त का एसा स्वरूप विद्वज्जगत् के सामने इस प्रकरण-्रन्थके द्वारा प्रस्तुत किया जिसमे सांख्यसिद्धान्त वेदान्तसिद्धान्तों
का स्थान ग्रहण करता हआ दिखाई पड़ा । इसको प्रतिक्रिया दशन जगत् मे सवथा स्वाभाविक थी ।
१* न्रल्याट्मतत्वविदयेयं विज्ञानेनोपदिश्यते ॥ पा० कि०.उ० र० मा०
२. इति विज्ञानभिक्षुविरचितमुपदेशरतनमालाख्यं वेदान्तप्रकरणम् समाप्तम् । पुष्पिका पा० छि० उ० रण मा०
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आचायं विज्ञानमिक्षु फौ रचनाएं | ५९
एसी परिस्थिति में वेदान्त-दरन का पूरं वास्तविक रूप प्रकारित करने के लिए श्राचायं विज्ञानभिक्षु को §सका विस्तृत विवेचन करना भ्रौर तदर्थं ब्रह्मसूत्रो, उपनिषदों श्रौर ईरवरगीता पर भाष्य लिखना श्रावद्यक प्रतीत ह्भ्रा होगा । वे एक प्रसाधारण मनीषी; श्नौर श्रपने सिद्धान्तो के प्रति श्रसीम निष्ठ- वान् योगी थे । उन्होने सूत्रोपनिषद् श्रौर गीता तीनों वेदान्त्रस्थानों पर भाष्य लिख कर यह् प्रदशित करने का प्रयास किया कि मूलग्रन्थों का श्रभिप्राय केवल उनकी विचारधारा में ही ठोक-ठोक प्रकाशित हुम्रा है तथा वेदान्त के विषय में केवल उन्हीं का मतवाद सर्वथा पृष्ट, युक्तियुक्त प्रमाणसंगत श्रौर श्रवर्य- स्वीकायं है ।
भ्रपनी दृष्टि में वे ही सच्चे ्र्रौतवादी थे। भ्राचायं शंकर श्रादि तो श्रपने श्रखण्ड श्रौर भ्रानन्दरूप ब्रह्मसिद्धान्त के कारण भ्रान्त प्रचारक श्रौर जगन्मिथ्यात्व-प्रतिपादन के कारण ून्यवादी बौद्धं के१ ही समकक्ष श्रीर ्ररैतवेदान्तिनरूव मात्र ये । श्रपने सूव्रोपनिषद्गीतामाष्यों मेँ उन्होने दवैतादरैत- वादियों, विशिष्टाद्रैतवादियों श्रौर दैतवादियों का कहीं पर भी नाम-निदश- पुवेक स्पष्ट विरोध या प्रत्याख्यान नहीं किया है। वे केवल मायावादी शंकर मतानुयायियों से ही खुल्लमखुल्ला लते दीख पड़ते हँ । इसका कारण स्पष्ट है करि अन्य सभी प्रकारके वदान्ती इनकी दुष्टिमें ज्ञानी दाशेनिक न होकर भक्तिमार्गी साधक थे । उनका लक्ष्य तत्वसाधना' नहीं भपि तु साधना का तत्तव" था । विज्ञनभिक्षु की दृष्टि में ये भक्ठभाष्यकार मानवीय तथा दिव्य गुणों के समवेत रूप के पजारी ही प्रतीत हुए । भ्रतः उनकी दुष्टि मे वे सब दवैतवादी ही थे वेश चाहे उन्होने विरिष्टादेत का वारण किया हो अ्रौर चाहे शुद्धाद्रैतया देताद्वैत का । १५ वौं शतान्दी के श्रन्त तक में द्वैत परम्परा के शंकरानुयायियो २ ने श्रौर सभी प्रकार के वेदान्तियों को इतना परास्त भी कर रक्वा थाकि इनके खण्डन मण्डन की श्रावश्यकता ही विज्ञानभिक्षु को नहीं प्रतीत हुई । ंकरानुयायियों ने श्रपने तीन्रतम त्को से केवल ॒भ्रपने सिद्धान्तं को ही सुसंगत सिद्धान्त सिद्ध करके वेदान्त कीजो एक मात्र ठेकेदारी ग्रहण करली थी, विज्ञानभिश्षु ने उस भ्रान्ति के विरोघ में भ्रपनी भ्रावाज ऊँची की भ्रौर वेदान्त
१. न तु तद्रे दान्तमतम् -सां० प्र° भा० प° २३
२, अनयैव च रीत्या नवीनानामपि प्रच्छन्नबोद्धानां मायावादिनामविद्या-
मात्रस्य तुच्छस्य बन्धहेतुत्वं निराङृतं बेदितन्यम् ।--सां० प्र° भा० न ३. विद्यारण्यभरुनी श्वर, सदानन्दग्यास आदि ।
६० | आचायं विज्ञानभिश्च
के मूल रूप से उन्हं भटका हृश्रा सिद्ध किया श्रौर स्पष्ट घोषणा की कि यह् वास्तविक वेदान्त.मत १ नहीं, श्रपितु नथा वेदान्त या श्राधुनिक वेदान्त है ।
निज्ञानागरतमाष्य
इस पृष्ठभूमि मे भ्राचायं विन्ञान भिक्षु ने वेदान्तभाष्य की परम्परा का प्रथम ग्रन्थ श्रह्ममीमांसामाष्य' उक्त निष्ठुर कसौटी के संकषं पर चढ़ा कर विदरज्जगत् में प्रस्तुत किया । इस भाष्य का नाम श्राचायं ने "ऋजु-व्याख्या' रखा है । सामान्यतः भाष्यो श्रौर टीकाभ्रों का नाम उनकी विश्ञालता, संक्षिप्ता, विशदता श्रथवा सुवोधता सम्बन्धी रखा जाता है । कभी-कभी व्याख्याश्नो के नामकरण मे हितकतृःत्व, संतोषदायकत्व एवं प्रियरूपत्व का पुट भीलादिया जाता है । दर्शनग्रन्थो की व्याख्याश्रों एवं भाष्यं के नामकरणं में ग्रन्थकार लोग भ्रपने मतवादका भी श्राधार नेते भ्रौर सिद्धान्तके मूलशब्दों का भी उपयोग करते हए देखे जाते है । किन्तु "ऋजु" व्यास्या से इन विरिष्ट प्रयोजनों कौ व्यंजना तो होती नहीं । फिर भी ऋजु" शब्द का प्रयोग भाष्य कौ सरलता भ्रौर सुबोधता के प्रति संकेत करने के साथ साथ कु श्रौर विशिष्ट श्रभिप्राय के परति भी इंगित करता है । वह॒ श्रभिप्राय साफ़ है। विज्ञानरभिक्षु की दुष्टिमें पूवत सभी श्रह्मसुत्रभाष्य' ऋजु होने के स्थान पर कुटिल, वक्र श्रौर विषम थे । भ्र्थात् सूत्रों का श्रथं निकालने मेँ शंकर रामानुज प्रादि सभी भष्यकासों ने भ्रपने सिद्धान्त के पोषक तत्त्वो के भ्रनुकूल तोड-मरोड की है श्रौर सूत्र की स्वाभाविक मान्यताश्रों की श्रवहेलना की है । ग्रतएव श्राचायं बादरायण के यथार्थं परमिप्राय को बिल्कुल सरल रीति से व्यक्त करने के प्रयोजन को स्पष्ट करने के विचार से विज्ञानभिक्षु ने श्रपने भाष्यका नाम कऋजु-व्याख्या' रखा होगा ।
ग्रन्थ का स्वरूप
यह् भाष्य बहुत विडाल है । श्राकार की दष्ट से श्रीभाष्य के बाद तरेदान्तसूत्ो पर सवसे बृहद् भाष्य यही है । लगभग १४ सहस्र पंक्तियां इस ग्रन्थ में हैँ जब कि श्रीभाष्य में १६ सहस्र के लगभग पं्तिर्या है । प्रथम भ्रघ्याय के प्रथम पाद का पंचम मुत्र भौ विज्ञानमिशचु की दृष्टि मेँ पहले चार सूत्रों की ही भति बड़ा महत््वपूरं है । इसीलिए चतुःसूत्री के स्थान पर इन्होने पञ्चसूत्री की महत्ता स्वीकार की हैर । भ्राचायं शङ्कर, रामानुज, मध्व श्रौर निम्बाक ने चतुःसूत्री परर विशिष्ट, विशद एवं
१. नेदं न्यासदरंनम् !--वि० भा० पु० ८५ ॥। २. पञ्चसुत्रयां समासेन पूर्वाचार्य प्र्वातितः । वेदान्तनगरोमार्गो विज्ञानार्केणए दशितः ॥- वि० भा० पु० १३९
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ स्चनाएं | ६१
विस्तृत भाष्य लिला है । सारे प्रतिपाय विषयों का संक्षिप्त परिचय इसी चतुसूत्री- भाष्ये कर देने की परम्परा थी । भ्राचार्य वल्लभ ने त्रिसूत्री भाष्य की योजना प्रपनायी थौ । परन्तु यह् “व्रिभत्री?' श्रौर “चत्, सूत्री” का अन्तर नाममा काधा क्योकि वल्लभ ने “जन्मादस्य यतः” वै सू° १।१।२ श्रौर “शास््रयोनित्वात्"” वे° सू० १।१।३ इन दोनों सूत्रों को एक करके ही प्रस्तुत किया है। इस प्रकार से ^तत्त्समन्वयात् ” सूत्र के भाष्य के श्रन्त में उन्होने “इति त्रिसूत्री भाष्यम्" लिखा हे । श्राचायं विज्ञानभिश्चु ने इन चारों सूवरोंके सदृश महत्त्व पांचवें सूत्र “ईक्षतेर्नाशब्दम् को भी प्रदान किया है] इस परम्परा-परिवर्तन का कारण कदाचित् यह् था कि इस पांचवें सूत्र द्वारा ई्वरकतरुत्वादि विषयों कै प्रतिपादन मे उनका विशेष संरम्भ दीख पडता है । उन्हं ्रपने मतवाद के--जो कि सांख्ययोग ग्रौर वेदान्त का मिलन विन्दु है, भ्र्थात् संसार का ईश्वरकतरं कत्व-मण्डन श्रौर श्रनिर्वच- नीयतावाद-खण्डन रूप है-- प्रतिपादन के लिए यह सूत्र भी पहले चार सू्ोकीही भाति विशेष महत््वपूणं लगा । इसी कारण से उन्होने पञ्चसूतरी भाष्य का पृथङ् ~ निर्देश किया है । इस प्रयोग का ्राधार उन्होने पूर्वाचिार्यो की मान्यता बतायी है। परन्तु भ्रभी तक कोई एसी भ्राचायं-परम्परा उपलब्ब नहीं हुई जिसमें इस प्रकार से चतुःसूत्री के स्थान पर पञ्चसूत्री का उपयोग हरा हो ।
ग्रन्थके प्रारम्भ मे प्रस्तुत मङद्कलाचरणमें ही उन्होने ्रन्थगत विषय की संक्षिप्ततम सूचना दे दी दै कि वेदान्तप्रतिपाद्य ब्रह्य सकल-संसारव्यापी हँ । चिद्रूप नीव श्रौर श्रचिद्रूप प्रकृति उसकी शक्तियां हँ । इन शक्तियों से शक्तिमान् वह् ब्रह्य चिन्मात्र है? । उन्होने प्रथम सूत्र के भाष्य में यह् भलीभांति स्पष्ट किया है कि वेदान्त का प्रतिपाद्य विषय ब्रह्य है न कि जीवत्रह्यं क्य, जैसा कि शङ्करमता- नुयायी मानते हैँ ।२ पूणं ग्रन्थ ,भांति-भांति के तरको ्रौर प्रमार्णो के द्वारा प्रस्तुत शाङ्करमत के खण्डन सेभरा पड़ाहै। हर प्रासद्धिक स्थल में शाङ्कुरमत का प्रबल खण्डन दिया गया है । एक ही प्रकार के विचार का खण्डन अ्ननेकं स्थलों पर करने के कारण पुनरुक्ति कीभी कमी नहीं हैँ । शङ्कुराचायं के श्रग्राह्य मतोंका पृं र्पेण खण्डन किए बिना वे प्रागे नहीं वदृते । पादो ्रौर प्रघ्यायों के प्रारम्भ मे विगत पाद श्नौर् प्रध्याय के प्रतिपाद्य विषय की सूक्ष्म-सुचना पूरे ग्रन्थमे दी गयी है। इस प्रकार से सिद्धन्तों को हृदयद्धम करने में श्रद्भुत सहायता मिलती है ।
१. सर्वत्र यो यत्र सवं यचसवंमतो भवेद् ।
चिदचिच्छक्तये तस्मेनमर्चिन्मात्ररूपिरो ।1--वि० भा० प° १ २. अस्यशास्तरस्य 'जीवत्रह्यं क्यविषयत्वे लिङ्धाद्यभावात् ।- वि०भा०पु०३१
६२ | आचायं विज्ञानभिष्षु
ग्रन्थके ग्रन्त मे कुं शलोक हैँ जिनसे पूवं लगभग पाच पृष्ठो में पूरे भाष्य का सारांश दिया हुप्रा है । इन रलोकों में ज्ञानभावना से प्रोतप्रोत ब्रहम की स्तुति है । इस स्तुति मे भक्तिभाव से भीने हृदय के उद्गार नहीं हँ प्रत्युत वुद्धिबल के प्रकारक तर्को के श्राधार पर सवंशक्तिमान् ईख्वर से कंवल्यप्राप्नि की कामना ही प्रकट होती ह ।१
उपनिषद्भाष्य
उपनिषदों के भाष्य में कोई विषेष संरम्भ नहीं दिखायी पडता । साधारण किन्तु सुबोध भाषामे वाक्यों की स्पष्ट व्याख्या की गयी है । इन ग्रन्थों का प्राकार बहुत पृथुल नहीं है । खण्डन-मण्डन की परम्परा भी बहुत स्वल्प मात्रा मे समुपलब्ध होती है । वे ही वेदान्तसिद्धान्त जो सूत्रभाष्य मे स्पष्ट कि गये हैँ यहां पर भी सुगम शली में प्रस्तुत हैँ! इन भाष्यों मेँ सबसे बडा ““इवेतारवतरोपनिषदालोक” श्रौर सवसे छोटा “त्रययुपनिषदालोकः” है ।
ईेश्वरगीताभाष्य
उपनिषद्भाष्यो के श्रनन्तर॒ईर्वरगीताभाष्य का परिचय आवश्यक है । इस ग्रन्थ का प्राकार बड़ा है । यह॒ गीता श्रीमद्भगवद्गीता से भिन्न है । ईखवरगीता कूर्मपुराण के द्वितीय भाग के प्रारम्भिक ११ भ्रध्यायों का ही नाम है । इस गीता में भगवान् महादेव या शिव बदरिकाश्रम में एकत्र सनत्कुमार भ्रादि ब्रहज्ञानियों को वैदान्त का उपदेश करते है । इस गीता का नाम शिवगीता या उत्तरशीता भी है ।२ इसका प्रतिपाद्य विषय पूणंतः वेदान्त ही है । विज्ञानभिष्ु ने इसका विशेषण “वेदान्त्षाराथसंग्राहिणी दिया है । विज्ञानभिश्ु ने इस पर भाष्य लिख कर वेदान्तियों द्वारा गीता-भाष्य लिखने की परम्परा का पालन भी क्याहै। श्रौर साथ ही अपने सिद्धान्तो का प्रतिपादन
१. द्रष्टव्य, वि० भा० पुण ६२८
२. ईइवरगोता भौर उत्तरगीता के नाम से रमन होना चाहिए । क्योकि शंकर ने अपने भाष्य मे कहीं कहीं ८ तथाचोक्त मौव रगीतायाम् ° कह कर श्रीमद्भगवद्गीता को हौ उद्धृत किया है । एक ““उत्तरगीता"" नामक ६ भध्यायों का ग्न्य गौडपादलृत-भाष्य सहित गुजराती परस बम्बर से भी प्रकाशित हृभा है । कुर्मपुराण बाली शिवगौता ही विज्नञानभिक्षु को उत्तरगीता भौर ईइवरगीता नाम से इष्ट है \ अन्य गोताए् नहीं ।
आचायं विज्ञानभि्षु कौ रचनाएं | ६३
करने के लिए उपयुक्ततर क्षेत कौ प्राप्ति का भी लाभ किया है ।१ उनकी दृष्टि में श्रीमद् भगवद्गौता श्रौर ईस्वरगीता मेँ पृरणातः श्रथंसाम्य है । केवल शब्दों का भ्रन्तर है । इसलिए एक पर लिखा गया भाष्य दरी केश्र्थोकाभी पृण प्रकाशक है ।
इस भाष्य मे भी विन्ञानभिश्चु ने प्रपने वेदान्त-सिद्धान्तों का प्रकाशन उसी रूपमे कियाहै। दूसरे प्रध्याय के भाष्य से सिद्धान्तो का प्रतिपादन प्रारम्भ होता दै । ब्रह्म प्रौर जीव का भ्रंशांरिभाव तथा श्रविभाग पर श्राधारित मेदाभेदवाद तो मङ्गलाचरण के रलोक से ही परिलक्षित होने लगता है । शक्ति रूप जीव श्रौर रव्तिमान् रूप ब्रह्य का प्रभेद तो पूरे ग्रन्थ का मूलमन्त्र वन गया है ब्रह्यको इस प्रन्थमेभी संसार का श्रविष्ठानकारण सिद्ध किया गया है श्रौर संसार ब्रह्म की शक्तिभुतप्रकृति का परिणामरूप । सारांशतः उनका श्रभेदात्मक श्रदरेत- वेदान्तसिद्धान्त इस ग्रन्थ में बड़े ही रोचक ठङ्घ से प्रस्तुत हुश्रा है ।
वेदान्त-ग्रन्थो की कोटि में निरदिष्ट ब्रह्यादर्श नाम के ग्रन्य का परिचय देना श्रसम्भव है क्योकि बड़ प्रयास के परात् भी इसकी कहीं कोई पाण्डुलिपि उपलन्व नहीं हो सकी है । इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का ज्ञानं श्रवद्य हो जाता है योग- सारसंग्रह् के निर्देश से । निश्चय ही इस ग्रन्थ में भी ब्रह्म या ईख्वर् का ही वणेन हरा है किन्तु प्रतिपादन की परिपाटी क्या रही होगी, यह नहीं कटा जा सकता । सम्भवतः यह भौ उपदेगरतमाला को ही भांति वेदान्त का एक प्रकरण- ग्रन्थ है।
१ स्ववेदान्तसाराथंसंग्राहिण्या अतिस्फुटम् । भाष्यमोर्वरगीतायाश्चक्ते विज्ञानभिश्चुकः ॥ एतेन भगवद्गीता व्याख्पपेक्षाऽपि यास्यति । शब्दादिभेदेमात्रेणए गीतयोर्थसाम्यतः ॥
--ई० गी° भा० पाण्डुलिपि, समाम्तिदलोक
मद्धलाचरण, ई० गो० भा० पां० लि० । बरह्यप्रकरर ब्रह्मादर्शादावीहवरोऽपि च । | वाएितो वण्यंतेऽत्र ग्रन्थसंक्षेपकाभ्यया ।।--यो० सा० सं° प्रु ६०
सांख्यन्ग्रन्थ
प्र रणा विज्ञानभि्षु को दृष मेँ यदि वेदान्तशास्व श्न.तिवक्यो का श्रवश कराता ह श्रौर योगशास्त्र निदिध्यासन का प्रकार वतातादै तो सांख्यशास्त्र श्र.तवचनों का मनन कराने वालाहै।१ श्ववण के द्वारा श्रात्मज्ञान का स्पष्ट संकेत सुलभ होता है। मनन के विना उस ततत्वं का सम्यग् वोध नहीं होता । विना भली भाति तत्वका बोध हुए परमाथंसाघनापरायण साधक ध्यान या निदिध्यासन में सफल कदापि नहीं हो सकता ।२ इसलिए सांख्यशास्त्र तत्त्वबोध या तत्त्वज्ञान कराने की क्षमता के कारण श्रपनी श्रक्चुण्ण महत्ता रखता है । सास्यशास्त्र ही त्वज्ञान फ विषय में सबल उपपत्तियां प्रस्तुत करता हैर भ्रौर दुर्बोध तत्तव के श्रशेष प्रपंचं का सांगोपाङ्ग विवेचन भी करता है । इसीलिए तत्त्वदर्शन या श्रात्मसाक्षात्कारसूपी परम-पुरुषाथं की साधना का ग्रन्थो द्वारा उपदेश करने में तत्पर विज्ञानमिक्षु के लिए यह् सर्वथा स्वाभाविकथा किवं सांख्यशास्त्र पर भ) ग्रपनी लेखनी उठावें । यद्यपि श्रपने वेदान्तभाष्य मे तत्वों का बड़ा व्यापकश्रौर विशद विवेचन उन्होने पहले ही कर रख।था। फिर भी वेदान्त का प्रमूख प्रतिपाद्य ब्रह्मया ईश्वर होने के कारण ईशवर।तिरिक्त तत्त्वों जैसे प्रकृति, पुरुष श्रादिकों का केवल ब्रह्य के सम्बन्धसे ही वंन हुभ्रा है । प्रकृति, पुरुष अ्रादि के पणं-स्वरूप का विवेचन, उनसे संसार की उत्पत्ति का पूर-प्रकार-निरूपण तथा ज्ञान के विवेक ख्याति भ्रादि सारे प्रावश्यक सूपोंका स्पष्ट वरान करना श्रनिवार्यं श्रौर अ्रपरिहायं था । श्रतः सांख्यशास्त्र के मूलाधार- ग्रन्थ साख्यसूत्रों पर विन्ञानभिश्चु ने भाष्य लिखना प्रारम्भे किया। एक प्ररत
१. तस्य श्रुतस्य मनना्थंमथोपदेष्टुं सच. क्तिजालमिह सांस्यकृदाविरासीत् । - मंगलाचरण, सां० प्र०भा०)
२. श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येम्यो मन्तव्यरचोपपत्तिमिः । मत्वा च सततं ध्येय एते दशंनहेतवः ।।--स्मृत्िः, वि० भिण दवारा सां० प्र° भा० पु १ पर उद्धत)
३. तत्र श्रुतिभ्यः श्रुतेषु पुरुषार्थतदहित, ज्ञानतद् विषयात्मस्वरूपादिषु शरुत्य- विरोधिनीरूपपत्तःषडध्यायीरूपेण विवेकश्तरिंण कपिलमुतिभेगवातरु- पदिदेदा (-सां० प्र° भाण्पु०र
आचायं विज्ञानभिश्ु कौ रचनाएं | ६५
यहां पर श्रौर उठ्तारहैकि सांख्य के मूलग्रन्थके रूपमे जव शंकराय तथा वाचस्पति मिश्र श्रादि भ्ननैक मनीषियों ने व्याख्या के लिए सांख्यकारिका को ही चुना थातो विक्ञानभिक्चुने उस पर भाष्य न लिखकर (सांख्यसूत्रो" पर भाष्य क्यों लिखा ?
इस प्ररन का सामाधान सांख्यप्रवचनभाष्य के मद्धलाचरण में विज्ञानभिक्षु ने स्वयं प्रस्तुत किया हैँ । उनका विश्वास था कि जो कपिलमूनि सांख्य स्त्र के भ्रादि वक्ता थे--उनके हारा प्रणीत सांख्यसूत्र की लोकप्रियता उस समय नहीं थी वयोकि इन सूत्रों के प्राधार पर लिखे गये षष्टितन्त्र १ प्रादि पृथुल ग्रन्थ लुप्त हो गये थे । समय के फेर से मूलसांख्य के भाष्यादि ग्रन्थोंके लुप्त हो जानेके कारण कृलामात्रावशिष्ट श्रर्थात् केवल सूत्ररूपों में वचा हुभ्रा सांस्यरास्त्र लोगों के दष्टि-पथ में था।२ वाचस्पतिमिश्च श्रादिने इसीलिए क्षीण तेज वलि, खः ग्रव्यायों मे विभक्त. सांख्य-सूत्रों पर भाष्य न लिखकर ईइवरङृष्ण-विरचित सांख्यकारिका पर टीकाएँ या व्याख्यां लिखी हैँ । विज्ञानभिक्चु ने जोकि शास्त के मूल ल्प का श्रावार लेना ही पसंद करते थे इसीलिए कारिकाश्रों पर भाष्यन लिखकर सूरो पर भाष्य लिखना श्रधिक पसन्द किया । इस रीति से वे सांस्य- शास्त्र का मूल रूप भी प्रस्तुतं कर॒ सक्ते थे रौर साथ ही कालकवलित सांख्य- शास्त्र का उद्धार भी कर सकते थे । इसीलिए कलावरिष्ट सांख्यशास्त्ररूपी चन्द्रमा की कलाश्रों की श्रपने वचनामृतों से पूति करने का दावा भी उन्होने कियाहे।
इससे यह धारणा न वना लेनी चाहिए कि संख्याकारिकाभ्रों को प्रामाणिकता वे सूत्रों से कहौं कम समते थे प्रत्युत वे भ्रपने भाष्य मे भ्रनेकं स्थलों परर सांस्यकारिकाश्रों को उसी श्रद्धा रौर प्रामाणिकता के साथ उद्धूत करते है जैसे पञ्चिखाचार्यं के वचनों को 1 तात्पयं यह् किं कपिल-सूत्रो को प्रकार में लने
श्रौर उसे बोधगम्य बनाने का उनका निर्य ही साख्यप्रवचन भाष्य लिखने में
१, षष्टितन्त्र के सम्बन्ध मेंभी विद्रानों के अनेक मत है मुभ पं० उदयवीर शास्त्री का सत युक्तिसंगत प्रतीत होता है. इसीलिए उसी आधार पर मेने अपर की पंक्तियां लिली है । पुरे विवेचन के लिए ्रष्टग्य “सांस्यदर्शंन का इतिहास" प° २०४-२७३, पं० उदयवीर शास्त्री ।
२. कालारकंभक्षितं सांख्शास्त्र ज्ञानसुधाकरम् । कलावशिष्टं भुयोऽपि पुरयिष्ये वचोऽमृतेः ॥ ५ ॥!
-मद्ध.लाचरण सा्थप्रवचनभएष्य 1 ३. द्रष्टव्य, सांश्प्रष्मापु० ६ , ६४, ६१, ६२, ६३ इत्यादि । फा० ५
६६ | आचाय विलञानभि्
मधान कारण है न किं सांख्यकारिका के प्रति 6 उनकी कोई हीन-भावना । ए बात इस प्रसंग मे रौर उल्ेखनौय है कि सास्यकारिका में पूरे सास्यत्त क प्रकाशन करने का श्रवप्तर भी नहीं था क्योकि आत्मतत्व या ॥ षततव काशं विवेचन जितना कि सांख्यशास्त्र को भ्रभिमत है साध्यास म नहीं दिया गया,२ इसलिए भी उनको सास्य-सूतरों पर भाष्य लिखना न था। एसा उह लयं सस्यसार कँ मङ्गलाचरण मे प्रकट किया टं । "सास्य-प्वचन-भाष्यं सभी ज्ञान के तत्त्वो का श्रौर सभी तत्वों के ज्ञान का विवेचन किया गयाहै। साख्य की सारी प्रक्रिया सांख्य-कारिका श्रौर॒सांख्य-प्रवचन-भाष्य मे दौ गयी ह । इन दो ग्रन्थो से भी जो सांख्य की प्रक्रिया बच जाती है उसका तथा भ्रातमतत्च या पुरुष का प्राधान्येन विवेचन करने के लिए विज्ञान धिघर ने सस्थसार (विके) नामके प्रकरण ग्रन्थ की भी सजना की ।२ इत अरन्य के द्वारा प्रकृति-तत्व भ्र पुरुषतत्त्व का विवेक भी बड़ी ही विशाल पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत किया गयाहै। "विवेक ही इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य है 1 इसलिए मङ्गलाचरण मे इस प्च को विज्ञानभिक्चु ते सांख्यसारविवेक भी नाम दिया है। इन दोनों प्न्योके विषय-सन्तिवेशा पर विधिवत् विचार भ्रागे किया जायगा । यहाँ तो इन ग्नो $ लिखने के प्रयोजन भ्र्थात् श्रान्तरिक प्रेरणा श्रौर बहिःप्रेरणाश्रों काही विकार करना श्रभीष्ट है ।
वेदान्त-भाष्य लिखते समय विज्ञानभिक्चु ने कहा था कि सांख्यशास्त्र
के सभी स्वरूपो का विवेचन करने के कारण प्रमाणो पर भी पूं मत प्रकारित करता है । योगश्च तो प्रधानतः क्रिपात्मक विज्ञान है जिसमे साघक को साधा को समनित गतिविधियों का निदेश किया जाता है । श्रतः प्रमाणं कौप प्रणाली काज्ञान योगमेंभी सास्य से ही लेना है ।° इस कारण प्रमाणो की परम्परा का धरर ज्ञान प्रस्तुत करने के लिए भी सांख्य शास्त्र पर ग्रन्थ ति विज्ञानभिशच के लिए एक प्रबल श्रान्तरिकं प्रेरणा का प्रतिफल था । 8 (िजञानामृतमाप्य लिखने से श्रदरौ तवेदान्त जगत् म मची हद हतकत -पि-भति कौ परतिशरियाभ का मुखरित होना स्वाभाविक था । निन ष ९१
२.
३.
सस्थकारिकया लेशादात्मतरव विवेचितम् । मद्धलाचरण स” #
र इलोक सं० २, ३, ४। न ऽतो विज्ञानेन प्रपञ्चयते' । सां० सा० का
चरण ।
'स्वशास्त्र ्ानोत्पत्तिप्रक्रियाया अभावेन तमो पर्रियेव ग्राही
` स्तात् । वि° भा० पर ७३--७४।
0
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आचायं विज्ञानभिश्चु कौ रचनां | ६७
प्रौर योग के सिद्धान्तो के सन्निवेश प्रौर समर्थेन से श्रदैतवेदान्त का स्वरूप विज्ञानभिश्ु ने शाङ्करभाष्य के पर्यास विरुद प्रस्तुत किया था, शङ्कुरानुणायियों न उस सख्पयोगज्ञान पर भी छींटाक्शी जी खोल कर की होगी । बहुत संभव है कि प्रतिक्रियाके प्रवेश मेँ उन लोगों ने यह स्पष्ट रीति से कहना प्रारम्भ किया हो कि विज्ञानभिष्चुने सांख्य के जिस स्वरूप की दुहाई वेदान्तमाष्यमेंदीह वह सांख्य का वास्तविक स्वरूप ही नहीं है । क्योकि श्राचा वाचस्पति मिश्र
भ्रादिने सांख्य के समग्र सिद्धान्त क) जिस रूप मेँ श्रपनी प्साख्यतत्त्वकौमुदी" श्रादि में प्रकाशित किया है उससे विज्ञानभिष्चु के साख्य-सिद्धान्त बहुत भिन्न है ।१ विज्ञानभिश्चु के सास्य-सिद्धान्त इस श्राघार पर विरोधियों के द्वारा स्वोत्प्रक्षितमात्र करार दिये गये ह् गे । इसलिए विज्ञानभिक्षु को भ्रपने सास्य-ज्ञान को मौलिक कापिल सांख्य से श्रविरुद्ध सिद्ध करना भी तत्काल श्रनिवायं प्रतीत हुप्रा होगा । योगवातिक लिख कर के ्रपने योगसिद्धान्ों को उन्होने पतञ्जलि ग्रौर व्याससम्मत सिद्धही कर रखा था। श्रतः रचनाभ्रोंकेकालक्रमसे (सांख्यप्रवचन-भाष्य ' लिखने की बाह्य प्रेरणा का भी उन्होने स्वागत किया ्रौर वाचस्पतिमिश्च भ्रादि ्रद्धेतत्रेदान्तियों तथा भ्रनिरुद्ध नामक श्रद्रैतवेदान्तोन्मूख सभी सास्यटीकाकारों के श्रान्त श्रौर अगत मतवादों के निरास पूवक सांख्यसूत्रों का भ्रतिराय महनीय भाष्य प्रस्तुत किया ।
“सांख्यप्रवचनभष्य' लिखने के परचात् पारमाथिक भूमि में प्रशस्त तोनों भ्रास्तिक दशनो के सूत्रों की व्याख्या की परम्परा पुरी हो गयी थी 1 सांख्य-योग- वेदान्त के सिद्धान्तो के सम्बन्ध में भ्रव उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता । उनका मतवाद एक सुनिरिचित, ग्रविकल तथा सुस्थिर स्वरूप वारण कर चुका था । उनका भ्राचायंत्व सवंसाधारण में स्थापितिहो गया था} अतः शिष्यों प्र भ्र्थ के विवेचनपुणं प्रतिपादन का विशाल उपक्रम करने की श्रावदयकत। उम्ह नहीं थी । ये तीनों ग्रन्थ पर्यास थे उनके सिद्धान्त के श्रशेषत्रिरोषों को समाने के लिए । रव एक नैसगिकर प्रतिक्रिया होती है कि भ्रपने सिद्धान्तो के समन्वित रूपो का संक्षिप्त प्रकाशन किया जाय । जिसे शिष्थगण सदा स्मरण रख सकं ग्रौर प्रधान तथा सारभूत बातों के लिए प्ररे तीनों ग्रन्थों का बार-बार प्रालोडन- विललोडन करने का भ्रायास उन्हे न करना पड़ । इस प्रान्तरिक प्रतिक्रियाका प्रतिफल उनके 'सांख्यसार' भ्रौर ोगसारसंग्रह' नाम के ग्रन्थ ह । इनमेंसे 'सास्यसार' उनके ज्ञान के सिद्धान्तो का संक्षिप्ततम संस्करण है ° श्रौर योगसार
१, द्रष्टव्य सांख्यसिद्धान्त' द्विती य-पटल, इसी ग्रन्य मे प° सं १३८--१७८। २. सांख्यसार-विवेकोऽतो विज्ञानेन प्रपञ्चूयते । मद्धलाचरर-सां० सा०
६८ | आचाय विज्ञानभि ष्च
संग्रह योगसाघना की विधियो का सूक्ष्म संकलन । “सांख्यसार” वस्तुतः तत्त्वज्ञान- सम्बन्धी उनके सारे सिद्धान्तो का मुकुटमणि हे ।
साख्यप्रनचनभाष्य का स्वूप
सांख्यसूत्रो के छह अ्रघ्याय हैँ । इस कारण से इस सूत्र-गरन्थ को षडघ्यायी भी कहा गया है । विनज्ञानभिष्षुने भी कहीं-कहीं इस सूत्र-ग्रन्य को षडध्यायी नाम दिया है 1 इसी सूत्र-ग्रन्थ पर विज्ञानभिक्षु का सांख्य-प्रवचन--भाष्य लिखा गया है । इस सांख्य-भाष्य के दवारा लुत्तप्राय सांख्यशास्त्र का उद्धार प्रम प्रयोजन है । साथ ही चिति या पुरूष को चिदचिद्ग्रन्थियोसे चुडाना प्र्थात् पुरूष का कौवल्य- पथ प्रशस्त करना, उसके सांसारिक-वन्धनों से विमूक्त स्वरूप को प्रदर्शित करना उनका वास्तविक प्रयोजन है ।° मंगलाचरण के श्रन्तिमि श्लोक मे श्रपने इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य भी उन्होने 'सर्वात्मनामवैधम्य॑म्* कहू कर प्रकाशित करिया है । भ्र्थात् पुरुष का सच्चा सांख्यसम्मत स्वरूप-निर्धारण करना इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय है ।
भाष्य प्रारम्म करते ही इस ग्रन्थ को महत्ता श्रौर इस शास्र का भ्रन्य मुख्य भ्रास्तिक दशेनशास्त्ौं से श्रविरोध प्रकट किया गयाहै। यहीं पर उनकी यह् घारणा भी स्पष्टहो गयौ हे कि सांस्यशास्तर को महत्ता श्रौर विशेषता विवेक- प्रतिपादन में है, ईश्वरःप्रतिषेघवाले भ्रंश में नहीं । ईशवरप्रतिषेध तो सास्य की दुवंलता श्रौर भ्रग्राह्य सीमा है ।: इस ग्रन्थ का प्रथम श्रध्याय श्रपेक्षाकृत विद्चाल दै । इसमे कुल १६४ सूत्र हँ जिन पर विज्ञानभिश्चु ने बड़े मनोयोग से विस्तृत भाष्य प्रस्तुत क्या है। इस श्र्याय को उन्होने “विषयाघ्याय' कहा है । भ्रव्यायान्त में विज्ञानमिक्षु के स्वनिर्मित दो इलोक हैँ जिनमे विषयों की संक्षिप्त सूची दै ।
दितीय अध्याय में सृष्टि-प्रक्रिया वणित है 1 इसमें कुल ४७ सूत्र है । इसका
नाम उन्होने श्रधानकार्याच्याय' दिया है । विषय -सूची देनेवाला इलोक यहां मी रन्त मे श्रन्य समी भ्रव्यायोंकी भांति दिया गया है। ८४ सूत्रौवाले तृतीय
१. चिदचिदुग्रन्थभेदेनमोचयिष्येचितोऽपि च । सांस्यभाष्यमिषेरास्मात् प्रीयतां मोक्षदो हरिः 11 ६ -मद्धलाचरण सां० प्र० भा० २. तद्विवेकांश एव सांख्यन्नानस्य दर्गानान्तरेभ्य उत्कषं प्रतिपादयति नत्वीरवरप्रतिषेधाशेपि ।- सां० प्र० भा० पर ३
~ .. ^ ^~ ल र
आचार्यं विज्ञानभि्चु कौ रचनाएं | ६९
तथा ३२ सूत्रोवाले चतुथं प्रध्याय को क्रमशः धैराग्याध्याय' श्रौर "्रास्यायिका-
घ्याय' नाम दिया है । यहं तक में पूरे सांष्य-शास्तर के सिद्धान्तो का संकलन
समाप्त हो जाता है।१ भ्रतः पंचम श्र्याय में पवपक्षों का निरास ही प्रधानतः
किया गया है । इसमें १३० सूत्र है । इसका नाम विन्नानभिष्षु ने (परपक्षनिर्जया- ॥ ध्यायः रक्खा है । श्रघ्यायान्त के इलोक ने इस श्रव्याय कौ संगति परपक्षनिरा- | करण पूरव॑क स्व-सिद्धान्त-दृढीकरण के द्वारा लगायी है । इसके वाद ७० सूत्रों वाला छठवां तथा भ्रन्तिम श्र्याय ^तन्व्राध्यायः नाम से व्याख्यात हुम्रा है। इस | भरघ्याय कौ भ्रन्विति विज्ञानभिक्ुके मत मेँ रिष्यों को अ्रसम्दिग्य श्रौरश्रविप- | यंस्त उक्तां का दुदृततर बो कराने के कारण स्थुणानिखननन्याय से है ।२ | ्न्थान्त में कपिल की प्रामाणिकता का शाङ्कुर सिद्धान्त के खण्डन-पर्वक निर्वारणा | जोरदार शब्दों मेँ किया गया है । श्रन्तिम दो श्लोकों के द्वारा कपिल के उपकार, ॥ कृतित्व का रूपकं द्वारा स्तवन २ तथा भ्रपने भाष्य कौ प्रामाणिकता की परिपुष्टि | को गयी है ।* सांख्यशास्त्र की परम्परा मेँ इस भाष्य की श्रद्रितीय महत्ता है ।
सांख्यक्चार का सखह्प
विन्ञानभिश्चु के समस्त सिद्धन्तों का संक्षिप्त संकलन इस ग्न्धम हुप्राहै। उनके सारे विचारो का समन्वित संस्करण हमे इस ग्रन्थ में देखने को मिलता है । उनके दशंन का सम्यग् बोध प्राप्त करने के लिए यह् एक ग्रन्य पर्याति है । इस प्रकार से यह् ग्रन्थ न केवल सांख्यशास्त्र का एक मात्र श्रद्धितीय ग्रन्थ है रपि तु मोक्षमागं को प्रशस्त करने क श्नन्यतम कुञ्जी भी है । इतने सूक्ष्म कलेवर में सारे ततत्व-विचारों का प्रभावपूणं सन्निवेश उनकी सफल व्याख्या-रोली का स्तुत्य भ्रादशे है । मङ्गलाचरण में ही उन्होने यह स्पष्ट कर दिया कि यह् अरन्य
१, स्वशास्त्रसिद्धान्तः पर्याप्तः । सां० प्रण भा० पञ्चमाध्याय को उत्थानिका 1 | २. उक्तार्थानां हि पुनस्तन्तराख्ये विस्तरे कते शिष्याणामसन्दिग्धाविपयस्तो हृढतरो बोधं उत्पद्यत इत्यतः स्थुरानिखननन्यायादनुक्तय॒क्त्यादय्.पन्यासाच्च नात्र पौनरुक्त्यं दोषाय ।- सां ० प्र० भा० प° १५१ ३. सांख्यकुल्याः समापुयं वेदान्तमयितामूतं : । | कपिलषिंज्ञानियज्ञे ऋषौनापाययत् पुरा ॥१।- सां प्र° भा० प° १६५८ ४. तद्वचः भद्धया तस्मिन् गुरौ च स्थिरभावत.: \ ततप्रसादलवेनेदं तच्छास्त्रं विवृतं मया । २ ॥--सां° प्र० भा० पर १६८
७० | आचाय विज्ञानभिष्ु
जहाँ एक श्रोर सांख्यकारिका श्रौर सांख्यभ्रवचनभाष्य का पूरक है वहां विज्ञान- भिक्षु के सारे तात्त्विक विचारों की घनीभूत मूति भ्रौर उनके सांख्ययोगवेदान्त- समन्वय का सुरुचिपुणं प्रतिफल भी है 1
श्राचायं विज्ञानभिष्चु ने मद्धलाचरण के तुरन्त बाद चार पांच पंक्तियों वाले एक वाक्य मे श्रपने मोक्ष सिद्धान्त का डण्डिमनाद प्रस्तुत क्या है। यही वाक्य उनके सिद्धान्तों का बीजमन्त्र है । इस लघुकाय ग्रन्थरत्त के "पूवेभाग' श्रौर “उत्तरभाग' नामसेदो प्रमुख मागर । पूर्व॑भाग की रचना गद्यमयी श्रौर उत्तरभ्राग की रचना बिल्कुल पद्यमयी है। इस श्रन्तर का कारण भी विन्ञानभिश्चु ने उत्तरभाग की रचना के प्रारम्भ मेंदहीदेदियारहै कि रिष्यों के स्मरण रखने की सुविधा से यह भाग पद्यमाला में प्रस्तुत करिया गया है 1२
ग्रन्थ का पूर्वभाग तीन परिच्छैदों मे विभक्त है । इन परिच्छेदो के नाम विषयों के श्राधार पर इस प्रकार हैँ --
१-विवेकख्यातिजन्य परमपुरुषार्थं का परिच्छेद
२-मोक्षहेत्-विवेकख्याति का परिच्छेद
३ विवेकख्यातिप्रतियोगी प्रकृत्यादिपदार्थस्वरूपों का परिच्छेद इन्टीं विषयों का इन परिच्छेदो में क्रमशः सूक्ष्म एवं संक्षिप्त शब्दों मेँ विशद एवं स्पष्ट विवेचन किया गया है । परम पुरषारथभतमोक्ष श्र््याहित होने के कारण प्रथम परिच्छेद में विवेचित किया गया है । उसके वाद करम-प्रास्त विवेकस्याति के स्वरूप का निर्वेचन किया गया है । इसके बाद क्रम-प्राप्त विवेक-ख्याति के प्रसङ्ग में स्वतः उपस्थित होने वाले प्रकृति श्रौर तद्धिकसित तत्त्वों के स्वरूपो का साङ्ग विवेचन हुभ्राहै।
श भात्मानात्मविवेकसाक्षतकारात् कवु त्वाद्यखिलाभिमाननिवृत्या तत्का्॑राग- ह षधर्मोधर्मानुत्पादात् पवेत्पिन्नकमंराम् चाविद्यारागादिसहकायुच्छेदरूप दाहिनविपाकानारम्भकत्वात् प्रारग्धसमाप्त्यनन्तरं पुनजंन्भाभावेन त्रिविषदुः- खात्यन्तनिवृत्तिरूपो मोक्षो भवति इति भर तिस्मृतिडिण्डिमः ।-सां० सा० (1.
२. अथरशिष्येः सुखेनैव ग्रहीतुं पद्मालया । विवेकस्यानुयोगयात्मा पुरुषाख्यो निरूप्यते ॥ १॥--सां० सा० प° २२
३. द्रष्टव्य, प्रत्येक परिच्देद की पुष्पिका ।- सां० सा० प° भा० 1
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आचायं विज्ञानभिष्षु कौ रचनाएं | ७१ इस क्रम कौ विवक्षा में पुरुषतत्त का विविक्तत्व तथा साधना का मागं श्रवरिष्ट पणं प्रकादन “उत्तरभाग' में किया ग विषयभेद के श्राधार पर ७ परिच्छेदो नाम इस प्रकार रक्खा गया है।9 १--पुरुषस्वरूपपरिच्छेदः २--भ्रात्मानातमनोःसत्यासत्यत्ववेधम्यंपरिच्छेदः ३--प्रत्मानात्मनोःचिदचित्ववेधम्यं परिच्छेदः ४--अ्रःत्दानात्मनोः प्रियाप्निषत्ववैधम्यंपरच्ददः ५--ध्रात्मवेषर्म्यगणपरिच्छेदः ६--राजयोगप्रकार-परिच्छेदः ७--जीवनमुक्तिपरममुक्तिः इति द्योः परिच्छेदः
पुरे उत्तरभाग में पुरुषतत्त्व के स्वल्प का निरचय, अ्नात्मपदार्थो से उसके वेधम्ये का निर्धारण तथा "राजयोग" रूपी साधनामागं एदं परम पुरुषाथं रूप मोक्ष के देहिक एवम् श्रामुष्मिक् र्पों (अर्थात् जीवन्मुक्ति भ्रौर परममूव्ति) का स्वरूप सविस्तार प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार से इ ग्रन्थ का उत्तरभाग भ्रपने श्राप में एक पुरं ग्रन्थ है । इसीलिए इसकी भ्रवतारणा प्च रूप मेकी गयी है । बीच बीच मे विरोधी दांनिकों के मतवादों का खण्डन भी पंके हरा सुललित रीतिसेकर दिया गयाहै। २ म्पे सिद्धान्तो कौ स्थापना के लिए बड़ प्रसिद्ध योगवासिष्ठ रादि ग्रन्थों के इलोकों को भी ज्योंकात्यों रख दिया गया है ।३ विज्ञानभिश् ने परग्रन्धय्हीत शलोको का उद्धरण देकर भ्रपनी स्वा- भाविक सरलता श्रौर अपनी ततत्वमात्रैकबद्धदृष्टि का भी परिचय दिया है ।
स्वरूप श्रौर उसका प्रकृति से र्हं नाताहै। इन सव वातोंका याहे । इस भाग का विभाजन मेहुभरा है। इन सातों परिच्छेदो का
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९. द्रष्टव्य, प्रत्येक परिच्छेद कौ पुष्पिका ।-सां० सा० उ० भा० । नन्वेवमेकतेवास्तु लाघवादात्मनां खवत् । ( घीष्वेव सुखढुःखादिवेधरम्यादिति चेन्न तत् ।२३।--सां० सा० १० २ इत्यादि ।
२. परग्यस निनीनारी व्यग्रापि गृहकमंणि ।
= इत्यादि । तदेवाऽऽस्वादयत्यन्तनरसङ्गरसायनम् ॥ १५॥ इत्य 9 --सां० सा० पु० ४० इत्या
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गोगर्ताक
० 4 प्रण योगलास््र पर लेखनी उठने के लिए भी श्राचायं विज्ञानभिष्षु के सामने नितान्त प्रक वातावरण समुपस्थित था । उनके गुरु भौ प्राधान्येन योगी थे क्योकि इनको उन्होने योगमागं मे ही प्रथमतः दीक्षित किया था । योगसारसंगरह में पतञ्जलि श्रौर व्यास की वन्दना करते समय “्रन्यान् गृरून् ` पदों से विज्ञानभिक्षु ने कदाचित् 'प्रादरार्थे बहुवचनम्"' के श्रनुसार श्रपने गुर की ही अभिवन्दना कौदहे। भ्रतः योगदयास््र की रोर इनकी प्रभिरुचि ग्रौर उसमे इनका पार ज्गतत्व स्वभाविक ही था । इन्हँ स्वयं योगशास्त्र के सिद्धान्तो के प्रति श्रसीम श्रद्धा तथा भ्रमित विइवास था । ^चूजुभाष्य” लिखते समय श्रनेकशः योगसू्रो का तथा भाष्य-सस्मतियों का बडी निष्ठा से उद्धरण दिया गया है। इतना ही नहीं ऋजुभाष्य मे प्रथम सूत्र के भाष्यमें ही कमसे कम तेरह बार योग की दुहाई दी गयी दहै । इसी स्थल मं पातञ्जल सूत्र को अ्रपने मत के समर्थेन मे इस धारणा या ठद्धं से उपन्यस्त किया गया है१ जैसे उसकी ्रकाय्यता स्वतः सिद्ध हो । ““ऋजुभाष्य'' मे ही शङ्कुरादि जगन्मिथ्यात्ववादी अरहैत-मतावलम्बियों का खण्डन करने के लिए तथा उन्हं प्रच्छन्न-बौद्ध एवं वेदान्तितरवादि उपाधियों से भूषित करने के लिए एकमात्र योग-भाष्य की पक्तियों का सहारा लिया गया है ।*
विज्ञानमिष्षु योग के प्रति इतना श्रधिक ्रावस्त ये कि उनकी दृष्टिमें योग ही एकमात्र सर्वसम्पन्न दशन है । शेष सभी दर्शन उसके श्रङ्गमात्र प्रतीत होते थे 1२
१, न च सति मुले तद्विपाकोजात्यागुर्भोगा इति पतञ्जलसूत्रेण क्लेशसत्व एव कर्मविपाको भवतीति वचनात्कथं विदुषाभोग : स्यादिततिवाच्यम् 1 -- त्र ° सु° विज्ञानामृतभाष्यम् पर° २१
२. इति सिद्ध योगभाष्ये व्यासैरेवमवधृतत्वात् !--वि० भा० प° तय तदा्र्टुःस्वरूपेऽवस्थानमितियोगसूत्रात् । वही पण ७७ योगजधर्माणां जा्रसिद्धाचिन्त्यश्वितित्वाद् । वही प° ७२
३. गङ्कखाद्याः सरितो यद्वदब्धेरशेषु संस्थिताः । साख्यादिदन्ञनान्येवमस्ये वशेषु कृत्स्नशः ॥४॥--यो° वा० सद्खलाचरणम् ।
७२
भाचायं विज्ञानभि्चु कौ स्वना | ७३
योग के सिद्धान्त भि सारे वेदों के सारभूत लगते येः ¦ ग्रतः उनकी निवि- चिकित्सित वापा टै क मुमष्ुप्रो की एकमात्र गति योगशास्त्र ही रै, “धमृक्षुणामिदं गतिः+--यो० वा० । इ प्रकार की धारणा रखने पर स्वाभाविक ही है कि वे योग पर लिखने के लिए भ्रत्यन्त उक्तटता से ्राकृष्ट हुए हों ।
यद्यपि वेदान्तसू्रों का भी उन्होने योगसम्मत ही श्रथं किया था ग्रौर सांष्य- बासव की मान्यता योगाविरुढ ही है फिर भी योग-शास्त्र दोना शास्र की श्रपक्षा उन्हे श्रधिक भ्रनुकूल लगा। वयोकि वेदान्तप्रतिपादित ज्ञानराशि की प्राप्ति के उपायो का पर्यवसान--““्रात्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यःमन्तव्यः निदिष्यासितव्य्च' के श्रनुसार निदिध्यासन से ही है। जो केवल सम्प्रज्ञातयोग की ही भूमि है 1 प्रतः योग के विना वह् विकलाद्ध दही है। सस्य मं सव वुं स्वारस्य होने पर भी सेदवरता का भ्रभाव है श्रतः भक्तिभावनाभावित विज्ञानमिष्ु के भरन्तस्तल मे सांख्य वह प्रादरपूणं स्थान न बना सका जोयोग ने प्राप्ठक्यिांथा।
ब्रहमसूव्र-भाष्य लिखने के लिए उनके मन मे उतनी तीव्र प्रेरणा नही.थी जितनी कि बाह्य श्रनिवा्यंता । गुरुदक्षिणा के स्प े श्रवा वेदान. के मठो का खण्डन करने के लिए ही प्रघानतः (कजुभाष्य' का प्रयम् उपन्यास किया गया था । पर् योगवातिक लिखने की प्रेरणा उतनी बाहरी नहीं है जितनी कि उनकी ्रान्तरिक चेतना । इस योगामृत को निकाल कर योगीन्र क शरमृतपान के लिए उपस्थित करन को श्राचायं विक्ञानभिधु लालायिद । ऋछजुभाष्य के द्वार पाण्डासुरयूथपों को जीतने के पर्चात् ही इस अरूपा" का आनन्द उाया ता सकता था इसीलिए इस वातिक की रचना का ्नवसर भ्रव प्राया था 1 ्रतः रपी प्रतिभा के प्रसर प्रसार को योगवातिक कै स्प मेँ प्रकाशित करने का
सफल संकल्प किया । ए ५
रपे द्वारा प्रस्तुत किये गये दोनो मृतो “विजानात एवम् ५ मे भी उम्होने उत्कषं परम्परा पात-भेद स प्रकट करते की चेष्टा ५ ८ मृत नामक श्रमृतरस सामान्य भूदेव के पान करे के लिए उपस्थित ४
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१. सर्ववेदा्थसारोऽत्र वेदव्यासेन भाषितः । योगभाष्यमिषेातो मुचणामिदंगतिः ५८
२. अनतर्यामिगरूदिष्टज्ञान-विज्ञान-भिधणा । ० सङ्खलाचरण । ्ह्मसत्रुव्याया यते गुस्सिणा ॥ ९ 1 ८ यान्तु शरीमदगुरोः पीत्वेतद्रलवन्तस्ते पाखण्डासुरगरुथपान् । विलितयलानक पदम् ॥ ५ \--वि° भा मङ्गलाचरण ।
६॥ यो० वाण मङ्धलाचरण ॥
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७४ | आचाय विज्ञानभि्च
जब कि योगामृतः उनमें से कतिपय लब्धप्रतिष्ठ, स्वन।मधन्य योगीन्द्रो के लिए, साधारण योगियों के लिए नहीं उपन्यस्त हुग्रा है 1१
इन भ्रान्तरिक़ श्रनिवा्यताभ्रों के ही भ्रनुकूल कु बाह्य परिस्थितियां भी एेसी थीं जिन्होने ““योगवातिक' जैसे दिव्यग्रन्थरतनन की सजना के सद्ययःसमारम्भ मे योगदान किया । श्रन्यमतखण्डनप्रधान रचना (विन्ञानामृतभाष्य के रूपमेँ) करने पर श्रभी विज्ञानभिश्चु का स्वरूप लोकमत में वैतण्डिक की ही भांति उद्भासित हुमा था उस स्वरूप की पूणंता श्रपने मत के परिपुष्ट उपन्यास के हारा ही सुलभ थी । तभी उनका पुण श्राचायं-रूप विद्रज्जनों में मान्य होता । ग्रतः योगवा्िक की रचना उनके लिए श्रत्यन्त भ्रावर्यक थी जिसके द्वारा श्रपने विचारों का उप- देश वे विधेयरूप में कर सकते थे ।
योगशास्त्र में सूत्र एवं भाष्य पर सुविस्तृत व्याख्या लिखने के लिए क्षेत्र भी पर्याप्त था । दर्योक्रि वाचस्पतिमिश्र-ठृत तत्ववैशारदी मे भी दई श्रभाव उन्हे खटकते थे । प्रथम तो यह् कि वाचस्पति मिश्च मे योगानुभव उतना नहीं था जितना कि तकंशक्ति से विषय की सिद्धि का प्रयास । द्वितीय यह् कि भोजराज ने स्वयं यद्यपि उन चरूटियों से बचने की बड़ी चेष्टा की थी पर संक्षिप्त दरौली के कारण तथा केवल सूत्रों पर वृत्ति लिखने के कारण उनका वांछनीय परमा्ज॑न नहीं हो सका था । इसलिए योगवातिक लिख कर उन तरषियों से रहित एक बोधगम्य तथा निख च व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए उचित श्रवसर था ।
भरतः वातिककार भ्राचायंभिश्च ने श्रवसर की चेतना से सर्वेथा श्रनुप्राणित होकर योगवातिक का प्रणयन बडे धूम-धाम से यह कहते हुए किया है कि - ब्रह्ममीमांसा श्रौर सांख्य शास्त्र मे केवल ज्ञान का ही प्रधानतः विचार किया
गया है श्रौर ज्ञान के साधनभूत योग का संक्षेपतः वरान किया गया है । ज्ञानजन्य चरमयोग (्रसम्प्ज्ञात) का लेदामात्र भी विचार नहीं किया गया है इसलिए
१. (क) ज्ञानामृतं गुरोः प्रत्ये भरदेवेभ्योनुदीयते ।-वि० भा० ३।२ कृतकन्विञ्चयित्वेदं पीयताममूतेप्युमिः ॥--वि० भा० ५।२ (ख) वेदग्यासमुनीन््र.बुदधि-खनितः योगीन््रपेयामृत : । भरदेवेरमृतं तदत्र मयित विज्ञान-विज्ञं रिह 1-- यो° वा० मंगलाचरण । २. दुर्बोधं यदतीव तद्विजहतिस्पष्टा्थमित्य॒क्तिमिः। स्पष्टारथेष्वति विस्तृति विदधति व्यर्थेःसमासादिकंः ॥ अस्थानेऽनुपयोगिभिरच बहुमिजत्पेभन मं तन्वते । श्ोतृणामिति वस्तुविप्लवकृतः सर्वेऽपि टीकाकृतः ।--६ ॥ रा० भा० व°
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आचारं विलञानभिषु कौ रचना | ७५
दोनों प्रकार के योगों का प्रतिपादन करनेवाले योगशास्त्र का प्रणयन महि पतञ्जलि ने सूत्र रूपमे कियाहै 1१ ग्रतः द्विविधयोग का सम्पूणं ज्ञान र कराने के लिए योगवातिक प्रस्तुत किया गया है ।
योगनातिंक का स्वरूप
इन प्रेरणाश्रों से भ्रनुप्राणित अ्राचायं विज्ञानभिक्षु ने योगसूत्रभाष्य पर । वातिक की सजना करने के लिए श्रपनी मंजी हुई लेखनी उठायी श्रौर श्रद्भुत सफलता के साथ उक्तानुक्त-दुरुक्त प्रसंगो का वड़ी सूक्ष्मता भ्रौर ष्टा घे चिन्तन प्रस्तुत किया है । श्नादि मे भव्य श्रौर भावपरं मङ्गलाचरण है । रथम इलोक मे परब्रह्म की वन्दना की गयी है । जिसमे भक्त ओर भगगत् का शुद्ध स्वरूप तथा उनके पारस्परिक सम्बन्ध की दार्शनिक भाक दिखायी गयी है । दवितीय इलोक में सिन्धु-विमन्थन के रूपक के द्वारा ग्रन्थ का महत्व एवं प्रयोजन प्रतिपादित किया गया है । तृतीय तथा चतुथं स्लोकों मँ योगशास्त्र कौ महनीयता क अ्रद्ुनदहै।
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योगवातिक सूत्र तथा भाष्य के भ्राघार पर चार भागों प्रथवा पादोंमे (न । विभक्त है । भाष्यकार के लिए वाचस्पतिमिध्र के ही समान इन्टोने भी भगवान् बादरायण की संज्ञा प्रदान की है ।* योगशास्त्र मं श्राये हुए पदो का यथासम्भवं व्युत्पत्ति प्र दशेन-सहित प्रथं बताने की चेष्टा की गयी है। सर्वत ननु रौर '्रथ' इत्यादि के दारा शंका का उत्यापन करके उसका सुबोघ समाधान कराने का प्रयास किया गया है ।
जहाँ पाठ-भेद मिले ह, उनका भी अरे स्पष्ट क्रिया गया है । यदि किस भी भिन्न पाठ की संगति पर उन्हे रापत्ति हई तो उसका भी ्रङ्गादिनिदश- पूर्वेक उर्होने समीचीन खण्डन किया है ।२ तत्ववेशारदीकार श्राचायं वाचस्पति-
१. ब्रह्ममीमांसासांख्यादिषु च ज्ञानमेव विचारितं बाहुल्येन, ज्ञानसाघनमातर स्तु योगः संक्षेपतः, ज्ञानजन्ययोगस्तु संक्षेपतोऽपि तेषु नोदतोऽतोऽतिविस्तरेणए दिविधयोगंऽप्रतिपिपादयिषुभंगवान् पतञ्जलिः प्रतिज्ञातवान् ।
_ योगवातिक् पृ ५६ लोकहिताय भगवान्
२. (अथयोगानुश्चासनम्' तदिदं सूत्रमारभ्य समग्रं शास्त्रं सवं बादरायणो व्याचष्टे !--यो० वा० परं° ६ २ * द्रष्टव्य, यो० वाण पु० ४०; पु | ८ इत्यादि ॥ यथा-
पञ्चमो-पारस्तु ललनअमायातप्यक्षतिदध ुमितिवष्यदिति
७६ | आचायं विन्ञानभिक्षु
मिश्च के उपयुक्त मतो को तो उन्होने निस्संकोच भ्रपनाया दै । यहाँ तक कि कभी- कभी वाचस्पति मिश्र के वाक्यादि ज्यों के त्यो श्रपना लिये गये ह| द्वितीय पाद के प्रारम्म में भ्राया हृग्रा उत्थानिकारूप वाव्य-विन्यास तत्त्ववेशारदी से ही लेकर ज्योंकात्यों प्राचायं विज्ञानभिक्षुने उस स्थान पर श्रपने वार्तिके प्रयुक्त कर दिया है 1१ परन्तु जहां उन्होने वाचस्पति मिश्र को त्रनभिमत श्रथ करते देखा है वहां सच्चे सत्यान्वेषक की भावना से उसे त्याग कर उपयुक्त एवं वद्ध श्रथं ही रखा है। श्रौर पाठकों की पू्वग्रहजन्य भ्रान्ति को मिटाने के लिए तत्त्ववेशारदौकार को श्राड़े हाथों भी लिया है । पूरा “योगवातिक' इस प्रकार के खण्डन-मण्डनों से भरा हुभ्रा है।२
प्रथम पाद के भ्रन्त में सांख्य एवं योगशास्त्र की भ्रत्यन्त गवेषणाधूणं किन्तु संक्षिप्त तुलना के द्वारा दोनों का साम्य तथा वैषम्य स्पष्ट किया गया है ग्रौर योगको सांख्य का ही प्रकर्षेण वचन म्र्थात् सांख्य-प्रवचन बताया दै । ध्थान- स्थान पर श्रपने चरमसिद्धान्तों की सङ्खति बताते रहने का क्रम उन्होने पालन किया. है ।२
१. ननु प्रथमपादेनेव--आह उद्िष्ट इति, । दरष्टग्य तत्त्ववैशारदी ओर योग- वातिक पु० २३३ २. उदाहरणा्थ--करिचतत्, संवेगो वे राग्यमिततिव्याचष्टे तत्र योगिनोनवधात्- वातरुपपत्त: ।--यो० वा० पु० ३१ ओर ६१ ३. 'तदेव क्रियायोगस्य मोक्षन्नानादिग्यापारकथनात्कममयोगो ज्ञानादिसाघनतया जञानाचङ्गमेव न साक्षान्मोक्षहेतुरितिसिद्धान्तः इति ।--यो० वा० पु० १४२
योगसारसंग्रह
प्र रशे
ग्रन्थो के पौर्वापयं को निर्णीत करते हए यह् सिद्ध कि उनके भ्रन्तिम ग्रन्थ क्रमशः 'सांख्य॑सार' एवं योगसारसंग्र उनका शुद्धविवेक-विषयक प्रवन्व है 1१
'्योगसारसंग्रह' मेँ इस परिपाटी का परिपाक प्रतिफलित हग है । समग्र विवेक तथा विशाल भ्रनुभव की आधार-रिला पर हौ मोक्ष साधना कौ प्क्निया का ज्योतित प्रकाशा करनेवाले इस॒गन्थरलस्तम्भं का भव्य निर्माण किया गया है।
निरन्तर उत्कृष्ट कोटि के ग्रन्थप्रणयन करते रहने से श्राचायं की शैली का भी परिमाजंन हो चला था। उनकी वाणी की प्रभावोत्पादकता श्रौर नैसिगिकं ग्रोजस्विता में भी ्रयिकाधिक सतकंता श्रौर स्फीतता संक्रान्त हो चुकी थी। वागिवस्तार के लोभ में भी वांछनीय क्षरता ्रा गयी थौ । श्रत: उन्होने श्रपनी प्रौढतम मान्यताश्नो को सुरुचिपूां दौली में संकलित करते का संकल्प क्या श्रौर श्रपनी मौलिक विचारधारां को योगसारसंग्रह मे सन्तिविष्टि कर दिया है।
ग्रन्थ के श्रारम्भमेंश्राएु हूए तृतीय इलोक में भ्राचायं विन्ञानभिश्चु ने स्वयं ह संकेत क्या है कि योगवा्तिक के द्वारा सुलभ किए गए भ्रमृतरसधार काभी सार-भाग भ्र्थात् उसका भी उत्तमांश इस अरन्थकलश में मुमृषुमरो के पान करने के लिए सन्निहित किया गया है २ प्रक्रिया बताने वाले प्रथवा साधना की रीति वतानेवाले ग्न्य में केवल शस्नप्रमाण रौर अनुमानप्रमाण पर श्राधारित रहने से विषय का पूणं तथा संशयहीन प्रतिपादन नहीं हो सकता । योगवातिक कौ रना करते समय विज्ञान भिक्षु साधना के मागं पर्रारूढ हीथे उपतमा्गं को पार नहीं कर चुके थे।
पा जाचृका हैकि ह हं। सास्यसार
१. सांख्यसारप्रकरो विवेको बहर्वाएितः ।-- यो सा० सं° पृ ११२ २. वातिकाचलदण्डेन मथित्वा योगसारम् । ष उद्ध.त्यासृतसारोऽयं ग्रन्यकरुम्मे निधौयते ॥ ३ ॥--यो° सा० सं° मंगलाचरण ७७
७८ | आचाय विज्ञानभिष्षु
रतः तथ तक विवादास्पद स्थलों पर॒ शस्तरप्रमाणो एवं बुद्धि-बल के भ्नुमान तकं रादि उपादानों का ही उन्हे सहारा था । अ्रतः दो-टूक निणंय करनेवाली
शक्ति की कमी से उनकी लेखनी मे वह॒ सशक्तता उन्हे श्रपने श्राप में नहीं प्रतीत होती थी, जिसकी भ्रावश्यकता इतने महतत्वशाली, श्रनुभवसपिक्ष तथा जटिलशास्त का प्रतिपादन करने के लिए श्रनिवायं होती है । योगसारसंग्रह् लिखने के समय तक वे उस साधनामागे को पार कर चुके थे प्रौर एक जीवन्मुक्त कौ स्थितिमेंथे। उनके पास श्रनुभव का ्रक्षयय भण्डार हो गया था, श्रतः बड़ी सादगी श्रौर निविचिकित्सा के साथ वे विचारों का प्रतिपादन करने में समथे थे । जिन स्थलों को तात्कालिक विष्टज्जनों के द्वारा श्रथवा तत्काल-सुलभ-विष्ठल्लेखमाला के श्राधार पर संशयात्मकं समभा जाता था उन पर ्राचायं की भ्रनुभवात्मकग्रौर एेकान्तिक मति होती थी श्रौर उस मति की स्थापना करते समय वे कभी-कभी सस्वानुभवसिंद्वत्वाच्च'^ की घोषणा भी कर देते थे ।
उनकी धारणा थी कि , जितनी श्रावर्यक वस्तुएँ योगसाधना-सम्बन्धिनी हैँ उन सबका एक संक्षिप्त उपन्यास कर दिया जाय भ्रौर इस प्रकार से ग्रह॒ एक भ्रनिवायं ग्रन्थरत्न सब साधकों के पास रहे श्रौर उनके लिए श्रधिकाधिक उपादेय सिद्ध हो ।२ ग्रन्थ की परिसमासि के किचित्पूवे उन्होने यह स्पष्ट कहं भी दिया कि इसके भ्रतिरिष्त मोक्षमागं के पथिको के लिए योगदर्शन मे भ्रौर कुखं ज्ञातव्य हैभी नहीं ।
योगदर्शन ही उनकी दृष्टि में सर्वोच्च एवं सबका भ्राकर दर्शन? है । इसलिए
कदाचित् प्रपने ग्रन्थरचना-म्रभियान का मङ्खलमय पयंवसान वह॒ योगदर्शन के ही किसी ग्रन्थ कौ रचनाम करना चाहते थे। इसीलिए यह् उनकी श्रन्तिम तथा स्वेश्रेठ रचना साधको के लिए विनिमित हो सकी है ।
१. एवमेवासं्र्तातयोगेनापि भोगहेतुवासनारूपः कममणां सहकार्येवो- च्छिद्यते व्युत्थानसंस्काराणां निरोधसंस्कारोर्बलवत्तरेरुच्छेदस्य सुत्रभाष्या- भ्यामुक्तत्वात्स्वानुभवसिद्धत्वाच्च 1--यो० सा० सं० प° १४
२. योगजाल्लस्य साराथंःसंक्षेपेणायमीरितः । नातोऽधिको मुमृक्षणामपेक्ष्यो योगदर्शने ।॥--यो० सा० सं° पु° ११२
३. गद्धाद्याः सरितो यद्रदन्धेरशेषु संस्थिताः । सास्यादिदर्शनान्येवमस्येवारोषु कृत्स्नशः ॥ ४ ॥--यो० वा० मंगलाचरण
माचायं विज्ञानभिक्षु की रचनाएं | ७९
योगसारसंग्रह का स्वरूप
ह संग्रह श्रत्यन्त लघु प्राकारकाहै। प्रारम्भे मंगलाचरण के तीन इलोक हैँ उसके वाद सरल सुबोध एवं प्राञ्जल गद मेँ योगशास्त्रगत विषयों का सुक्ष्म प्राकलन किया गया ह । योगास्तर म स्वीकृत क्यि गये चारों पादों के ्राधार पर इस ग्रन्थ में भी प्रथमोंऽशः, दितीयोऽशः, तृतीणेऽशः श्रौर चतुर्थोऽशः नाम से चारमभागवक्यि गयेह।
प्रथम श्रं में समाधिपादगत विषयों का संक्षिप्त संकलन है । द्वितीय भ्रंश में साधनपाद-गत विषय श्रौर समाधिपाद के श्रवरिष्ट विषय जैसे चित के परिकर्म प्रादि संगदीत हैँ । तृतीय भ्रंश में संयमजन्य सिद्धियां विभूतिपाद तथा प्रारम्भिक कवल्यपाद के अ्राधार पर गिनायी गयी है । चतुथं रंश में कैवल्य १ पाद का श्राश्रय लेते हृए क॑वल्य में भ्रानन्द की कल्पना करनेवाले "नवीन वेदान्िब्र वो का सबल तथा संक्षिप्त खण्डन भी किया गया है । सभी श्रतिरिक्त दर्रनों के मोक्ष से श्रपने कंवत्य का श्रविरोव भी स्फुट किया गया है । २
इसके वाद उन्होने चतुर्था श मे (तदेवं कैवल्यं संक्षेपेण प्रतिपादितम् कहु कर छः शलोक लिखे श्रौर श्रपने भ्रेष मतवादों ॐ प्रकाशक स्वरचित ग्रन्थों का विवरण दिया । स्फोट तथ मनोवैभव श्रादि जिन विषयों पर किसी भी पूवेवर्ती ग्रन्थ में उन्होने श्रपनी लेखनी नहीं उठायी थी उनके विषय मेँ इसी चतुथं भ्रंश के चरम भाग मे संक्षिप्त एवं स।रात्मक विवेचन प्रस्तुत क्रिया हैर ।
ग्रन्थान्त मे योगशास्त्र के प्रति भ्रात्मीयता का सरक्त प्रदर्दान करते हए भ्राचायं विज्ञानभिश्चु शिष्यो के लिए यह् शिक्षा दे जाते है कि एसे ही श्रन्य भ्रवान्तरसिद्धान्त जो हम योगियों को मान्य है रौर सांख्थादि में प्रतिषि है
१. योगसुत्राणि-चतुरथपाद के १, २, ३, ४, ५ सूत्र ।
२. यत्त्, नवीना वेदान्तिन्न वा नित्यानन्दावाप्तिं परममोक्षं कल्पयन्ति तदेव च वयं न मृष्यामह ।--यो० सा० सं° पु २०९
३. अथ त्रिविध.......... ^.“ -----.^*"*विजेषात् ।--यो० सा० सं० पुर १०८,१०९
८० | आचायं विक्षानभिष्षु
सोपपत्ति सिद्ध समभने चाहिए? । इसके पश्चात् ग्रन्थ की परिसमास्ि हो जाती है । इस ग्रन्थ के भ्रन्त मेको इलोक नहीं हँ भ्रन्त में केवल यह् मिलतारहै कि समाप्तश्चायं ग्रन्थः" श्री भगवदपणमस्तु' । यह् उनका चरम ग्रन्थ है । कदाचित् इसकी रचना करके उन्होने चिरसमापि प्रहरण कर ली थी । सांख्यसार की दौनी पद्यमयी है जव कि योग्रसारसंग्रह में ग्य की ही प्रधानता है । यह् गद्य भी सीधा- सादा, सरल श्रौर सुबोध है ।
१. तेनाप्यसाधित्ःस्फोटशब्दो धौवेभवं तथा । सक्ष पात्साध्यतेऽस्माभिःसांख्यदोषनिरसतः ।--यो° सा०सं०पु० ११३
एवमन्येऽपि अस्मच्छाल्र-सिदन्ताः सा्यादिगप्रतिषिद्धाःसूबुद्धिभिरपपाद- नीया इति दिक् ।--यो० सा० सं० पु° १२५
ए्चनाभों की शैली
विज्ञानभिु श्रपने दार्शनिक मतवाद की निष्ठा स श्रोत-प्रोत मनस्वी लेखक थे । उन सांख्य, योग श्रौर वेदान्त इन तीनों प्रमुख श्रास्तिक दर्शनों के एक. मार्गाभिमूख सन्देश को विदरज्जनमानसपटल पर भरकित करना था । सोलहवीं शताब्दी तक वेदान्त-दर्शन कौ श्रनेक धाराएं भी प्रस्फुटित हो चुकी थीं जिनके भ्रलग-ग्रलग स्वरों की श्रलाप विविध स्थलों मँ गंज रही थी । दार्शनिक श्रौर धामिक दोनों दृष्टियों से वेदान्त जनमानस के श्रधिक सम्पकं मेंश्रागया था। कदाचित् इसीलिए दाशेनिक श्रौर धामिक दोनों दृष्टियों से मतमतान्तर का भ्राश्रय भी वेदान्त ही वना हुश्राथा। इस पृष्ठभूमि मेँ दोनों दृष्टियों से मत- मतान्तर का श्राश्रय ही वना हुभ्ना था । नियतिविघान के द्वारा प्रतिष्ठित विज्ञान- भिश्चु ने समन्वय की स्वरलह्री का कोमल राग छडा । सांख्य, योग श्रौर वेदान्त तीनों दनो के प्रतिपा्य तत्त्वों को श्रविरुदध ढंग से एकीकृत किया । तीनों का विरोधी भ्रंश त्याग कर तीनों के प्रमुख श्रौर सपरिहार रूपों का समन्वय प्रस्तुत किया ।
कायं नितान्त दुष्कर श्रौर प्रतिभपेक्षी था । तात्कालिक विद्वानों ने चकित होने के सारे चिल्ल प्रकट कयि होगे । उनमें से भ्रनेक ने विज्ञानभिष्चु की समभ भ्रौर सूत को ्रज्ञान का भ्रनल्पजल्पन भरौर किसी विक्षिप्त का प्रलपन कह कर तिरसछृत करना प्रारम्भ किया होगा । सांस्य, योग रौर वेदान्त तीनों की अरव तक की गयी व्याख्याश्रों के भ्रनुयायी विद्वानों ने एक स्वर से विज्ञानभिश्चु पर तीनों दशनो को न समभ सकने का तिरस्कारपूणं श्रारोप लगाना प्रारम्भ किया होगा । एसी स्थिति में विज्ञानभिष्चु ने इन तीनों शास्नों के मूल ग्रन्थों को चुना भ्रौर उन पर व्याख्ाएुं प्रस्तुत कीं, ताकि यह सिद्ध हो सके कि पूर्ववतिनी व्यास्पाएं सीधी, सरल ओर वास्तविक श्रथं की प्रकारिका नहीं टै श्रपितु सम्बन्धित व्यास्याताश्नों के दुराग्रह की सूतियां भ्रौर पूवर की प्रतिमाएं है । तात्कालिक पूवग्ररी विद्वानों को शान्त करने तथा उदीयमात जिज्ञासुग्रों को सन्मागं प्रददित करने के लिए भी यही मागं उन्द श्रेयस्कर समभ पड़ा होगा । एक बात इस प्रसङ्ग में भ्रविस्मरणीय है कि विज्ञानभिश्चु दानि चेतना के परिमार्जन में कत-संकल्प तत्त्ववेत्ता थे । भवितिभावना में भ्रामतविभोर भगवद्- भवत नहीं । उनका सन्देश वुद्धि-परीक्षणों के भ्रनन्तर सत्य का साक्षात्कार करने
फा०--६
८२ | आचायं विज्ञानभिश्च
कै लिएथा भावना के प्रतीक विन्दुभ्रो कीस्मृतियों में इषने श्रौर तिरने के
लिए नहीं । इसलिए उनकी समग्र रचनाश्रो का लक्ष्य-केन्द्र॒ सर्वसाधारण जन-
सम्मदं न होकर भारतीय दशंन-परायण-विद्रदगं था । उन्होने तात्कालिक ्रनुयायियों के लिए नहीं तात्कालिक शास््रप्रचारक गुरुप्रों के समाने के लिए अपने ग्रन्थों की रचना कौ । उन्होने विद्टज्जगत् का विशिष्ट वौद्धिकस्तर दृष्टि मेँ रखकर ही सारे ग्रन्थगत.तत्तवो का प्रतिपादन किया है । इसीलिए सारे रचना- काल में उन्होने संस्छृत माध्यम ही भ्रपनाया है, हिन्दी माध्य नहीं ।
व्याख्या ग्रन्थ गद्य में लिखे गए हैँ । योगसारसंग्रहु" नामक प्रकरणग्रन्थ भी ग्य में है । 'साख्यसार' नामक प्रकरण ्रन्थ का पूर्वाद्धं गद्य में ग्रौर उत्तराद्ध पद्यमें है 1 उनके गद्य श्रौर पद्यसरल तथा प्रभावपूणं संस्कृत के उत्कृष्ट नमूने है । नव्यन्याय की शली से पूर्णतया परिचित होने पर भी उनकी भाषामें
“ग्रवच्छेय-ग्रवच्छेयक-प्रवच्छिन्नः का जाल नहीं देखने को मिलता । न ही, श्राचारयं
वाचस्पति मिश्च की भांति शब्दगतानुप्रास-संवलित१ पदावली कौ योजना ही
उन्हें प्रिय लगी । वे बड़े सीधे ढंग मे, बड़ी सरल संस्कृत मे, बड़ी महेतत्वपूरं
वातं कहते दँ 1
उनकी सहज सरल संस्कृत परवर्ती ग्रन्थों में सरलतर होती गयी है । साख्यसारर श्रौर योगसार-संग्रह मे नितान्त सरल शब्द श्रौर भ्रत्यन्त छोटे वाक्यों का प्रयोग किया गयादहै। योगसार-संग्रहु मेँ तो समस्तपदोंका प्रायः श्रभाव ही है। जैसे “परं वैराग्यमुच्यतेः या इदानीमभ्यासस्यान्तर द्धसाघनं परिकर्मादिकमुच्यते' ५ इत्यादि वाक्य । जहां कहीं समास हैँ भी वे नितान्त स्फुट भ्रौर द्विपद समासदहीरहै। प्रारम्भिक ग्रन्थों में भी लम्बे-लम्बे समास श्रधिक नहींहै। जोर भी वे विलष्ट नहीं हैँ। इस प्रकार प्रसाद-गुण-सम्पन्न भाषा
लिखने में वे ्राचायं शंकर की समता सफलतापूर्वक करते हैँ ।
१. इह खलु प्रतिपित्सितमथं प्रतिपादयिताऽवेयवचनो भवति प्ेक्षाताम् 1 अप्रतिपित्सितमथं तु प्रतिपादयन् नायं लौकिको नापि परीक्षकः इति प्रक्षावद्भिर्मत्तवदुपेक्षयेतेति ।--सां० त० कौ० पु० ३ , तत्रन्यक्तं पृथिव्यादि स्वरूपतःपांसुलपादोहालिकोपि प्रत्यक्षतःप्रतिपद्यते ।
--सांत० को० पुष
२. विवेकमेव सद्. क्तया मत्वा तदनुभ्ुयते ।
राजयोगं यथा कुर्यात् समासेन तदुच्यते ॥।- सां सा० पृ९ ३६
द्रष्टव्य, यो० सा० सं० पु० २६
४. यो० सा० सं० पु २६
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आचाय विज्ञानभिश्चु को रचनाएं | ०८३
भाषा कौ प्रभावोतपादकता का उन्हं सदा व्यान! रहता है । उनके वाक्य मतमतान्तर का खण्डन करते समय बडे जोरीले श्रौर सीघी चोट करनेवाले होते हँ । इसीलिए 'शत' श्रौर "सहस्र" श्रादि शब्दों का वै बहुत भ्रधिक
प्रयोग करते हैँ । “योगग्रन्यसहस्राणाम्' १ या 'वाक्यशतेभ्यः'२ श्रौर श्रहं गौरः.
इत्यादि भ्रमशतान्तःपातित्वेन', “भ्रमशतान्तःपातित्वेनाप्रामाण्यशंकास्कन्दित- त्वाच्च शतशःसाधितत्वेन' ४ इत्यादि प्रयोग तो यत्र-तत्र विखरे पड़ है । खण्डन करते समय उनकी यह जोशीली दौली कभी-कभी उग्ररूप भीधारण कर लेती दैइपत उग्रता में वे विद्रञ्जनमर्यादा का उल्लंवन भी कर ज।ते थे । उदाहरणाथं शंक राचायं का मत-खण्डन करते समय वे वहुधा श्राधुनिकवेदान्तिनः' धवेदान्तित््ूवा', ्रच्छन्नवौद्ध :' “रपरे वनारिकाः' श्रौर यहाँ तक कि भुढाः' “शुष्कताकिकाः' "दिगभ्रान्ताः' भी कह जाते हँ ।६ उनके मत को तो एक स्थल पर विज्ञानभि्षु ने कलिकृतः श्रपसिद्धान्तः' भी कह डाला है ।७ इसी प्रकार £ सांय प्रवचन भाष्य' में एक स्थल पर सांख्यसूत्रवृत्तिकार श्रनिरुद्ध का मत खण्डित करते समव यत्तु करिचिदविवेकी वदति"< काभी प्रयोग किया गयाहै। यह निर्मर्याद श्रसदिष्एुता विज्ञानभिक्चु की्ंली का एक श्रपरिहायं दोष रहै फिर भी यह् एक एेसा दोष है जो कतिपय भारतीय दानिकों को छोड कर श्रन्य सव में पाया जाता है । यहां तक कि मध्व श्नौर रामानुज श्रादिके ग्रन्थ भीडइंस प्रकार के कटु वाक्यों से भरे पड़ेहै।
उनकी ली का सबसे महत््वपुणं वैशिष्ट्य उनकी श्रथंबोच कराने की तत्परता है 1 इसीलिए सिद्धान्तो का उन्होने विद्लेष णात्मक प्रतिपादन किया है । सिद्धान्त-गत शब्दों का शुद्ध श्रथं लेने के लिए वे प्रायः व्युत्पत्तिप्रधान शली भ्रपनाते हैँ । शब्दों की व्याकरणात्मक व्युत्पत्ति बताते हैँ जैसे 'वृत्तिवेतंनजीवने'
इति हि यौगिकोऽयं शब्दः । जीवनं च स्वस्थितिहेतुर्व्यापारः । “जीवबलप्राण-
१, यो० वा० पु० ४५६
२, यो० वा० प° १६१
३, सां० प्र० भा० पु° १५
४. सां० प्र° भा० पु ७०
५. वि० भा० पृ २४
६. सां० प्र° भा० यो० वा० अनेक स्थलों पर । ७. वि० भा० पु० २६
८. सां० प्र० भा० पर ९२
८४ | आचायं विज्ञानभिश्चु
धारणयोरित्यनुशासनात्'१ इन पक्षियों मे जोवन शब्द का प्युत्पत्तिनिमित्तके पर्थ निकाला गया है । एेसे ही जीव शब्द का प्रथं निकालने का प्रयास द्रष्टव्य है-- जीवबलप्राणनयोरितिब्युत्यत्या जीवत्वंप्राणित्वम् तच्चाहङ्कारवतामेव सामर्याति- शयप्राणधारणयोर्दशं नात् ।२ श्रहङ्कार शब्द का शुद्ध श्रथं लेने के लिए भी कुम्भं करोति इति कुम्भकारः" इतिवत्समासः--श्रहङ्कारोतीत्यह ङ्का रः" ° कुम्भकारवत् व्याकरण का श्राश्रय लिया गया है । इसी प्रकार से स्थान-स्थान पर (मध्यमपद- लोपीसमासः'* श्रौर /लम्बकंठवत्तदगुणसंविज्ञानो बहुब्रीहिः" (करणलक्षणं चात्र फलायोगव्यव च्छिच्चत्वम्" ६ “चितीसंज्ञाने इति व्युत्पत्या चेतनोऽत्राभिज्ञः° श्रौर “सर्वदैवनामधातुस्थले मूलघात्वर्थेन सहैव कारकाणामन्वयव्युलपत्तेः* इत्यादि वाक्यांश विज्ञानभिश्चु की व्याकरणात्मक शैली का परिचय देते ह ।
उनकी हैली की इस श्रथंप्रत्यायनप्रवणता ने उनकी रचनाग्रो मे (एकत्य का श्रनेकराःकथन', देशी शब्दों का प्रयोग' श्रौर "लिखितां का सारांश वार-वार देना" प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है । उनके प्रत्येक ग्रन्थ के मूलभूत सिद्धान्तो की पुनरुक्ति हर ४-६ पृष्ठ बाद श्राप से श्रापहोजातीहै। जैसे भ्रात्मा श्रखण्ड नहीं है, "यह वातः सांख्य-प्रवचन भाष्य के मङ्खलाचरण के प्रथम इलोक से प्रारम्भ होकर पूरे ग्रन्थ में वीसों बार कही गयी है । साहित्य प्रादि के ग्रन्थो में इसे बौली-दोष भले ही माना जाय किन्तु दाशंनिक-सिद्धान्त की स्थापना करनेवाले ग्रन्थों मे 'यह् दोष नहीं, भ्रपितु शिष्यव्युत्पत्ति की श्रपेक्षासे गुणी समभा जाता है । इसी प्रकार संकोच" “^टितिः१ ० (तुल्यायव्ययत्वम्"१ १ श्रथमदलाथंः' १ २ सिद्धान्तदला्थंः*१२ भ्रादि देशीय प्रभावों से परिपूरं शब्दों का प्रयोग भी उनकी दौली को जन-मन के सम्पकंमें
सां० प्र० भा० प° १४५ सां प्र० भा० प° १६५ सा० प्र० भा० प्रं ८३ सा० यो० बा० पु° २२०, २०२ यो वा० पणर
या० वा० पृ० २९
सा० प्र० भा० पृ० ८१ वि०भा० पु० २५
यो० वा० पु० १३१
१०. यो० वा० पृ० २३६ १९१९. सां०प्र० भण पु० १५३ १२. यो०वा० पु० णद
१३. सां० प्र° भा० प° १५७
० ॐ @ क ‰ @ ५ ५ ©
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | र्षु
लाने के कारण सबल ग्रौर लचीली वनाता है । प्रतिपादित श्रथं का सारांश देने की उनकी दो रीतियाँ हँ । 'विज्ञानामृतभाष्य', ससांख्यप्रवचनभाष्य' श्रौर “योगवातिक' मे अ्रव्यायों श्रौर पादोंके श्रादि में ग्म विगत श्रव्यायों ग्रौर | पादों के प्रतिपादित विषयों का संलिप्त उपसंहार श्रौर प्रतिपाद्य विषयों की | + सारवती सूचना वे स्पष्ट रोली में देते है । वीच-बीच में भी प्रतिपाद्य सिद्धान्त ८ का -संक्षेप मरे कथन करते जाते हँ १ पादां के भ्रन्त मेँ पूरे विषय का पुनः संक्षिप्त निर्देश सरल शलोको मे करना भौ वे नहीं भूलते । 2 प्रकरण ग्रन्थ में तो विषयों कासारभरूतरूपही दिया गया है । सांख्य श्रौर वेदान्त भ्यो मेँ तो पूरी शास्त्र- । प्रक्रिया ही संक्षिप्त शब्दो मे कह दी गयी है । इस प्रकार से विज्ञानभिश्चु के मन्तव्य के सम्बन्व में कहीं कोर वात संशयात्मक स्थिति में नहीं रह् पाती । जो कु उन्दं कहना था वह् उन्होने स्पष्ट-लूप से डके की चोट पर कहा है। उनकी सुबोध हौली के प्रभाव से उनके सिद्धान्त दपंण कौ भांति उज्ज्वल श्रौर प्रकारामान है|
उनकी व्याख्याग्रों का एक अरन्य वैशिष्ट्य है तकंपरायणता । वे एसी किसी बात को कहु कर इतिकर्तव्यता का श्रनुभव नहीं करते, जिसे किसी शस्त्र ने या किसी विशिष्ट ्राचायं ने वास्तविक या तात्विक मान रक्खा हो । उस वातत को वे तकं की कसौटी पर परखते हँ । उसके सम्बन्ध में श्रनुमानादि तर्कोके दवारा पणं निरीक्षण उपस्थित करते हैँ रौर तभी उसकी सत्यता को स्वीकार करते ट । किसी योग-संबंघी विप्रतिपत्ति पर तकां के साथ-साथ वे ्रपने मरनुभवों का पुट देकर भी उसे स्पष्ट भ्नौर तिरिचत करते हैँ ।२
दूसरा प्रधान गुर उनकी रोली का उनकी उद्धरणएप्रियता हे । श्र.तियो श्रौर समृतियों तथा पुराणों के लम्बे-लम्बे ओर छोटे-छोटे हर प्रकार के असंख्य उद्धरण उनके ग्रन्थो में भरे पड़ हैँ । किसी भी वात की प्रमाणिकता प्रदशित करने के लिए श्रुतिस्मृति-वाक्यो का उपयोग उनकी दौली का भ्रनिवायं अरङ्ग है । उनकी व्याख्याय प्रतिपृष्ठ एसे उद्धर्णो से भरी पडी हैँ । इससे उनकी रोली की शाब्दप्रमाणप्रवणता प्रकट होती है । किन्तु कहीं-कहीं इन उद्धरणों को प्रनावश्यक
१. प्रमाता चेतनःशुदधः इत्यादि ।- सां० प्र° भा० प° ४८ इत्यादि २. हियहाने तयोरहृत् इति व्यहा यथाक्रमम् चत्वारःशास्त्मुख्यार्था अध्यायेऽस्मिनप्रपञ्चिताः -सां० प्रा० भा०प्० ७० इत्यादि
३. स्वानुभेवसिद्त्वात् ।-यो० सा० सं० पु १४
८४ | आचायं विज्ञानभिश्षु
धारणयोरित्यनुशासनात्"१ इन पंक्तियों मे जोवन शव्द का व्युत्पत्तिनिमित्तके भ्रर्थ निकाला गया है । एेसे ही जीव शब्द का प्रथं निकालने का प्रयास द्रष्टव्य है-- जीवबलप्राणनयोरितिब्युत्पत्या जीवत्वंप्राणित्वम् तच्चाहङ्कारवतामेव सामर्थ्याति- शयप्राणधारणयोदंशंनात् 1२ ्रहङ्कार शब्द का शुद्ध श्रथं लेने के लिए भी (कुम्भं करोति इति कुम्भकारः" इतिवत्समासः--श्रह ङ्का रोतीत्यह दगा रः" ° कुम्भकारवत् व्याकरण का श्राश्रय लिया गया है । इसी प्रकार से स्थान-स्थान पर (मध्यमपद- लोपीसमासः'* श्रौर (लम्बकंठवत्तदगुरासं विज्ञानो बहुत्रीहिः * "करणलक्षणं चात्र फलायोगव्यव च्छिच्नत्वम्" ९ “चितीसंजञाने इति व्युत्पत्या चेतनोऽत्राभिज्ञः० भ्रौर “स्वदे वनामघातुस्थले मूलघःत्वर्थेन सहैव कारकाणामन्वयव्युत्पततेः" = इत्यादि वाक्यांश विज्ञानभिक्चु की व्याकरणात्मक शैली का परिचय देते है ।
उनकी हैली की इस श्रथंप्रत्यायनप्रवणता ने उनकी रचनाग्रो मे "एकतथ्य का श्रनेकशःकथनः', देशी शब्दों का प्रयोग भ्रौर "लिखितां का सारांश बार-बार देना" प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है । उनके प्रत्येक ग्रन्थ के मूलभूत सिद्धान्तो की पुनरुक्ति हर ४-द पृष्ठ बाद श्रापसे श्रापहोजातीरहै। जैसे भ्रात्मा श्रखण्ड नहीं है, ष्यह॒ वातः सांख्य-प्रवचन भाष्य के मङ्खलाचरण के प्रथम इलोक से प्रारम्भ होकर पूरे श्रन्थ में वौसों वार कही गयी है । साहित्य भ्रादि के ग्रन्थो में इसे लैली-दोष भले ही माना जाय किन्तु दार्खानिक-सिद्धान्त की स्थापना करनेवाले ग्रन्थों मे "यह् दोष नहीं, भ्रपितु रशिष्यव्युत्पत्ति की श्रपेक्षासे गण ही समभा जाता है। इसी प्रकार “संकोच “भटिति"१० तुल्यायग्ययत्वम्' ११ श्रथमदलाथेः" १ > सिद्धान्तदला्थः*१२ भ्रादि देशीय प्रभावों से परिपूरां शब्दों का प्रयोग भी उनकी हौली को जन-मन के सम्पकंमें
सां० प्र० भा० पु° १४५ साप्र° भा० पु १६५ सा० प्र० भा० परर ८३ सा० यो० वा० पु° २२०, २०२ यो वा० पुर्ण
या० वा० प° २९
सा० प्र० भा० प° ८१ वि० भा० प° २५
यो० वा० पु० १३१ यो० वा० पू० ३३६ सां० प्र भ० पृ० १५३ यो० वा० पृ० ८६
सां० प्र° भा० प° १५७
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1 ~, -। = ९1
आचायं विज्ञानभिष्ु कौ रचनाएं | ठप,
लाने के कारण सवल ग्रौर लचीली वनाता है । प्रतिपादित श्रथंका सारांश देने कौ उनकी दो रीतियां हँ । 'विज्ञानामृतमाष्य', स्सास्यप्रवचनभाष्य' ग्रौर “योगवातिक' में प्रव्यायों ्रौर पादोंके श्रादिमें गद्य में विगत श्रध्यायों ग्रौर पादों के प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त उपसंहार श्रौर प्रतिपाद्य विषयों की सारवती सूचना वें स्पष्ट हौली मे देते हँ । वीच-बीच में भी प्रतिपा सिद्धान्त का संक्षेप में कथन करते जाते हैँ ।१ पादो के श्रन्त मेँ पूरे विषय का पुनः संक्षि निर्देश सरल इलोको में करना भो वे नहीं भूलते । २ प्रकरण ग्रन्थ में तो विषयों कासारभूतरूप ही दिया गया है । साख्य श्रौर वेदान्त भष्यों में तो पूरी शास्व- प्रक्रिया ही संक्षिप्त शब्दों मे कह दी गयी है । इस प्रकार से विज्ञानभिश्चु के मन्तव्य के सम्बन्ध में कहीं कोई वात संशयात्मक स्थिति में नहीं रह् पाती । जो कु उन्दँं कहना था वह् उन्होने स्पष्ट-रूप से के को चोट पर कहा दै। उनकी सुबोध हौली के प्रभाव से उनके सिद्धान्त दपंण कौ भांति उज्ज्वल ओ्रौर प्रकादामान ह ।
उनकी व्याख्याग्रों का एक अन्य वैशिष्ट्य है तकंपरायणएता । 3 एेसी किसी बात को कहु कर इतिकर्तव्यता का अनुभव नहीं करते, जिसे किसी शस्त्र ने या किसी विशिष्ट श्राचायं ने वास्तविक या तात्त्विक मान रक्खा हो । उस बात कोवे तकं की कसौटी पर परखते हैँ । उसके सम्बन्ध मे श्रनुमानादि तर्कोके द्वारा पणं निरीक्षण उपस्थित करते है श्रौर तभी उसकी सत्यता को स्वीकार करते ह । किसी योग-संवंधी विप्रतिपत्ति पर तकं के साथ-साथ वे ्रपने भ्रनुभवों का पुट देकर भी उसे स्पष्ट श्रौर निरिचत करते हैँ ।९
दूसरा प्रधान गुण उनकी रोली का उनकी उद्धरणप्रियता हे । श्रतियों भ्रौर स्मृतियों तथा पुराणों के लम्बे-लम्बे प्रौर छोटे-छोटे हर प्रकार के ्रसंख्य उद्धरण उनके ग्रन्थो मेँ भरे पड़ हैँ । किसी भी वात की प्रमाणिकता प्रदशित करने के लिए श्रुतिस्मृति-वाक्यों का उपयोग उनकी दौली का भ्रनिवायं श्रङ्ग है । उनकी व्याख्याय प्रतिपृष्ठ एसे उद्धरणों से भरी पड़ी हँ । इससे उनकी दौलीकी शब्दप्रमाणप्रवणता प्रकट होती है । किन्तु कहीं-कहीं इन उद्धरणों को भ्रनावश्यक
१. प्रमाता चेतनःशुदधः इत्यादि !-सां० प्र० भा० प्रु ४८ इत्यादि
२. हेयहाने तयोर्हृत् इति च्यहा यथाक्रमम् । चत्वारःशास्त्रमुख्यार्था अध्यायेऽस्मिन्रपञ्चिताः ॥ -सां० प्रा० भार प्० ७० इत्यादि
३. स्वानुभवसिद्त्वात् ।--यो० सा० सं० पू १४
८६ | आचायं विज्ञानभिक्षु
विस्तार प्रदान कर उन्होने श्रपनी रौली की प्राञ्जलता पर कुठाराघात भी कर लिया है) चैनी का यह गुण यहां दोष बन जाता है । उनकी हौली एेसे स्थलों ¶र उपहासास्पदता की सीमा तक पहुंच कर दिखावापन से युक्त, पण्डितम्मन्यता से बोभिल श्रौर पुरातन-पन्थिनी प्रतीत होती है । कहीं कही यह दोष श्रौर प्रधिक मुखर हो उठता है जब वे इन उद्धरणों की भी लम्बी-चौड़ी व्याख्या भी वहीं पर देने लगते हैँ ।१ फल यह् होता है कि मुख्य सिद्धान्त का विवेचन गौण हो जाता है ।
शरुतियों के प्रतिरिक्त उनके उद्धरणों के श्राकर ग्रन्थ श्रीमदभगवद्गीता, मोक्ष घमं,२ वसिष्ठसंहिता,* मनुस्मृति,* भ्रनुगीता, न्यायवैेषिक्र, सांस्ययोग ग्रौर वेदान्त के सूव्र,° तथा ग्रन्य प्रनेक सूत्र ग्रौर स्मृतियां है । पुराणो की प्रामाणिकता के प्रति भी विज्ञानभिष्चु की भ्रसीम निष्ठा है ग्रतः स्मृतियोके ही समान वे पुराणों को भी यत्र-तत्र सर्वत्र उद्ध.त करते हँ । ्रन्य किसी भी भारतीय दशंन के व्याख्याकार ने पुराणों को ससम्मान इतनी विस्तृत योजना के साथ अ्रपने ग्रन्थों मेँ नहीं उद्धत क्या है । पुराणों में भौ विज्ञानभिष्चु की सर्वाधिक श्रद्धा कृूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, ११
यो° सा० सं० पु० ५० इत्यादि ।
यो° सा० सं० प° २७, २४
यो० सा० सं० पु २३ इत्यादि।
वि० भा० प° ४९
वि भाण 1, (1
यो० सा० सं० प॒० २३ इत्यादि)
सां० प्र° भा० पु० ३८, २९, २८ इत्यादि,
सां० प्र भा० पृ० २ इत्यादि।
सा० सा० पृ०२,१६,१७,१८ । यो० सां० सं० पु० २२, २३;
२४, ५७ । सां० प्र° भा० पृ० ३ ४०, ५१, ८०, ९०, १५४ यो०
वा० १३९; १६२, २१०, २४३. २५३, २७२, २८१; ४१५ वि°
भा० पु० ३७, ९७, ९९, १०१, १०९; ११२ १३६ इत्यादि 1
१०. सां० सा० पु० ५, १६ यो० सा० सं० पु० २२, २३ सां० प्र भा०प्० = यो० वा० पु० ठ वि० भा० पू० १३० १३४ इत्यादि ।
११. सां० प्र° भा० पु० ८३, यो० वा० पृ० ५८, ५९
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आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ८७
गरुडपुराण, १ विष्गुपुराण,२ माकंण्डेयपुराण, * नारदीयपुराण,४ भागवतपुराण, ४ पद्मपुराण. तथा लिङ्खपुराण पर है क्योकि अ्रधिकतर इन्हीं के लम्वे-चौड़े उद्धरण नामनिर्देश पूर्वक भ्रनेक स्थलों पर दिये गये है । यद्यपि इस प्रकार की शैली में पण्डितम्मन्यता श्रौर वहल्ञता.प्रदशेन की भलक मिलती है, तथापि सांख्ययोग श्रौर वेदान्त-सिद्धान्तों के समन्वय का मूल पोषण इन पुराणो से ही प्रारम्भ होता है । इस कारण विज्ञानभिष्षु को श्रपने मत के समर्थेन मे इन पुराणो को उद्धत करना न केवल स्वाभाविक दै, परव्युत प्रनिवायं भी था । समन्वथ की कटिया पुराणों मँ ही प्रस्तुत होने लगी थीं । श्रतः आस्तिक दर्शनों के समन्वय के किसी भी परवर्ती प्रयास का मूलाघारये पुराण ही बन सकते थे। इस प्रकार १६ वीं शताब्दी कौ धार्मिके जनता मेँ अ्रषने सिद्धान्तो को प्रचारित करने के लिए पुराण ्राप्य-पोप से उन्हे वंचित रखना विज्ञानभिष्चु की भूल ही होती ।
उनकी रोली के एक ग्रौर उक्कृष्ट विष्टर की श्रोर इद्त करना भी ग्रप्रा- सद्धिक न होगा । वह् वशिष्टत्र प्रतिपक्षखण्डन के श्रवसर पर दिखायी पड़ता है 1 ह्म इसे दौली की (संवादात्मकता" नाम दे सक्ते हैँ। इस दौली में लिखे गये
१. द्रष्टव्य-यो० सा० सं० पृ० ३८, ३९ सा० प्र° भा० प° १०२, ११५, यो० वा० पु० ८३, १३७ १४८, २८१३ २८२, २९४, २८६, २८७ । वि० भा० प°
२. द्रष्टव्य--सां० सा० प° १३, १५ यो० सा० सण पु० ६१, १००। सां० प्र० भा० प° ४, २३, ३५, ३९, ५५ ६०, ६३, ७२, ११७, १५२, १५३, १५५ यो० वा० पृ २०) ३५, ६२, ७३, ठ४, १६५, १७७, २०३; २०७, २५३, २६९, २७७ ३११, ३४२. ३४३, ३८९, ४१५, ४१७, ४४९ । वि० भां० पुर ७, ३७, ६० इत्यादि ।
३. द्रष्टव्य-सा० प्र भा० पु० ३८, ११८ । यो० वा० पु० १७) २५९, २७१ । वि० भा० पु० ९९ ।
४. द्रष्टव्य--यो० सा० सं० पु० ६६; ७३, ७९, सां० प्र० भा° पृ १११, यो० वा० पु० ६७, ८७ ३४३ वि० भा० प° १२२;१३४ इत्यादि । ध
५. द्रष्टव्य, सां० प्र भा० प° रे यो० वा० पु० २५४, वि भा० पु० १२३ इत्यादि ।
६. द्रष्टव्य, सां० प्र° ना० पुर ४
७, द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ८५, वि० भा० पु० १४८ इत्यादि ।
८८ | आचायं विज्ञानभिक्षु
स्थलों का विषय श्रांखों के सामने ्रभिनीत सा होने लगता है। उनके भाष्य ग्रन्थो रौर वातिक मे इस दरौली के भ्रनेक नमूने देखने को मिलते हैँ । इन्द पटने १ पर लगता है कि विन्ञानभिष्ु प्रत्यक्ष-उपस्थित प्रतिपक्षी की खबर ले रहे हैँ । इस विशेषता के कारण रौली की सजीवता वहुत श्रधिक बढ जाती है ।
उद्धरणों के प्रसद्ध में एक बात कहने को रह ही गयी कि विज्ञानभिक्ु केवल दानिक या धामिक श्रन्थोका ही सहारा नहीं लेते वरन् कालिदासः श्रौर माघः जसे साहित्यिक धुरन्धरों को स्वनाग्रों में भी अ्रपनी उक्तियों का समर्थन दृढ लेते हैँ श्रौर तत्सम्बद्ध पंक्तियों को उद्धृत कर देते हैँ । संक्षेप में उनकी व्याख्या-दौली में संक्षितता, सजीवता, सरलता, सप्रमारोक्ति, सुबोधता, सुरुचि- पणंता ्रादि सभी एेसे गुण उपस्थित हँ जिने कि उनके ग्रन्थ भारतीय दर्शन में सदा मटान् ्रादर कौ दृष्टि से देवे जा्येगे |
१. “भायतं मा्गेए--सां० प्र० भा० पु० २३
२. "विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीइवरेच्छ्या । यो० वा० पुर २१३ पर उद्धत ।
३. बुद्ध भोग इवात्मनि" ।- सां ० प्र° भा० पु० ५८ पर उद्धत ।
द्वितीय पटल
| सिद्धान्त-संकलन |
ध्यायथ १
आचाय विज्ञानभिक्तु के दशन की रूपरेखा
@ ~ (७ गि प्र प्र >>> तिज्चानमिक्ष् क दशन की आषारमित्नि 9
भ्राचा्यंविज्ञानभिष्चु॒निष्ठावान् आस्तिकं थे। वेदों पर उन्हे भ्रमिट. विशवास श्रौर अ्रटूट श्रद्धा थी । वेदों पर मूलतः श्राधारित स्मृतियों तथा उनसे भ्रनुप्राणित पुराणों ने भी उन्दं एक महनीय सीमा तक प्रभावित श्रौर प्रेरित क्याहै । वेद, स्मृति ग्रौर पुराणरूपी श्राषं-घरोहर का प्रतिफल हमे उन दाशंनिक विचारधाराग्नों के रूप मे मिलता है जिन्हं हम “भारतीय श्रास्तिक- दशेन' नाम देते हैँ । मोक्षमार्गे की उपादेयतां के दृष्टिकोण से वेदान्त, सांख्य मरौर योग इन श्रास्तिक दर्ंनों मे श्रविक प्रसिद्ध श्रौर परशं माने गये है । यद्यपि इन तीनों शास्वों के प्रपने-ग्रपने विशिष्ट संदेश है, भ्रलग-ग्रलग मान्यताएं है, श्रौर म्रनेक प्रसंगो में परिस्फुट मतभेद भी है, तथापि मूलाधार को ्रभिन्नता, प्रयोजन की एकता श्रौर सफलता की समानता के कारण विज्ञानभिश्चु ने तीनों द्शन-
परम्पराग्रो मेँ एक ही सतत भरक्चमान तथा सर्वथा श्रविकरद्ध सत्यका साक्षाक्तार क्या है ।
यही तीनों दाशंनिक सिद्धान्त उनके दाशंनिक मतवाद के मुल केन्र है । उनके सिद्धान्तो का भव्य भवन इन्दी के सामञ्जस्य पर विनिर्मित है । यद्यपि ये तीनों दार्शनिक धारयेः उनकी दष्टि में भी अ्रलग-प्रलग मोक्ष प्रासि के साधन के रूप मे श्रमोघ श्रौर पर्यस्त है तथापि तीनों का समन्वय, जो उनका दार्शनिक मतवाद कहा जा सकता है-सुगम, सरल, रोचक श्रौर सद्यः फलदायी होने के कारणा ्रधिक श्रेयस्कर है । इस समन्वय के प्रति उनकी निस्सीम श्रास्था है । दाशेनिक सिद्धान्तो का प्रतिपादन करते समय स्वेत वे इस समन्वय के लिए जागरूक हँ । इस प्रकार से इन सिद्धान्तं की संवलित त्रिवेणी का सद्घमदही उनके दाशेनिक मतवाद का केन्द्र-चिन्दु है 1
समन्वय की प्रवृत्ति ठ कौन-सी भ्रावरयकता, प्रान्तरिक या बाह्य थी जिसने विज्ञानभिश्चु को
इन तीनों दर्शनों में समन्वय की दष्टि रखने को प्ररित किया । विज्ञानभिश्च प्रधानतः योगी थे । योग श्रौर सांख्य का तात्विक या वैचारिक स्तर श्रधिकांशतः
आचाय विज्ञानभिक्ष के देन कौ रूपरेखा | ९३
प्रभिन्न प्रसिद्धही है)? इसीलिए वै सांस्य-योग-पिद्धान्तों के मुववः श्नुयायो रहे । १६ वीं शतानव्दी का समय दशनं की ख्याति कौ दृष्टिसे दान्तान युग था 1 भरतः वेदान्त के प्रभावों से उस समय श्रपने को प्रहता रखना किसी भी मनीषी के लिए न केवल भ्रपम्भव था श्रपितु जनमत से वैचारिक-सम्पकं-गून्यता काहेतु भी वन सकता था । इस कारण वेदान्त का पारायण श्रौर उसको रिक्षा भी विज्ञानभिचु के लिए श्रनिवायं रूप से ग्राह्य थी। वेदान्त-धाराशरौ मं भी प्रतिष्ठा दाशंनिक स्तर पर श्रदैतवेदान्त की ही थी। वेदान्त-ूत्रो में सास्य भ्रौर योग के प्रति तोत्र उपेक्षा उपलब्ध थी।२ शङ्कुर प्रादि भाष्यकारो नै तो इस गूढ उपेक्षा को भ्रधिक कटुतर एवं स्पष्टतर वना दिय! था । विज्ञानभिचु के सामने एक विकट समस्या थी कि शाङ्कुरवेदान्त के प्रभविष्छरु संस्थान के समक्ष वे श्रपने ग्रभीष्ट सांख्य-योग-सिद्धान्वों की वलि चढा दं श्रथवा शाङ्कुरवेदान्त को श्रपने प्रौढ तर्को से जजर करने का यत्न करं ।
इसमे से पहली बात तो उनके स्वभाव के विरुद्ध थी, सवंथा अ्ररुचिकर थी, श्रतः उ्तके लिए स्वधा ्रग्राह्य थी । रही दूसरी बात । उसमें कठिनाई यह थी कि योगभाष्यकार बादरायण व्यास को विज्ञानभि्षु वेदान्त-सूत्र का कर्ता समभते थे ।* बादरायण व्यास के वेदान्त-सू्ो पर भला अरब वे कंसे उंगली उठाते । इस श्रभिन्न-कतूं कत्व ॒के विरवास से उन्हे संदेह का कोर भ्रवकार ही न रह गया । कदाचित् पुराणों के प्रति उनकी प्रथित श्रास्था का भी यही कारण
१. सांख्ययोगौ पुथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।--गीता ५।४ यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगे रपिगम्यते ।-गीता ५।५ २. स्मृत्यनवकाडदोषप्रसद्धः इति चे्ान्यस्मूत्यनवकाशदोषप्रसङ्खात् । --त्र० सु° २।१।१
एतेन योगः प्रत्यक्तः । - ब्र सु° २।१।३ ३. अतश्चसिद्धमात्मभेद-कल्पनयापि कपिलस्य तन्त्रवेदविर्द वदानुसा।र-
मनुवचनविरद्ध' च न केवल स्वतनतरप्कृतिकल्पनयेवेति ।- त्र° ° शां० भा० पुर ४४३ एतेन सास्यस्मृतिप्रत्याख्यानेन योगस्मृतिरपिप्रत्याल्याता द्रष्टः त्यतिदिाति ।- त्र० सू० शां० भा० प° ४४४
४. स्ववेदा्थसारोऽत्र वेदव्यासेन भाषितः ।
योगभाष्यमिषेणातो भसुक्षूणामिदं गतिः ॥-यो० वा० पृ०३
९४ | आचायं विज्ञानभिक्षु
थाकि पुराणों के कर्ता भी उनकी दृष्टि में यही व्यास थे। इसलिए उन्होने सांख्ययोग के विरोध का उत्तरदायी वेदान्त-सूव्र॒को नहीं, श्रपितु उस पर किये गये भाष्यों को ही ठह्राया श्रौर उनकी भर-पेट भत्संना श्रपने ग्रन्थों में कीहै।
सांख्य, योग श्रौर वेदान्त सिद्धान्तो के समन्वय कौ इस विशेष प्रेरणा के भ्रतिरिक्त उनके मस्तिष्क में इस समन्वय का एक श्रन्य साधारणकारण भी सदा समुपस्थित रहा होगा । वह् है उनका यह सोचना कि सभी शास्त्र, जो भ्रास्तिक हैँ, वेदों परं श्राधारित हँ तथा श्रात्मा के भ्रस्तित्व में विद्वासं रखते 9 उनका प्रणयन महर्षियो ने किया है ग्रौर उन सवका श्राधार केवल श्रतिर्याँ ही है । श्रतः सांख्य, योग, वेदान्त, मीमांसा, न्याय श्रौर वैशेषिक छं दर्दान श्रविरुद श्रौर परस्पर संगत होने चाहिए ।१ किन्तु मीमांसा, न्याय श्रौर वैशेषिक मुख्यतः केवल चिन्तन, मनन की दौली के प्रतिपादन मे दत्तचित है, श्रतः परमाथ भूमि पर उनके विचार केवल इद्कखित मत्र, विस्तृत श्रौर सांग विवेचन के साथ प्रस्तावित नहीं हुए हैँ । ्रतः न्याय, वैरोषिक को परमाधथिक स्तर पर विज्ञानभिश्चु ते बाधित या म्रनुपयुक्त बताया है ।२ किन्तु इन दर्शनों को भी भ्रान्त या विरोधी कहीं नहीं ठहराया है 1 इस प्रकार से यद्यपि पारमार्थिक तत्तवविचार की दुष्टि से उनक्रा समन्वयवाद सांख्य, योग श्रौर वेदान्त तकं ही सीमित है। परन्तु इस शुदध-समन्वय को समथेक बृहत्तर सीमाएं न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा इन तीनों श्रास्तिक् दर्शनो, स्मृतियों श्रौर पुराणों तक प्रसृत रहै । इनकी रचनाश्रों के प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर इस विशाल समन्वय-सागर की तरे र्लोकों श्रौर पंक्तय के उद्धरण के रूप में दीख पड़ती हैं ।
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१. आषंज्ञानानि सर्वाणि वेदान्तानां कलाः स्मृताः । शरृत्यवान्तरवाक्यानामूते नास्ति ट्यसङ्खतिः ।।--वि० भा० पु० ९०
२. न्यायवेशेषिकोक्तज्ञानस्य परमारथभरमौ बाधितत्वाच्च ।- सां० प्र भा० पुर
३. न चैतावता न्यायादप्रामाण्यम । विवक्षितार्थे देहाद्यत्तिरिक्तकोे वाधानावाद् यत्परः शब्दः स शब्दाय: इति न्यायात् ।-- सां० प्र भाः पु° र
सम्रन्तय का स्वरूप
समन्वय की प्रने रतिर्या हो सकती है| जिन वस्तुनो का समन्वय किया जाता है उनमें से किसी को प्रवान मान कर उसी के ्नुकूल शेप वस्त्रों को बना लेना एक रीति है । दूसरी रीति यह हो सकती है कि समन्वीयमान वस्तु में से प्रत्येक में प्रधान तत्तव सुन-चुन कर गौण वातो को चोड दिया जाय । इसी प्रकार समन्वय की भ्नन्य रीति्यां हो सकती हँ। भले ही समन्वय की सफलता मरौर निर्दौपता की दृष्टि से कोई एक दौली अन्य रतिया की श्क्षा प्रचिकं ग्राह्य हो । विज्ञानभिश्चु ने सांख्य, योग ग्रौर वेदान्त शास्रं का समन्वय जिस रूप मे प्रस्तुत किया है वह यहं पर विवेचनीय है। इस समन्वय में उन्हे कितनी सफलता मिली है इस वात का विचार हम समीक्षा वाते मरघ्याय में करेगे
विज्ञानभिश्च ने तीनों समन्वीयमान दर्शनों पर भाष्य या वातिक लिखा दै, भ्रौर तीनों दर्शनों में पूणं श्रात्मीयता तथा भ्नुभूति की दृष्टि रखी है । तीनों दानो के लिए उन्होने अ्रनेक स्थलों पर श्रस्मच्छोस्तर ्रस्मन्मते", स्वारा" इत्यादि पदों से श्रभिहित किया है । तीनों शास्र उनके श्रपते है । तीनों उनके लिए प्रधान हँ । उनका सूल विवास यह् है कि जिन ऋषियों ते ्रुतियों ऊँ प्राधार पर तथ्यों का प्रतिपादन क्रिया है वे सभी दिव्यदष्टि वते तया ऋतम्भराप्रज्ञा-पुो थे । ग्रतः उनक्री बाते न तो श्रान्त हो सकती है प्रीरन ही परस्पर विरोधिनी । उनकी यही निष्ठा उनके समन्वय-सिद्धन्त का वीन-मन है । इन शास्त के सिद्धान्त ्रापाततः परस्पर विरोधी प्रतीत होते है । पववत भयित व्यास्य ताभ ने साख्य, योग शौर वेदान्त के मतभेदो को शरीर अविक वदा चदा कर प्रतिपादित भी किया था । इस समस्या का समाधान सवंप्रथम उन्होने सस्थप्रचनभाष्य की प्रारम्भिक पंकतर्यो मँ कर देना नितान्त उचित समभा श्रौर बड़ सुरुचि रोली में तीनों शास्र का विशेष स्प मेँ प्रर सभी शरास्तक शास्म का सामान्य रूप से भ्रविरोष प्रतिपादित किमा है ।२ ~ ५ १. द्रष्टव्य - सां० प्र° भा० पु० १७, यो० सा० सण पुण १२५; वि० भा० पु० ७३ इत्यादि । त ११ २. तस्मादास्तिकशास्त्रस्य न कस्याप्याप्रामाण्य सरदेषाम् अबाधात् अविरोधाच्चेति ।-सां° प्र° भा° १० ^
९६ | आचायं विज्ञानभिक्षु
इस समाधान से एक नयी समस्या उठ खड़ी होती है । यदि तीनों शास्तों मे विरोध नहीं है श्नौर तीनों शास्त्र दर्शन विषयके ही हैँ तो तीनों मे केवल एक बात की ही पुनरुक्ति हई होगी । दर्शन जैसे विषयमे तथ्यकाही मूल्य होता हैनतोभाषाकी भ्रालडःकारिकता का उसमे कोई विशेष महत्व है श्रौर न उसमें कलात्मक नवौनता के ही लिए कोई गुञ्जायश है । फिर श्राखिर एक ही सत्य को सांख्य, योग ॒श्रौर वेदान्त--इन धाराश्रों मेँ ढालने की पिष्टपेषण- परायण प्रवृत्ति महषियों ने क्यों दिखायी होगी ?
इस समस्या का समाधान सरल प्रौर सीधा है। विज्ञानभिक्षु का कहना है तीनों शस्त्रो के प्रतिपाद्य विषय भिन्न-भिन्न हँ । यद्यपि तीनों शास्त्र का स्तर पारमार्थिक है फिर भी पारमाथिक स्तर पर ही विषय-भेद है । उनके मत मे न्याय, वैशेषिक (मीमांसा भी) व्यावहारिक स्तर के विषयों का तत्वज्ञान उपस्थित करते हँ इसलिए ॒पारमाथिक स्तरवाले सांख्य, योग श्रौर वेदान्त से उनकान तो कोई विरोध है, न पुनरुक्ति है श्रौरन ही न्यायादिकों की श्रप्रामाशि- कता है क्योकि यत्परः शब्दः स शब्दार्थ यह् नियम है । प्रत्येक शास्त्र मे जो गौण विषय हैँ उनके सम्बन्व मेँ तीनों शस्त्ोंके जो मतभेद हैँ विज्ञानमिष्षुने उनका स्पष्ट उत्लेख उचित प्रवरो पर निस्संदेह किया है, किन्तु उन श्रांशिक मतभेदों के कारण समूचे शास्त्र से विरोध मानना उन्हँ स्वीकार नही है । जैसे सांख्य की निरीरवरता श्रौर सांख्य योग का स्वतंत्र-प्रधान-कारणतावाद प्रादि सिद्धान्त योग श्रौर वेदान्त से विरद ह| उन श्रंशोंको विज्ञानर्भश्चुने त्याज्य बताया है प्रौर उन भ्रंशो मँ सांख्य को उन्होने दुबल भी कहा है । भ्रतः श्रंख मूंद कर उन्होने समन्वय नहीं किया 1 श्रपि तु त्याज्य भ्रंशो का परिहार करते हुए उन्होने तीनों शास्त्रों का मौलिक सामज्जस्य प्रदश्चित्त कियाहै। श्रतः व्यावहारिक तत्त्व-ज्ञान में न्यायादि की प्रामाणिकता म्रुण्ण भ्ौर संदेहातीत है ।२ पारमाथिक स्तर के दर्शनों के प्रतीयमान विरोधो के सम्बन्धं मे विज्ञानभिश्चु का मत, कि वेदान्त में प्रवान विषय 'ईङवर श्रथवा ब्रह्म है, सांख्य का मुख्यः
१. न चेतावता न्यायाद्यप्रामाण्यं चिवक्षितार्थे देट्याद्यतिरिक्तांरे बाधा- भावाद् ।-सां० प्र° भा० पु०ठ
२. द्रष्टव्य, सां० प्र भा० पृ० १ द्रष्टव्य, वि० भा० प° ३३-३५ । किञ्च ब्रह्ममीमांसायाः ईदवर एव मुख्यो विषय उपक्रमादिभिरि घृतः ।} -सां० प्र० भा०प्०३
माचायं विज्ञानभिक्षु के दन कौ रूपरेखा | ९७
विषय '्रकृतिपुरुषविवेक? हैश्रौर योग का प्रधान विषय प्रकृतिपुरूषविवेक को उतपन्न करनेवाला तथा उससे उत्पन्न होनेवाला श्विविघ-योगः है । इन तीनों में से प्रत्येक शास्त्र के इन प्रघानप्रतिपा्य विषयों की पारमाथिक पृष्ठ- भरमि में वे तत्त्व भी गौरा रूपसेश्रा ही जाते हँ जिनका विवेचन तदतिरिक्त दो शास्त्रों में प्रषान तत्व के रूप मेँ हुम्रा होता है । यह् सम्भव नहीं है कि इन गौण तत्त्वों की चर्चा लाये बिना भ्रपने-ग्रपने प्रघानेप्रतिपाद्य विषय का विवेचन इनमे से कोई शास्व कर सके, क्योकि ब्रह्म का वंन बिना प्रकृति, जोव श्रथवा विवेक की पृष्ठभूमि के संभव नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानजनक श्रौर ज्ञानजन्य योग का निवंचन भी ज्ञान के ज्ञं यभूत ब्रह्य, पुरुष श्रौर प्रकृति की पृष्ठभूमि के विना सर्वथा असम्भव है । इसलिए ॒विज्ञान- भिदु की दृष्टि मेँ परमां भूमि के लिए भ्रनिवार्यतः उपयोगी इन तीनों दर्शनों की न परस्पर विरोधिता है, न श्रप्रामाणिकता है, न पुनरुक्ति हैश्रौरनही निरथ॑कता है । प्रत्युत एक दूसरे के प्रति पूरकता है । पूणंज्ान की प्राप्ति तीनों दर्शनों के सेवन से ही सम्भव है । उनके दर्शान-क्षितिज पर यदि सांख्य एकान्तिकि साधना का सहारा प्रस्तुत करता है, तो वेदान्त उस एकान्तिकता को सार्व- भौमिकता कौ विराट् पीठिका पर उतार कर मुक्ति-साधना का मां प्रशस्त करता है । योग दोनों प्रकार के संद्धान्तिक निर्देशों की क्रियात्मक प्रस्तावना है \ चाहे निरीर्वर सांस्य-साधना हो भ्रथवा सेश्वरवेदान्त-साघना दोनों को योग के घरातल पर उतरना ही पड़ता है । क्योकि तदापादित सम्प्रज्ञात योग॒ के विना ज्ञान या विवेक की उत्पति संभव नही श्रौर ज्ञान के विना मुक्ति कहां ?४ श्रत विज्ञानमिश्ु की दृष्टि में योगशास्त्र सवसे भ्रधिकं महत्त्वपुणं ॒है ।४ बिना उसके
१. सांख्यदात्तरस्य तु पुरुषा्थतत्साधन-्ङृतिपुरुषविवेकावेव मुख्यो विषयः ! -सां० प्र० भा० पू० ४
२. ब्रह्ममीमांसासांस्यादिषु च ज्ञानमेव विचारितं बाहुल्येन ज्लानसाधन-
मात्रस्तु योगः संक्षेपतः ज्ञानजन्ययोगस्तु संक्षेपतोऽपि तेषु नोक्तोऽतोऽति-
विस्तरे द्विविधम् योगं प्रतिपिपादयिषुभेगवान्पतञ्जलिः रिष्यावघाना-
यादोयोगानुशासनं शास््रमांरम्यतया प्रतिज्ञातवान् ॥--यो० वा० पु०५
तथासंपरज्ञातयोगे............... इति सुत्रेण ।--वि० भा० पु०६
ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः !- ऋग्वेद
५. गङ्खाद्याः सरितो यद्वदन्धेरशेषु संस्थिताः । ॥ सांख्यादिदर्शानान्येवमस्येवाशेषु कृत्स्नशः ।॥--यो० वा० प्०३
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९८५ | आचायं विज्ञानभिक्षु
सास्य भ्रौर वेदान्त दोन प्रकार की सावनाएं निष्फल ही होगी । कदाचित् इसी कारण से उनकी श्रद्धा सब ग्रन्थों से श्रधिक "योगसूत्र श्रौर योगभाष्य' पर ही परिलक्षित होती है । किन्तु इससे उनके समन्वय-सिद्धान्त में लेशमात्र भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडता । किसी भी सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए वै भ्रन्य दो दर्शनो मँ श्राये हए उस प्रसंग के सिद्धान्तो का उल्लेख करते हए समथेन करते हँ । इस प्रकार से तीनों शास्र उनकी दृष्टि मेँ एक विराट् चरम सत्य के विभिन्न श्रद्धां के पारमाथिक व्याख्यान हँ, जिनमें पारमाथिक भ्रभिन्तता, परस्पर पुरकता श्रौर एकनिष्ठा है ।
न.
त्गीं गी री £ करण की रीति
इस समन्वयात्मक दुष्टि के फलस्वरूप विज्ञानभिष्ु के दार्शनिक सिद्धान्तो का साक्षात्कार तत्तद्-विषयों के प्राधान्य के श्रनुसार वेदान्त, सांख्य श्रौर योग तीनों शास्तों के व्याख्या-प्रन्यों में होता है । परमाथंभूमि के सभी तत्त्वों का पुरं विवेचन किसी भी एक शास्त के ग्रन्थ में उन्होने मुखप रूप से नहीं किया । जिस शास्त्र का जो मुख्य प्रतिपाद्य है उसका उस शास्त्र मे विशद एवं विस्तृत विवेचन किया है ।* यद्यपि भ्रन्य विषयों का भौ जो भ्रन्य शस्त्रो में प्रषान किन्तु उस शास्त्र मेँ गौण है--वणंन सम्बन्वित भ्रवस्था में उन्दोने उस स्व मेँ भौ किया है, किन्तु वह संक्षिप्त रीति से। इस प्रकार यद्यपि उनके सांख्य, योग रौर वेदास्त सभी ग्रन्थों मेँ भ्रलग-प्रलग भी उनके पूरे समन्वित दर्दान की फलक मिल जाती है तथापि।उसको पूरी भांकी देखने के लिए विषय- ्राघान्य की दृष्टि से ही उनके तीनों शास्तर-ग्न्यों का श्रनुलीलन करना समीचीन नौर श्रेयस्कर होगा भ्रौर तभो उनके मतवाद के सम्बन्ध मे निविचिकित्सित भ्नौर निभ्रन्ति ज्ञान सुलभ होगा ।
किसी दार्होनिक के सभीं सिद्धान्तो को प्रस्तुत करने के लिए भराजकल प्रायः यह् दौली भ्रपनायी जाती है कि विषय को चरमततत्वमीमांसा, संसारमीमांसा,२ प्रमाणमीमांसा, मनोविज्ञान,“ श्राचारशास्त्रः भ्रादि विभागों में बांट कर भरस्तुत किया जाता है । भ्रौर उस दानिक के भ्रनेक ग्रन्थो से इस विभाजन के प्रनुरूप सामग्री खट-छँट कर उपस्थित की जाती है । विज्ञानभिष्वु के सम्बन्वमें भी
१. व्यवहारे वयं योगाः तत्वर्षाड्वशगोचरे । भेदस्तुवीक्षयते बालेरूपासावाक्यमोहितेः पु प्रकृत्योविविकेन जीवत्वेशवयं बाघतः । चितिमात्रेकरूपात्मवादे सांख्यार्च याहशाः ॥ महाप्रलयकालीनं ब्रह्य तं तदात्मता । ब्रह्मणःसृष्टिरित्यादि चास्माकमधिकं मतम् ।--वि°भा०प्० ८९९०
२. 0पागण्् ३. (1050010४ ४, 01567000 ५. 5५०0४ ६. 2111105
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१०० | आचायं विज्ञानभिक्षु
यही रीति श्रपनायी जा सकती दै; किन्तु उनके सिद्धान्तो का स्वरूप प्रस्तुत करने में एक अरन्य दौली श्रधिक ग्राह्य, उनकी दृष्ट में प्रत्येक शास्त भिन्न विषय का प्रतिपादक है । इसलिए वेदान्तशास्त्र के ग्रन्थों मे उनके ब्रह्म, जीव, मायाः जगतप्रपञ्चः सम्बन्वी विचारः ह । सांख्यास्न कै ग्रन्थो में उनके प्रमाण, पुरुष, प्रकृतिः; भ्रविद्या, सम्बन्धी विचारः ञ्रौर योगशास्त्र के ग्रन्थों मे साधना के मागं, योगके रूप, योगज-सिदिर्या, मन की स्थिति रादि विचार? प्रधान सूप से प्रकारित हैं । इसलिए इन भ्रलग-प्रलग विषयों से सम्बन्धित उनके सभी सिद्धान्तो को प्रकट करने के लिए उनके दर्शन को इस प्रकार भी विभाजित कर सकते हँ -
१--विज्ञानभिवु के वेदान्त-सिद्धान्त
२-- विज्ञानभिश्च के सांख्य--सिद्धान्त
३-- विज्ञानभिश्चु के योगसिद्धान्त
इस वर्गीकरण को श्रपनाने से जरहा हमे प्रथम प्रकार के वर्गीकरण से ्राप्त फल की पूरंवः सिद्धि हो जाती है, वहीं वेदान्त, साख्य श्रौर योग लञास््ो के प्रति विज्ञानभिष्चु के योगदान का भ्राकलन करने तथा उन शास्त्रों के ्नन्य व्याख्याताग्रों के सिद्धान्तो से. इनके सिद्धान्तो की तुलना करने की भी बडी सुनिघा मिल जाती है । साथ दी इस वर्गीकरण से उनके ग्रन्थों का श्रलग-भरलग शरष्ययन प्रस्तुत करने का मन्तव्य भी सिद्ध हो जाता है । भ्रगले तीन भ्रव्यायों नं इसी वर्गीकरण के श्राधार पर उनके दार्खनिक-सिद्धान्तों का स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास कियाजारहारै।
„ चरमतत्वमीमांसा, ईदवरमीमांसा ओर संसारमीमांसा । २. आत्मतत्त्वमीमांसा प्रमाणशास्तर एवं विवेक^विज्ञान ॥ ३. आाचारशास्त्र, मनोविन्नान एवं साधना-गास्त्र ।
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अभ्ययि २
आचाय विज्ञानमित्त्, के वेदान्त-सिद्धान्त
ब्रह्ममीमांसा करे अनुबन्धचतुष्टय त्रधिकारी
्राचायं॒विज्ञानभिधचु द्विजातियों को सामान्य रूप से श्रौर ब्राह्मणों को विशेष रूप से ब्रहयज्ञान का श्रधिकारी समभतते है । ब्रह्ज्ञान का भ्रमृतरूपी भ्रपना भाष्य उन्होने ब्राह्मणों के लिए भ्रपित किया है 1१ इन द्विजातियों मे भी ब्रह्मविद्या का भ्रधिकार कतिपय प्ररिक्षित लोगों को ही है। उनकी स्पष्ट घारण है कि ब्रह्मविद्या के सच्चे भ्रधिकारी वे लोग है जो- +
वेदान्त शास्त्र का भ्र्थबोघ कर सकने के लिए उपयोगी रमदमादि-साघन- सम्पत्ति से युक्त हों ।२ जिनमें ्रटूट॒गुरूभक्ति कौ भावना भरी हो। जो नित्य कम श्रौर तप श्रादि से सम्पन्न हों ।९ जिनमें ब्रह्म श्रथवा चरमत्वं के प्रति वास्तविक जिज्ञासा हो । साथ ही जो कर्मफल के प्रति विरत हों भ्र्थात् निष्कामं कमं करनेवाले हों ।
शंकरमतावलम्बियों के द्वारा भ्रभिमत लमदमादिसम्पन्न सवकम -संन्यासी को ब्रह्मज्ञान का सच्चा भ्रधिकारी मानना ठीक नहीं है। क्योकि संन्यास का र्थं सर्वकरमेत्याग हरगिज् नहीं है 1 गौतमीय-तन्त्रादि ग्रन्थो में भी संन्यासियों
के सर्वकर्मत्याग का खण्डन प्रतिपादित किया गया है 19 श्रूति-परतिपादितः
१. ज्ञानामृतं गुरोः प्रोत्य शदेवेभ्यो चु दीयते 1३।-वि० भा० प° 5 २. द्रष्टव्य, विज्ञानामृतभेाष्य प° २७ ३. यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरो । तस्यैते कथिता हयर्थाःप्रकाशन्ते महात्मनः, इति भुतिः । इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चा- लरुभूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसुयति ॥ इत्यादि स्मृतेदच ।-वि°भा० प° २८ पर उद्ध.त। ४. गौतमीयतन्त्रे च--केवलंसततं भ्रोमच्वररणाम्भोजभाजिनाम् । संन्यासिनां सुमूक्ष्रणां तामसः कयितोविधिः \\ तथा- नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते 1 मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीतितः ॥\ --वि० भा० पु० ९ पर उद्धत १०३
रेति
॥ -१०४ | आचायं विज्ञानभिश्च
गुरूपगमन मे भी समित्पाणित्वलिङ्घ से भी होम का बोध होता है।१ प्रशान्त चित्तादिपदों से भी केवल विद्याग्रहण के लिए उपयोगी या अ्रनिवायं शम का | निर्देश किया है क्योकि श्रजनादि कमंपरायण लोगों को ब्रह्मविद्या का उपदेश ॥ दिया गया है।२ इस प्रकार से ब्रह्मविद्या-ग्रहण या ब्रह्मोपदेश-श्रवण के ग्रषिकारी के लिए स्वैकर्मत्याग की स्थिति स्वीकार करना सवंथा दूषित सिद्धान्त है ।* ।
श्रवणा के श्रनन्तर मनन होता है श्रौर मनन के पड्चाद् निदिष्यासन का क्षेत्र प्रारम्भे होता है । श्रवण एवं मनन की गयी ब्रह्मविद्या का परं भ्रभ्यास निदिष्यासन-वेला मे ही होता । सर्वाधिक महत्त्व की यही वेला होती है । श्रतः इसके लिए सच्चा भ्रधिकारी कौन है--प्राचायं विज्ञानभिश्चु ने इस सिद्धान्त को / भी स्पष्ट क्रिया है । श्रवण-मनन की गयी ब्रह्मविद्या के श्रम्यास का सच्चा भ्रधि- | कारी वह् है जो-
योगशास्त्र मेँ बताये गये अ्रज्खों [श्रष्टाङ्ग योग] की साधना से सम्पन्न है । | श्रवण श्रौर मनन के द्वारा जिसे कोमलकण्टकन्याय से शास्त्र-ज्ञान उत्पन्न हो ~ गया है । जिसे नित्यानित्यविवेक रा चारों साधनों की सिद्धि है।२ जो चान्त, दान्त है रौर योगविरोवी कर्मो से उपरति रखता है ।४ ब्रह्मविद्याम्यास या निदिष्यासन के श्रधिकारियों के दो भेद ईै--१--मन्दा- | धिकारी, २--उत्तमाधिकारो । मन्दाधिकारी वे है जो यहस्थाश्रम से लेकर
त्रिदण्डयाश्र मपयंन्त करिसी स्थिति में रहकर ब्रह्मवियाम्यास करे, भ्रौर परमहंस लोग उत्तमाधिकारी कहलाते है ।५
१. समित्पारित्वलिद्ध न होमावगमाच्च ।--वि० भा० पु० १५ २. अजुंनादिकमिभ्योऽपि ब्रह्मविद्योपदेशदशेनादिति ।--वि०भा० प° १५ ३. तस्मात्स्वकर्माणि संन्यस्य श्रवणं कुर्यादिति अपसिद्धान्तःकलिकतः एव ।--विज्ञानामृतभाष्य पु° २६ $ ४. शास्त्रोक्तविद्याभ्यासे पुनरधिकारौ योगशस्त्रीक्तयोगाङ्धादिसम्पन्नः भवरमननाभ्यां कोमल कण्ट ककन्यायेनोत्पन्नज्ञानो नारदीयोक्तनित्या- नित्यविवेकादिसाघनचुष्कवान /'शान्तो-दान्त उपरत इत्याद्य क्तश्रतेः तत्नचोपरतिर्योगविरोधिकरमंम्यः उपरम इति ।-वि०'भा० पु २८ तत्रापि मन्दाधिकारी गृहस्थादिस्त्रिदण्डिपयन्तः उत्तमाधिकारी च पर- महसः ॥--वि० भा० पु० २८
५
आचायं विन्नानभिक्षु के वेदान्त-सिद्धान्त १०५
ये भ्रधिकारी भ्रपने श्रधिकार के अनुकूल मोक्ष को साघना में प्रवृत्त होते ह । उस साधना का विज्ञानभि्षु के मन में क्या स्वरूप होता है यह् सावना प्रौर साघकोवाले' प्रकरण मे बताया जायगा 1
हाविद्या के विषय, प्रयोजन श्रौर सम्बन्ध
श्राचा्यं शंकर इत्यादि वेदान्तशास्त्र का विषय जीवब्रहयं क्य॒मानते ह । इस मान्यता का विरोध करते हुए श्राचायं विज्ञानभिष्चु यह् सिद्धान्त प्रतिपादित करते है कि गीताके वाक्य सही पता चल जाता है कि ब्रह्मसूत्रो का विषय ब्रह्य है, ब्रह्मजीवैक्य नहीं । यदि ब्रह्यसूत्रकार को वही मानना भ्रमीष्ट होता तो इस शास्त्र में पहला सूत्र श्रातो जीव-ब्रह क्यजिज्ञासाः दही होता 1 इसलिए इस शास्र का विषय श्रह्म' ही मानना चाहिए । ब्रहम-सूत्रो मे जो जीव का निरूपण हु्ा है वह् प्राणादि-निरूपण की भाति ब्रह्य-शेषतया गौण रूपसे हीहुप्रा है ।२ यदि यह् कहा जाय कि वेदान्त के महावाक्यो का प्रतिपाद्य तो ब्रह्मात्मा हीहै। तो इसका उत्तर यह् है कि ब्रह्मात्मता या ब्रहाजीवैकात्मता तो ब्रह्य के पूं ज्ञान से स्वयम् श्राक्षित हो जाती है । भ्रतः इस शस्व का विषय ग्रसंदिण् रूपसेब्रह्महीदहै।
श्रन्य सभी श्रास्तिकदर्शानों की भांति वेदान्तशास्त्र का भी परम प्रयोजन मो्च-लाभ ही है 1 इसमे सभी श्राार्यो का एेकमत्य हे । इस परम् प्रयोजन भूत मोक्ष-लाभ के स्वरूप के विषय मे जो मतभेद ह वे मोक्षवाले भ्ष्याय म प्रकट किए जागे । सब शास्त्रों की भांति यहां परः भी विषय श्रौर शास्त का प्रतिपा्- प्रतिपादक सम्बन्ध समना चाहिए ।
` ` ए मल्लप्वेवहडमदिमवििसित 1 इति भताव नरस
विबयतामावावगमात् --वि० भा० पृ° २१
२. जोवनिरूपरणं चात्र ब्रह्मशेषतयेव ्राणादिनिरूपरवद् । -वि० भाग प ३१
व्रह्म
सत्ता-सिद्वि
भ्राचार्य विज्ञानभिश्चु ने प्रकृति भ्रौर पुरुष दोनों से श्रतिरिक्त ब्रह्य की सत्ता स्वीकार की है । प्रकृति श्रौर पुरुष ब्रह्य की श्रन्तर्लीन शक्त्यां है 1" ब्रह्मा, विष्णु, महेशः हिरण्यगर्भ श्रौर नारायण इत्यादि साक्षात् ब्रह्म नहीं है २ ये तो ब्रह्म की व्यक्त शक्त्यां ह । कितने भी उच्व कोटि केक्योंनहोंब्रह्म- विष््वादि हँ तो जीव ही । ब्रह्म के लिए पर्यायवाची शब्द ईश्वर ह । जीव नहीं, विज्ञानभिष्ु ने ब्रह्य को परमेश्वर, महेश्वर श्रौर ईश्वर कहा है 1 भ्रन्य पदों से इस परमतत्त्व का बोध नटीं होता । ब्रह्म कौ सत्ता में श्च्तिरयां भ्रोर स्मू- तियाँ प्रमाण है ।° निदिध्यासन केष्रारा भी योगि-जनों ने ब्रह्य का साक्षात्कार किया है भ्रतः प्रमाण-रूप से योगज-प्रतयक्ष को भी स्वीकार क्रिया जा सकता है ।* अ्राचायं विज्ञानभिश्च ने ब्रह्म या ईख्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिए भ्रनु- “ मान का भी श्राश्नय ग्रहण किया है< जिससे कि तीनों प्रकार के प्रबल प्रमाणो
१. परमेश्वरादन्तर्लानप्रकृतिपुरुषाण्यखिलदक्तिकाद् ।-- वि ० भा० १० ३२ काल ओर अहृष्ट आदि भो श्रकृत्यादि से उपलक्षित अस्तित्व वाली ब्रह्य की अन्तर्लोन शक्तिर्या ही है, एेसा ही समना चाहिए ।
२. अतोविष्ण्वादिदेवानां न साक्षादीह्वरावतारत्वम् 1--वि० भा० पु° १३३११३५ ओर १३७ भी इस विषय भे द्रष्टव्य है 1
३. परब्रह्यण्येव रूढिः ब्रह्मरब्दस्योक्ता । तथा विष्णुपुराणेऽपि परमेश्वर एव ब्रह्यगन्दस्य शक्तिरुक्ता !-वि° भा० पु० ३७
४. तत्र श्रुतयः स्मृतयश्च प्रायेण प्रमारत्वेनोपन्यसनीयाः 1-वि° भ्रा पु ७०
५. योगिप्रत्यक्षादिकमपि ब्रह्मणि प्रमाणं ‹ भवति । (आत्मा वाऽरे.
द्रष्टव्यः भोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादि शरुतिः । -वि० भा० पु० ७०
६, कदाचिच्च संशयस्थलेऽनुमानमप्युपन्यसनीयम् “उपपत्ते इच" त्यादिसुत्रैः 1 .-वि° भा० धूण ७9
॥
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्ान्त | १०७
क दवार सिद्ध किये गये तततव क विषय मँ सी को सेह करन , का रका रह् जाय । बरह्मसिद्धिविषयक भ्रनुमान का स्वह यह् ६- पहली कडी-चुदधि इत्यादि सारे कायं उपादान-गोचरःप्रयक्ष-जन्य है । (१) कायं होने के कारण, घटादि की भांति (कायं मे उपादान गोचरपत्यक्ष वृत्ति ही देतु बनती है चैतन्य नहीं प्रयल~ लाघव की दृष्टि में) दूसरी कडी--वुद्धि, इत्यादि सारे कार्यो का मूल कारण, कारणसक्तव है \ (२) उपादानगोचरवृत्तीच्छाङृतिमज्जन्य होने से, ग्रतः कारणसक्व की सत्ता सिद्ध हो जाती ह तीसरी कडी--इस कारण-सत्व का भोक्ता कोई एतदतिरिकत सत्ता है। (३) इसके श्रन्य से भोग्य होने के कारण, [अर्थात् इसके इच्छाकृतिमत्वादि के कारण] जीवोपाधि की भाति 1 इस प्रकार से कारणस्व के भोक्ता के रूपमे ईश्वर की सत्ता का स्पष्ट ्ननुमान किया जा सकता है ।२ कारणसर्व का भक्ता कारणसतत्वाविस्कत ईरवर या ब्रह्य है--यह निरिचित होता है 1 ्रति-स्मृतियो से श्रवण करके, उपर कहे गये श्रनुमान से मनन करने के पङ्वात् योग के दारा भूमिका के कम से मन की सहायता से ब्रह्म का श्रशेषविशेषतः साक्षात्कार किया जा सक्ता ह ए मान्यता की पृष्कल पुष्ट शरतियां भौ करती है ।*
ब्रह्म कां स्वरूप यद्यपि ब्रह्य श्रतीन्दरिय है तथापि योगज-प्रत्यक्त से उसके स्वरूप कौ प्रतीति
हो सकती है 1 इसके दो कारणं है 1 पहला तो यह् किं शरवस्तुभूतविेष मान कर
१. द्रष्टव्य, वि० श्रा पुर ७९१ २. कारणसत्त्वभोक्तृतया इहव सोऽ्तुमेयइति --वि० भा० १०५० ध ३. इाब्दादिमात्रेण सामान्यतो जञाने जति मिकाक्रमात् स्वय अशेषविशेषतः साक्षात्कयत इत्यवगमात् वि | ४ " एतदभरमेयं ध्र
४. अन्यथा "वेदश्च सर्वैरहमेव मनसवानुद्ष्टव्यम् र तद्विष्णोः परमं पदं सदा पर्यन्त सुरय' इतयादिभूतिविरोषापत
रिति-वि० ना पुर ७१
पणि
१०८ | आचायं विज्ञानभिक्षु
योगज-श्तयक्ष संभव है श्रौर दुसरा यह करं योगजघमं की राक्ति भ्रचिन्त्य है, एेसा सभी शास्त्र मानते है ।* मन को विभुः मानने पर मन का सर्वत्र संयोग हो सकता है श्रौर उसे परिच्छन्न मानने पर भी योगज प्रत्यासत्ति के द्वारा ब्रह्म- साक्षात्कार, सर्वथा सम्भव हैर । शांकरमतावलम्बी वेदान्तियो के द्वारा प्रति- पादित ब्रह्य भँ वृत्तिव्याप्यत्व की स्वीकृति श्रौर॒फलब्याप्यत्व [अर्थात् श्रनुभव- व्याप्यत्व | का निषेव सर्वथा श्रप्रामाणिक ह ।* श्रनुभवन्याप्यत्वं न स्वीकार करने पर ब्रह्म के सम्बन्ध मेँ कोई व्यवहार ही, (श्रवणमनननिदिघ्यासन भ्रादि कोई व्यवहार सम्भव नहीं हो सकेगा । यह् कहना कि वह स्वप्रकाश है इसलिए तद्विषयक व्यवहार) सम्भव है--भी भ्रान्ति ही है। इसमें निरर्थक कल्पनागौरव है ।“ उनका यह कहना क्रि कमकतृ विरोध की श्रारद्धा से भ्रौर स्वध्रकाशत्व कौ ्रनयथानुपपत्ति से ब्रह्यानुभवरूप व्यवहार में स्वविषयानुभव हेतु नहीं सम्भव है। इसका जोरदार खण्डन करते हुए श्राचायं विज्ञानभिश्ु ने कहा है कि--
हम ब्रह्म की प्रकषपत्वरूप स्वप्रकाशता नहीं मानते हैँ प्रौर न ही हम जीव रह्म का भ्रलण्डत्व मानते है जिससे कि जीव के ब्रहयज्ञान मे कर्मेकतृं विरोघ पड़ सके 1 सच तो यह् है कि श्रवण्डाठमा माननेवालों के लिए भी ।स्ांख्ययोगोक्त जीव की स्वसाक्षात्कारक्रिया के द्वारा ब्रह्म-साक्षात्कार मानने मेँ भी कमकत विरोध नहीं पड़ता । भ्रतः स्वप्रकाश होने पर भी ब्रह्य के स्वरूप का साक्षात्कार योग क द्वारा किया जा सकता है श्रौर तभी उसके स्वरूप की की देखने को भ्रात हो सकती है ।£
ब्रह्म चिन्मात्र है ।° चैतन्य या चेतनता ब्रह्म का गुण नहीं है श्रपितु द्रव्य- विशेष है ।< इसमें घम प्रौर धर्मी का विभाग नहीं है । इस चिन्मयता भ्र्थात् ज्ञान- मात्रैकरूपता के कारण ब्रह्म को शास्त्रों में सवंज्ञ भी कहा जाता है । ब्रह्य भ्रानन्द
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ७२
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ७२
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ७२
तत्रैताहाशकल्पनायां प्रमाणादकेनात् 1-वि० भा० पु०७२ तद्विषयकन्ञ।नस्यतदन्यवहारहैतुत्वकल्पने गौरवात् ।-वि ° भा० पु०७३ द्रष्टव्य, वि० भा०पु० ७२-७४
तस्मे नमध्िचन्मात्ररूपिणे।\--वि° भा० प° १
चेतन्यं चाट्मनो न गुणःकिन्तु द्रव्यविदेष एव घमंरघामिविभागरून्यस्चेतन इतिचेतन्यमिति चोच्यते ।-वि° भा० प° ६२
भ & < < % & ~ ८
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्त सिद्धान्त | १०९
स्वरूप नहीं है । श्रतः उसमे सच्चिदानन्दरूपता की कंल्पना । भ्रान्ति है । जो चित्मात्र है वह् चैतन्य के श्रतिरिष्त। म्ानन्दादि रूप नहीं हो सक्ताः । शरुतियो ् द्वारा एकरस प्रतिपादित किये जाने के कारण ब्रह्य मे ज्ञानरूपता श्रौर ्रान्द- रूपता का प्रकार-भेद नहीं माना जा सक्ताः । ब्रह्म मे श्रानन्दमयता श्र तियों ने केवल भेदपरता के निङ्वय कराने के लिए प्रतिपादित की है जैसे स एको ब्रह्मण श्रानन्दः 1 विज्ञानमयादन्योऽन्तर श्रात्मा ्नानन्दमयश्च २ इत्यादि । इतना ही नही, श्रुतियो न ब्रह्य की श्रानन्दरूपता का स्फुट प्रत्याख्यान भीक्रियाहै।° समृतियों ने भी ब्रह्य को सुखरहित प्र्थात् श्रानन्दुन्य बताया दै 1 ्रानन्दादि वस्तुतः प्रधानः के धमे है। स्थूल-दुष्टिवलि उपासकों के लिए ही ब्रह्य की उपाधिभूत ध्रवान' के घमं की-कटीं श्रुतियो म ब्रह्म के सम्बन्व में कह दिए गए रै । ्रानन्दयुक्तता भी वैसेही कही गयी समी जानी चादिए । इस प्रकार से ब्रहम श्रानन्द स्वरूप नहीं है ्रपितु श्रानन्द उसका श्रौपाधिक धमं है ।*
ब्रह्म वस्तुतः श्क्षर दै । कूटस्थनित्य है । ्नौर निगुण है। जीवों रौर सकल प्रकृतिप्रसूतपदार्थो का लयाघार होने के कारणं वहं ्रन्र्यामी भी कटा जाता.है 1 यहं ब्रह्म॒ही भ्रन्तिम सत्तः है क्योकि सभी प्ख उसके प्रय रै र्यात् उसकी शक्ति-मात है 1 सकल बोधो श्रौर भोगों का साक्षिमात्र होने से ही वह भोक्ता कहलाता हे । योगशास्व मे बताए गए ईव के लक्षणप्मेभी इस प्रकार के साक्षित्वं खूप भोक्तृत्व का कोई निषेव नदीं है । इससे स्पष्ट है
१. एतेन ब्रह्मणः मानन्दं रूपत्वमपास्तम्' नैकस्यानन्दचिद्रपत्वेविरोषा- दिति सांख्यसुत्रोक्तन्यायाच्च ।--वि° भा० पुर ६३
२. ज्ञानत्वसुखत्वरूपं प्रकारभेदश्च त्वयापि नेष्यते एकरसत्वभुति- विसेधाच्च !--वि° भा० ५० ६३
३. वि० भा० प० ६४ पर उद्धत भु
४. नानन्दं न निरानन्दं विदन् हरषश्षोको पर उद्ध,त 1
॥ जहाति (-वि० भा प० ६४
सम्यरध्यानायेवोक्ताः शरु श्रुतिषु ४ ७. लित्यत्वादिनास जातीयत्वस्योपपादिततया जीवो ४ प्ति * } ~ !च्० 9 9 ६१ १ पत्रः 1-वि० भा व ३ सषवत वर --यो० स्० ९ ९५
११० | आचायं विज्ञानभिक्षु
"करि जीव के भोग से यह ईदवर-भोग॒ सवथा विलक्षण है।* बह्म विभुहै। -निरतिशयवृ हत्वात् ही से तो उसे ब्रहम या परब्रह्म कहा गया है । ब्रह्मपद
-पद्कुजादि की भाति योगरूढ ही समना चाहिये । इसलिए शाङ्खरमत के विप-
रीत ब्रह्मशब्द का मुख्याथं जीव कभी नहीं हो सकता । हिरण्यगर्भादि का भी
-बोध ब्रह्मशब्द के मुल्याये के रूप सजीव कभो नहीं हो सकता । हिरण्यगर्भादि जीवों
के लिए जहाँ कहीं भो ब्रह्मशब्द का प्रयोग हुश्रा है वह विभुत्वसर्वाधारत्वादि गुणों क्केयोगके कारण गौणरूपमेंदही। ब्रह्म की उपाधि
यद्यपि ब्रह्मा या ईश्वर नित्यशुद्धवुद्धमुष्तसत्यस्वभाव् है तथापि पुरुष श्रौर श्ङृतिरूपिणी श्रपनी श्रन्तर्लीनि शक्तियों के द्वारा होनेवाली सृष्टि इत्यादि समस्तव्यवहारकाल में वह् उपाधियुक्त या उपाधिविशिष्ट होता है । विशुद्धसत्त्वा माया ही उसकी उपाधि बनती है ।२ स्मरणीय यह है कि ईवर भी विभु है ्नौर उसकी उपाधि भी विभु हैश्रौर दोनों का संयोग भी नित्य है। इसलिए सृष्टि, स्थिति ओर लय कौ परम्परा निर्बाच रीति से चलती रहती है । चूंकि विना उपाधि के माने ईख्वर का इच्छादिकतृं त्व सिद्ध नहीं होता इसलिए इच्छा- दिकतृं त्वानन्यथानुपपद्या ईरवरोपाधि कौ सत्ता सिद्ध होती है 1 ईश्वरोपि कौ जीवोपाधि से विलक्षणता स्पष्ट श्रौर निरिचत है । ईदवर मे कारणोपाधि नौर जीवों में कार्योपाधि रहती है 1* ई्वरोपाधि नित्य विशुद्धसत्व कीरै भरतः ईरवर के उपाधि भोग के लिए किसी इन्द्रिय या श्रंतःकरण की भ्रावश्यकता नहीं होती ९ ईर्वरोपाधिभूत विशुद्धसत्त्वा माया को श्रविद्या नहींक्टाजा
१. नत्वीदवरो जीववत्कामजन्यं सुखंभुक्ते इति दिक् ।--वि° भा० १०१८५
२. अन्यजीवेषु ब्रह्मशब्दप्रयोगोऽशांश्यभेदोविथुत्वसर्वाघारत्वादिगुणखयोगा- टेति बोध्यम् ।--वि० भा० पु० ३८
३. किन्तु केवलम् नित्यज्ञानेच्छानन्दादिमत्सदैकरूपम् कारणसत्वमेवतस्यो- पाधिः ! ईदवरगीताभाष्यम्, पाण्डुलिपिः ।
ॐ, न हि चिन्मात्रस्योपाधिद्वारतांविना इच्छादिकं सोऽकामयत तदात्मानं स्वयमकुरतेत्यादि प्रयुक्तं सम्भवतीति --वि० भा० पु० ९०
.५. कार्योपाधिरयं जीवःकारणोपाधिरीदवरः । इतिभुतिः- वि भा० पु० ९७ पर उद्ध.त
.६. ब्रह्मकरणवन्नभवति कुतः भोगादिप्रसङ्खात् {जी ववत्युखदुःखादिभोगस्य रागद्धे षादेकच प्रसङ्कादित्यथः \--वि° भा० पु° ३१९
.७--ईहवरोपाघिर्मायाख्य उक्तः ।--वि० भा० पु० ९९
। |
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्त सिद्धान्त | १११
सकता भ्रविद्या तो जीवोपावि का भ्द्ख है । यह माया प्रकृति का एक् खूप श्रवस्य है। इस ईरवरोपाधि का रूप स्पष्ट करते हुए भ्राचायं विज्ञानभिश्चु ने प्रति- पादित किया है कि यह् नित्यज्ञानः नित्येच्छा एवं नित्यानन्द से युक्त रहती है । इसे माया कहते रै श्रविद्या नदीं 1" यह् ईरवर के सट्यसंकल्पादि की श्राघार- भूत है । ईदवर की श्रन्तरङ्ध है। इसको प्रमुख विरोषता तो यह है कि यह् परिणामिनी है 1९ कदाचित् इसके श्रपरिणामित्व गुण के ही कार्ण विष्णएु- पुराण मे इसे प्रकृति से भिन्न सत्तावाली माना है। कितु भ्राचायं विज्ञानभिधु ने इसका प्रवेश प्रति के ही भ्र॑तगंत माना है।९
जके दो रूप
यद्यपि ब्रह्य अ्रविक्ारी श्रौर चिन्मात्र है फिर भो भ्रविष्ठान रूप से वह जगत् का उपादान कारण वनता है" क्योकि प्रकृति के माध्यम से उसकी कारणता श्रघुण्ण है ।“ उपाधि सं विकार-पूणं कृत्यो की निमित्त-कारणता मानने में कोड श्रनिष्टापत्ति नहीं दै । सोपाधि तह्य केदो शरीर भ्रुतियों मँ बताये गेह जैसे कि जीवके दो शरीर होतेः है। एक दारीर सूक्ष्म कहलाता हैश्रौर दूसरा स्थूल । सभी विकारपूरूणं कर्यो का भाधार-रूप नित्य विशुद्धसत्त्व (स्वयम् उपाधि या) माया ही ब्रह्यका सूक दरीर है 1 तथा साक्षात्प्रयत्नजन्यक्रिया खूप चेष्टाग्नों का श्राश्रयरूप भ्रन्य जीव-जन्तु एवं निर्जीव पदाथं उसके स्धरूल
खूप ह ।° शास्त्र मे ब्रह्म के इन सोपाधि शरीरों का प्रतिषेव नहीं किया गया है,
१. शुक्तिरजतायविदयायां माया जब्दाप्रयोगाच्च !--वि° ना० १० १२६
२. ईकशोपाघेःअपरिणामित्वेऽपि जउत्वसाधर््यंण प्रकृतिमध्येप्रवेसम्भवा- च्चेति ।--वि० भा० पु° १२७
३, अत्र तु समानतन्त्रपातञ्जलसिद्धान्तत्वादानन्दादयः प्रधानस्येत्यागामि- सुत्राच्च $डवरोपाघेः प्रधाने भवे एव सुतरकाराभिभ्रतो जडत्व- साधर्म्यरत्यवगम्यत इति ।--वि ° भा० ९० ४५५
४, तदेवं तमन्वयसूतरेएाविकारिचिन्मात्स्यापि ब्रह्मरणोऽधिष्ठानत्वेन जगदुपादानत्वमुपपादितम् --वि० भा० पु० १०९
५. वेदा्तेऽपिश्रुदधचिन्मानस्य ब्रह्मः
जगदुपादानत्वम् (--वि० भा० पु० २७२ ६. जीववत्परमात्मनोऽपि शरीरदयवत्वात् "यस्य सर्वेशरीरम्' इत्यादि-
श्रुतीनां गौणएत्वानोचित्यात् (--वि०भा० पु० १०० ७, द्रष्टव्यः वि० भा० परण १००
बरह्मोपाघेरेव
[व ` =^
११२ | आचार्यं विज्ञानभिक्ष्
केवल इन्दरियाश्रयरूप शरीर का ब्रह्य के विषय में निषेध है। श्रतः ब्रह्य की | विराद्-रूपता कै प्रतीक इन सूक्ष्म श्रौर स्धरूल शरीरों को प्रतिपादित कियां | गया है । इससे ब्रह्य कौ श्रविकारिता या चिन्माच्रता या निग्णता नें कोई वाधा न सममनी चाहिए । यह शरीर-भेद तो वस्तुतः उपाधिसंयक्त रह्म कीदुष्टिसे बताया गया है । यह् कथन संसार-सापक्ष है ।
जहाम जगत् का अरपिष्ठान कारण है ॥ इस श्रचिन्त्यरचनात्मक जगत् का जन्मस्थितिलयादि भ्र्थात् उत्पत्ति या विकास श्रादि परमेश्वर से होता है । क्योकि बरह्म मे प्रकृति पुरुष श्रादि श्रखिल शक्तिं ग्रन्तर्लनि रहती है ्रौ र स्वतः चिन्मात्र होने पर भी वह॒ विशुद्धसत्त्वाख्य- मायोपाचि युक्त है ।* महदादिक्रम से विकसित होनेवाला यह सारा जगत् इसी ब्रह्म परं भ्रषिष्ठित है । यह् त्र्य इस जगत् का श्रषिष्ठान कारण है ।२ भ्रधिष्ठान कारण उसे कहते है जिस भ्रावार से भ्रविभक्तः तथा उपष्टन्धण होकर उपादान कारणा कायं रूप मे परिणत होताहै । जैसे सृष्टि केश्रादिमें जल से अ्रविभक्त पृथिवी के सूक्ष्मांश (्र्थात् पाथिव तन्मात्रा जल) के द्वारा | उपष्टव्व हो कर पृथ्वी के ्राकार में परिणत होते हैँ इसलिए जल, स्थूल पृथ्ती | का भ्रधिष्ठान-कारण है स्मृतियों मे भी भ्रधिष्ठानकारण रूप से महेद्वर को । माना गया है“ । इसी प्रकार से ब्रह्म से श्रविभक्त प्रकृत्यादि, ब्रह्य के साक्षित्व- मात्र से उपष्टन्ध हो कर जगत्-रूपी कार्यं के भ्राकार में परिणत होती है 18 | भतः त्रह्य जगत् का कारण भी सिद्ध हुश्रा श्रौर उसमे विकारित्वं कामी | भरसङ्ग नहीं भ्राया । साथ ही प्रकृति अथवा पुरुषादि शक्तियों मेँ मूलकारणता | |
का भ्रतिप्रसङ्ग भी न हुप्रा ।७ इस प्रकार से भरषिष्ठान-कारण के साथ ही साथ. ४
१. द्रष्टव्य, वि° भा० प° ३१-३२
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३२
३. अविभागचाधारतावत् स्वरूपसंबन्धविशेषोऽत्यन्तसंमिश्नररूपोदुग्ध-
| जलाद्य कताप्रत्ययनियामकः !- वि० भा० पृ० ३३
॥ ४ यस्य यत्कारणं प्रोक्तं तस्यसाक्षान्महेदवरः । मषिष्ठानतया स्थित्वा
सदवोपकरोतिहीति ।--वि० भा० प° ३२ पर उद्धृत
| ५४ विकारिकारणवदविष्ठानकाररस्यापुपादानत्वव्यवहरात् कार्या- विभागाधारत्वस्येवोपाद नसामान्यक्षणात् ।--वि० भा० पु० ३३
द्रष्टव्य, वि० भा० प० ३१
| ७. भत एवाविकारिचिन्मा्त्वेऽपिब्रह्मणो जगदुपादानत्वं जगदभेदक्चोप-
पद्यते ।--वि० भा० पु०° ३३
“.
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | ११३
ब्रह्म जगत् का उपादान कारण भी सिद्ध हुग्रा क्योकि उससे ्रविभक्त रहकर भ्रौर उपष्टन्य हो कर ही तो प्रकृत्यादि का परिणमन कार्यल्प में हुजा है, वैशेषिक भ्रौर सांख्य सिद्धान्तो से भी यह् मत श्रविरुद दै। पदावली मेंभते ही थोडा भ्रन्तर हो । वैरोषिक लोग ब्रह्म को निमित्त कारण कहते हैँ । श्रौर हम लोगों की दृष्टि में ब्रह्य, संसार का, समवायि श्रसमवायि से उदासीन तथा निमित्त कारणों से विलक्षण चौथे प्रकार का श्राधारकारण म्र्थात् श्रविष्ठानकारण है 1“ इस प्रकार से ब्रह्म की उपादान-कारणता उसकी श्रन्तर्लीन परिणामिनी शक्ति प्रकृति के वल पर सिद्ध हुई । जगत् का कतं त्व भी ब्रह्म मेँ कटा जाता है । यह कतर त्व ब्रह्म की उपाधिभूत शुद्धसत्त्वा माया के वल पर है। यहु माया भ्रपरिणामिनी है । हम जानते हैँ कि कतं तव एक प्रकार का निमित्तकारणत्व ही है ।२ इस प्रकार से जगत् का अ्रधिष्ठानकारण श्रौर कर्ता होने के कारण ब्रह्य जगत् का श्रभिन्ननिमितोपादानकारण भी सिद्ध हुभ्रा 13
१. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३३
२. ब्रह्मणश्च जगत्कतु तवं स्वोपाधिमायोपाधिकं, परिणामित्वरूपोपादानत्वं ्कृतितलत्कार्याद्योपाधिकमपीष्यत एव ।--वि० भा० पु० ३४
३. एतेन जगतोऽभिननिमित्तोपादानत्वं व्याख्यातम् ।--वि० भा० पु० ३४
फा०--८
नीत का स्वह्प
नगत् द्विधा भासमान होता है--चेतन रूप मेँग्रौर भ्रचेतन रूपमें। चेतन ्रौर प्रचेतन तत्त्वो का ही नाम क्रमशः पुरुष श्रौर प्रकृति है । ये दोनों ईरवर या ब्रह्म की भ्रन्तर्लीन शक्तियाँ हैँ । चेतन-रवित कार्योपायि से प्रवच्छिन्न होकर जीव कहलाती है । ब्रह्य शब्द का प्रयोग जीव के प्र्थं में मुख्य रूप से कभी नहीं किया जा सकता । विभत्वसर्वाधारत्वादिगुरासाम्थ के योगसे भले ही कभी गौण रूप में ब्रह्य शब्द का प्रयोग जीव के लिए कर दिया गया हो । बन्ध भ्रौर मोक्ष जीव कोटी होते हँ परमेश्वर को कभी नहीं । यह वात श्रौरदहै किये बन्धमोक्षादि जीव को भी स्वरूपतः न होकर श्रौपाधिक रूप से होते हैँ । इसी- लिए जीव को उपाधि कार्योपाधि या मलिनसत्तवप्रधाना कही गयी है जव कि ईङवर की उपाधि कारणोपाधि या विशुदधसत्वप्रधाना है ।
जीव एक नहीं ्रनेक हैँ । भ्रनेक जीव न मानने पर बन्धमोक्षादि व्यवस्था की भ्रनुपपत्ति होगी । बन्धमोक्षादिव्यवस्या के कारण ही जीवनानात्व मानने के गौरव को भी स्वीकार किया जाताहै।* यदि जीव को केवल एक ही मानें मरौर ग्रनेक उपाधियों मे भेद मानें तो भी बन्धमोक्ष-व्यवस्था श्रसम्भव ही रहेगी क्योकि एक ही जीव जव नाना उपाधियों से संयुक्त रहेगा तव निर्चित रूप से उसे मोक्ष-लाम कभी हो ही नहीं सकेगा । प्रतः जीव का श्रनेक होना ही सिद्ध है ।२ तो प्रदन यह् उठता है कि फिर ॒विज्ञानभिश्चु जो श्रदवंतवादी बनते हँ यह स्थिति कंसे सम्भव है? इस शंका को समाहित करने का उनके पास साधन यह है कि वे जीवों मं जातिपरक एेक्य ही मानते हैँ । जीव श्रौर ब्रह्मम भी यही सामान्याद्रं त या जातिपरक श्रद्रतहै। इस चिन्मावत्व सामान्यकी दष्ट से जीवों के वीच परस्पर तथा "जीव" श्रौर परमात्मा के बीच श्रद्रैतही सिद्ध होता है ।
१. बन्धमोक्षव्यवस्थानुपपत्तिप्रमारसिद्धतया आत्मनानात्वगौरवस्यं वादतंव्यत्वात्
-वि० भा०प्.० ४२ २. उपाधिभेदे सत्यपि एकस्येवात्मनो नानोषाधियोगः स्यादतो न व्यवस्थेत्यर्थः ।
--वि० भा०प्.० ४६ ३. जातिपरकत्वात्चित्सामान्यद्रे तपरत्वात् श्रुती नामित्यथं : ।
--वि० भा० पृ० ४७
आचाय विन्ञानभिश्चु के वेदान्तसिदान्त | ११५
सृष्टि के पूर्वं भी शक्ति-सम्बन्य से ईदवरापिष्ठेय जीव की सत्ता थी । ५ जीव श्रौर ब्रह्म का पूरणं एवय भर्थात् पूं श्रमिन्तता श्रलवत्ता श्रसम्भव है। | | क्योकि विना स्वरूपभेद के ईदवर भ्रौर जीव का प्रविष्ठात्रधिष्ठेयभाव श्रसम्भव है । इपलिए अ्रखण्डेकात्म्य कौ स्थिति सर्वथा श्रमान्य दै।१ जीवों श्रौर ब्रह्म के
मध्यवर्ती सम्बन्ध में प्रंशांदिभाव ही मानना चाहिए । २ भ्रंश नौर श्री मे भेदा-
भेद दोनो है । यदि यह का उठे कि भेद श्रौर ग्रभेद धिरोधी शाब्द हं इसलिए किन्दीं
दो वस्त्रों मेँ मेद श्रौर प्रभेद दोनों एक साथ प्रसम्भव हं? तो उसका समाधान
यह है कि कालभेद से भेद श्रौर अभेद दोनो स्विति सम्भव तथा युक्तियुक्त है ।
जीव श्रौर ब्रह्म में श्रात्यन्तिक या सवंकरालिक ग्रन्योन्याभाव है । इसमें कोई सन्देह
हीं । शक्ति च्रौर राक्तिमान् का ग्रविभाग नित्य दी माना जाना चाहिए ।२
इस प्रंशांशिभाव का वास्तविक स्वरूप भरस्तुत करते हृए विज्ञानभिष्चु लिखते ह कि श्रंशत्व का अ्रथं है सजातीय होने पर अविभाग का प्रतियोगित्वं श्रौर भरंशित्व का ्रथं है उसका परनुयोगित्व ।* सजातीयत्वं का अ्रथं है ्रन्यत्वसाक्षाद् व्याप्यजातित्व' श्रौर विभाग का भ्रं है 'लक्षणान्यत्व' भर्थात् श्रभिव्यक्तघरमेभेद' तथा श्रविभाग का श्रथ है लक्षणान्यत्वाभावः ग्र्थात् श्रमिव्यक्तव्मं भेदाभावः" । ्रविभाग को इस प्रकार भी समभना चाहिए कि अ्रविभाग एक संयोगविशेष या स्वरूप-सम्बन्ध-विशेष है।* जल श्रौर दविलवण का जिस प्रकार से समुद्र मे श्रविभाग कहा जाता दै उसी प्रकार प्रकृति भ्रौर जीव का ब्रह्य में श्रविभाग सम्बन्व समभना चाहिए ।
भ्रशांशिभाव सम्बन्व स्वीकार करने पर एक स्वाभाविक सन्देह उठता है कि वह्यतो निरवयव है उसमें सावयवपदार्थो के विभागों या भ्रंगोंकी भांति
(| चायस्ुपाधिसंबन्धात्पुवंमधिष्ठेयाधिष्ठातृभावो निरशस्यात्मनः स्वर्प- भेदं विनोपपद्यते ।-वि० भा० पुरत
२. तस्माद्भेदाम्यां जीवन्रह्यणोरंशांदिभाव एव ब्रह्ममीमांसासिदान्तोऽ वधारणीयः ।--वि० भा० पु० ५०
३. भ्रंशांहिनोङच भेदाभेदौ विभागाविभागरूपौ कालभेदेन अविरुद्धो, अन्योन्याभावज्च जोवत्रह्मणोरात्यन्तिक्त एव तथा शक्तिरक्तिमद विभागोऽपि नित्य एगेतिमन्तव्यम् !--वि० भा० पु० ५१
४. अंशत्वं च सजातीयत्वे सति अविभेगप्रतियोगित्वम्, तदनुयोगित्वम् चांरित्वम् ।1--वि० भा० पृु०५१
4. अथवास्तु अविभाग : संयोगविशेषः स्वल्पसम्बन्योवा आषेयत्वादिवत् 1
--चि० भा० पु० ५१
११६ | आचार्यं विज्ञानभिक्षु ध्रंरांशिभाव की कल्पना कैसी ? इस सन्देह को निर्मूल करते हुए भ्राचायं विज्ञान- भिक्चु लिखते है कि जिस प्रकार का भ्रंशत्व हमने माना है वहं ग्रवयवरहित पदार्थं मे भी संभव है । जैसे शरीर का श्रवयवन होने पर भो केशादि शरीर के रंश कहे जा सकते हैया राशिभूतवस्तु का प्रवयव न होने पर भी उसमे का एक- देशा उसका भ्रंश हो सकता हैयाजैपे शरीर का भ्रवधव न होने पर भौ पुत्र पिता का भ्रंश कहलाता ठै? वैसे ही सभी जीव पिता मे पुत्रों की भांति नित्यस- ्वावभासनलील चिन्मात्र ब्रह्म सं विषयभासन-रूप-स्वलक्षण को त्याग करं प्रलय लक्षणानन्यता या ग्रभिन्यवतघर्म-मेदाभाव को प्रास होते हैँ । सृष्टिकाल सेंत्रह्यकी ङ्च्छासे कालमें चैतन्य ही ब्रह्म से फलोपघान को प्राप्त करके वैसे ही उत्पन्न (आविर्भूत) हो जाते ह जैसे पिता से पूत्रगण॒ । प्रतः जीवों को ब्रह्म का भ्रंश मानना चाहिए 1१ श्रात्मा वै जायते पुत्रः इस श्रूति सेभी जीव श्रौर ब्रह्य का पृत एवं पिताकी भांति ग्रविभागलक्षणाभेद सिद्ध होता है। भ्रतः श्रंरा शब्द का इसी ग्रथ मे ग्रहण करना ठीक है। पिता, पत्र ग्रौर श्रचिस्पुलिङ्ध की भांति यह माना जाना चाहिए, भ्राकाश की भाति नहीं आकाश की भाति मानने ने गौरा्थंत्वादि भ्रनेक दोष प्रसक्त होगे 1२
यदपि जीव भी ब्रह्य को आंति स्वरूपतः विभु एवं चिन्मात्र होते है तथापि उपाघ्यवच्छेद के कारण शभिव्यक्तपरिच्छिनचैतन्य होने से चित्गारियों की भाति होतेह 1 शुद्ध ल्पमें जीव भी श्रसङ्ध, असंसारी, विमु श्रौर सर्वाधार होते दै। पर उपाधिमालिन्य के संयोग से उनकी सारी सांसारिकता है 1 जीव में चैतन्यफलोपधान कादाचित्क है । वाचारम्भणमात्र है । जीव ईरवर-परतन्त् है नौर श्रल्प है 1* चिच्छवित के प्रमुख्य योग के कारण जीव गौणात्मा हैश्रौर ईहवर मुख्य ्रात्मा है । सर्वज्ञता स्वतंत्रता के कारण जैसे कि प्राण मुख्य हैश्रौर ्रनेक कारण गौण है । इसी कारणं ईकवर परात्मा या परमात्मा है, जीव
~ न्द
१. सर्गकालेच तदिच्छया तत एव लब्ध चैतन्यफलोपधाना आविभेवन्ति पितुरिव पुत्रा अतो जीवाः ब्रह्मांला भवन्ति --वि० भा० पुर ५२
२. आका्षवदंशंदिभावाश्रयणोऽकनकन्दस्यगौरत्वंस्यात् । घटाकालोह्याका- जाद् विभक्तो न भवति लक्षरणान्यत्वाभावात् घटाक्ताङधर्माणासप्या- कारधमंत्वात् अवच्छिन्न चांशशन्दवदिति गौरोऽवयवादिङान्दवदिति 1 अतोनैवाकारावदंशत्वं ब्रह्ममीमांसार्थः ।--वि° भा० प ५२-५२
३. जीगेषुचेतन्यफलोपधानं कादाचित्कतया वाचारस्भणमात्रम् ईइवर- परतन्त्रम् सदल्पं चेति 1--वि° भा° पूर ५६
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | ११७
भ्रपरात्मा है, ईदवर श्रेष्ठ श्रात्मा है, जीव श्रध्रष्ठ श्रात्मा है, ईदवर मुख्यात्मा है रार जीव गौणात्मा है ।\ ।इस प्रकार से जीव ब्रह्म का वास्तविक सम्बन्व खण्डैकात्य श्र्थात् श्रविभागलक्षणाभेद या श्रंशांशित्व रूप का है ।
इस प्रकार जीव श्रौर ईखवरमें ्रंशांलिभावसे विभागरूपी भेद श्रौर श्रविभागरूपी श्रभेद सिद्ध हूभ्रा । विशेष .घ्यान देने की केवल एक वात ठैकि भ्रादि श्रौर श्रन्त में चकि नित्य जीव श्रौर नित्य ब्रह्म मे श्रविभागरूपी श्रभेद ही रहेगा, इसलिए वही सत्य श्रौर पारमाधथिक है । बरौर चकि मध्य मं उपाधिके स्वल्पावच्छेद के कारणा नैमित्तिकं रूप से जीव श्रौर ब्रह्म के पारस्परिक सम्बन्व मं श्रन्य ्रौपाधिक विकारो की भांति विभागरूपी भेद होता है, इसलिए वह वाचारम्भणमात्र है भ्र्थात् भेद केवल कटने भर को हुप्रा श्रौर इस प्रकारसे भ्राधान्येन श्रात्माद्रौ त ही सिद्ध होता है ।*
जीव की उपाधि किस प्रकार की होती है ? इस विषय मं उनका मत हैकि जीवोपायि क्लेदादिवासनाश्रों के हेतु मलिनसतत्ववाली है 1 पर है वह उपावि नित्य ही, श्रनित्य कदापि नहीं । प्ररत उठता ह कि यदि यह् उपाधि नित्यहैतो फिर इसे कार्योपापि की संज्ञा क्यो दी गई ? कार्येवस्तु तो नित्य हो ही नहीं सकती । इसके उत्तर में उनका कहना है कि नित्य होने पर भी चकि वहं बाह्य- सत्त से संभिन्न होकर कायं रूप में परिणत हुभ्रा करती हं श्रौर तभी लौकिक- ज्ञानादि का हेतु वनती है भरतः उसे कार्योपाधि कहा गया है । जव कि ईदवरोपाधि सर्वेथा विशुद्धसत्त्वा हैर श्रौर भ्रपरिणामिनी ह । जीवोपाधि परिणामिनी है ।
१. त्था च नारदीये गोणमख्यभावेनात्मद्वयमुक्तम् आत्मानं दि विधं प्राहुः
परापरविभेदतः 1 परस्तु निर्गुणः प्रोक्तो ह्यह ङारयुतोऽपरः ॥। इति परापरौशवष्ठाशनेष्ठौ भस्यगोरएत्वाभ्याभितिभावः ! इदमेव खण्डे- कात्म्यमबुद्धा आधुनिका अखण्डेकात्म्योपपत्तये जीवानां प्रतिबिम्बा- वच्छेदिरूपैः कुकत्पनां कुर्वन्ति 1-वि° भा० पु° ५७
२, तस्मातसिद्धौ जीवेश्वरयो रंशंदिभावेन भेदाभेदौ विभागाविभागरूपो 1 तन्राप्यविभागएव आदयन्तयोरनुगतत्वात्स्वाभाविकत्वान्नित्यत्वाच्च सत्यः विभागस्तु मध्यस्वल्पावच्छेदेन नैमित्तिको विकारान्तर वद्-वाचार स्भरमात्रमिति विशेषः ! तदेवम् आत्माद्रंत्त व्याख्यातम. ॥ --वि०भा० पु° ६१
३. तस्य नित्यत्वेऽपि बाह्यसत्वसंभेदेनकायंतयापरिएतस्यव ज्ञानादिहेतुत्वा- उजीवस्य कार्यपाधिः !--वि० भा० पुर ९९
११८ | आचार्यं विज्ञानभिक्ष
हिरण्यगर्भ श्रादि जीव ही हैँ । वे आनन्दमय नहीं हैँ । जीव श्रसंकुचित भ्रौर विस्तृत संसार की सृष्टि नहीं कर सकते । जीव का प्रधान लक्षण वृद्धि है । विना बुद्धि सम्पकं के जीव संज्ञा हो ही नदीं सकती ।१ जिस दृष्टि से जीव का परमेश्वर से मेद बताया गथा है उसी दृष्टि से उनका पारस्परिक विभाग या भेदभी सिद्ध है । कार्योपाधियुक्तता के कारण उनमें कादाचित्क ज्ञान, भ्रत्पन्ञान एवं परतन्त्र ज्ञान की ही सम्भावना रहती है । ब्रह्म की भांति शाइवत ज्ञान का
भान जीव में नहीं हो सकता ।*
इस विवेचन से यह् सिद्ध हृश्रा कि सुपुस्ति, प्रलय ओर मोक्ष दशा मे भी जीव नौर ब्रहम का श्रनौपाधिक या स्वाभाविक मभेद रहता ही दै । यह् भेद स्वरूपभद है श्रौपाधिक नहीं । यह् पारमा्थिकमेददहै, नहीं तो भेद का कथनहीन होता, व्योकि अभेद केवल श्रविभागलक्षणवाला है, शखण्डतावाला नदीं ।
जीव सृष्टि के पूर्वं प्रविभक्त रूपसेनब्रह्य मे श्रवस्थित रहते हैँ । उसके पश्चात् सर्गकाल में पिता से पुत्र के समान ब्रह्य से जौव विभक्त हो जाते है । जैसे अमि से भद्र विस्फुलिङ्क निकलते ह वैसे ही ब्रह्म से जीव निकलते है । भराभासवाद, ्रवच्छेदवाद श्नौर प्रतिविम्बवाद के श्नुसार जीव को मिथ्या मानने से मोक्षादि की भी श्रनुपपत्ति होती है ग्रतः एेसी मान्यता सर्वथा हेय है 1*
१. श्रुतौ च विज्ञानमयषष्वकापि जीवावस्या नास्ति इद्धि' विना जोव- व्यवहाराभावात् !--वि ० भा० पु° १५३
२. प्रतिपादितंच पञ्चसूव्यां ब्रह्मणो मुख्यमात्मत्वं स्वतः सवदा सवद्षटर- त्वात्, जीवानां च कादाचित्कात्यल्पतदधीनज्ञानयोग्यतामात्रेण गौरमा- त्मत्वम् 1-वि० भा० पु° १७१
३. एतेन सुषुप्िप्रलयमोक्षेव्वपि जीव्रल्णोराचा्ययैण भेदवचनादनो- पाधिकः स्वाभाविक एव तयोर्भेद आचार्यसिद्ांतोऽवधायते भदस्योपाधि- कत्वे सत्युपाधिविलयदल्लायां भेदघ्रतिपादनातुपयत्ते: ! नहि घटविलये तद्यौपाधिके आकारो भेदतो वदतुं केनापि शक्यते युज्यते वा भेदस्यापार- माथकत्वे सतितदावुमीयमानभेदस्यानुवादाञुपपन्त : अभदस्येव प्रतिपाद नाहुतवादिति तस्मादेतत्सुत्राञ्जीवन्रह्माखण्डतावादोऽपसिदधांतः एवा्ि कानामिति ज्ञातव्यम् ।--वि० भा० प° २३६
४. आधुनिका अखण्डेकातम्योपपत्तये जीवानां प्रतिबिभ्बावच्छेदादिरूपैः कुकल्पनां कुर्वन्ति --वि० भा० पु० ५७
आचाय विज्ञानभिश्चु के वेदान्तसिद्धान्त | ११९
जसे जडाजडत्वादिवेघम्यं के कारण पाषाण को ब्रह्म नहीं कहा जा सकता, वैसे ही जीवकोभी ब्रह्य का रूप नहीं कहा जा सकता, क्योकि इस सम्बन्व में भी सवं ज्त्वाज्ञत्वसंसारासंसारादिवैघम्यं हँ ।१ वस्तुतः जैसे पाषाणादिब्रह्मकी जडशवित है वैसे ही जीव परमात्मा की चेतनशक्ति है ।
जीव भी वस्तुतः निरवयव है ।२ जीवादि की जो उत्पत्ति कही गई है, वह् भी गौएा है ।* प्रधानादि की भी उत्पत्ति गौण ही है। सद्वस्तु की उत्पत्ति गौर ही समी जानी चाहिए । जो सच है मुख्यरूप में उसकौ उत्पत्ति होही नहीं सकती । सृष्टि-्रक्रिया श्रादि मँ किसो जीव यादेवता का मुख्य योग दान नहीं है । ये सभी परतन्त्र ह । ब्रह्म ॒ही वास्तविक कर्ता है। जीवादि की उत्पत्ति केवल श्रभिव्यक्तिरूपिणी है, इसीलिए गौणी कही जाती है । जीव भी ज्ञस्वरूप है, श्रर्थात् पूर्वानुभूत वस्तुभ्रों का स्मरण करनेवाला है । उसे भी ्रनुभव ्रौर स्मृतियां का श्रालम्बन दै । अरन्या उसकी स्तनपानादि कौ प्रवृत्ति रनु पपन्न हो जायगी 1^ वह् ब्रह्य कै सरूप अ्रवश्य है किन्तु फिर भी बिल्कुल ब्रह्मस्वरूप या ब्रा ही नदींदहै।
जीव भी विभु दै । उसमें श्रुत्व का व्यपदेश केवल श्रौपाधिक है 1 क्योकि श्रतियों मे स्पष्ट उपदेश है कि “स चानन्त्याय कल्पते सवा एषमहानज भ्रात्मा योऽयविज्ञानमयः प्रारोषुः ।६ जीवोपाचि बुद्धि दी कायावस्था के कारण परिच्छिन्नपरिणामवाली है श्रतः वही श्रणुहैन किजीव। वह् तोनिर्गुणहै
१, यथा हि ब्रह्मणःपाषारणादिरूपत्वं नोपपद्यतेजडाजउत्वादिवेधर्म्यात् एवं
जीवरूपत्वमपि नोपषद्यतेसर्वजञत्वाज्ञत्वसंसारादियवेधर्म्यादिति ।
-वि० भा० प° २९१
द्रष्टव्य, विण भा० पु० २९३
अतो जीवोत्पत्िगौण नान्तःकरणस्येतिविभागः }--वि ०भा०प्० ३४७
द्रष्टव्य, वि० भा पु० ३३१
अतएव नित्यत्वादेव जोवो ज्ञ ूर्वानुभुतस्मर्तभिवति.अनित्यत्वेहि पूर्वाननु-
भरतं स्तनपानेष्टसाघनत्वादिकं जातमात्रःस्म तु नक्ञबनोति \--वि° भा०
पुण २३२३८
६. वि० भा० पु० ३४३ पर उद्धुत ५ ॥
७. कार्योपाधिरयं जीवः इत्यादि शूतिस्तु जीबोपाधरन्त.करण्स्य काम्- कारसोभयरूपतवादुपपद्यते जीवेषु कार्यावस्थोपाधिधर्माणामेव दशनाच्च 1 -वि० भा० पु° ३४७
~ & ‰ ~
ययक
१२० | चायं विज्ञानभिक्षु
। उसमे परिच्छेद श्रसंभव है, श्रतः उसमें श्रुतियों के वल पर विभुत्व ही मानाजा | सकता है अरुत्व या मघ्यमपरिमाणवलत्व नहीं ।
शब प्रदन यह् होता है कि जीव कर्ताहे कि नहीं ? इस प्रसंग के प्रसार के पूवं कतृं त्व को सम्यक् परिभाषा श्राचायंनेदेरखी है कि कार्यं को उलत्न करने वाले कृत्य का श्राश्रय होना हौ कतृत्व हं। १ यदि जीवको कर्ता मानतेहैँतो ब्रह्म का सव॑ -कतृःत्व नष्ट होता है 1 यदि जीवको कर्ता नहीं मानते तो वह् ( जडवत् हो गया रौर तद्गत-सुखादि के कारण ब्रह्म मे वैषम्य श्रौरनैघुंण्यकी प्रपक्ति होगी । एे्ी विचिकित्सा मे सकल पूर्वपक्षो को श्रपास्त करके सिद्धान्त रूप मे आ्राचायं विज्ञानभिचु कहते है कि स्व-व्यापारों में जीव भी कर्ता होता हे । विना जीवकमे के माने हए यज्ञविधियों मे प्रनुष्ठानलक्षण नाला तरामाप्य भ्रसिद्ध होजातादहै। साथ ही ब्रह्य ' मे वेषम्यनैघु ण्यादि की प्रसित होती है: इन सब बातों से जीव श्रौर ई्वर दोनों कर्ता है । अन्तर यह् है कि जीव श्रदुष्ट के दवारा ही महदादिकों मे संयोगमात्र से कर्ता होता है जब कि ईरगर साक्षात् कायं करके ही सर्वकर्ता कहलाता है ।२ ईरवर सरवैकर्मकारयिता भी है 19
तो क्या किर जीव में वास्तविक कतृःत्वगुण है ? यदि ेसाहैतो जीव का शुद्धस्वरूप निर्गुण कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह् है कि जीव मे जिस प्रकार | चिन्मात्रता नित्य है उस प्रकार से कृत्व नहीं है । जीव का कतृ त्व यावदुदर्यभावि | श्रौर नित्य नहीं है 1* वह् केवल श्रौपाधिक हैः वद्धिरूपीडपाघिकृत ही है 1९ ईश्वर का कलूत्व भी श्रौपाधिक ही है। जीव में कतृत्वादि परमेख्वर से ही प्राप्त ह स्वतन्त्र नही जैसे कि घोड़े की विविध चाले घुडसवार से प्रेरित होती दै 1
कुत्वं चात्र कायंजनक्कृत्याश्रयत्वम् 1--वि ० भा० प° ३५० द्रष्टन्य, वे० सु० द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३५२ अतः ईंदवरः कर्तापि कारयितापि भवतीति सिद्धम् ।--वि० भा० पु० ३५०
५. यथा जीवस्यार्यौष्ण्यवच्चैतन्यं नियतं यावद्रव्यनावि नैवं कतृं त्व
भवति इत्यथं : ॥--वि० भा० प° ३५३
६. एवं जोवो बुद्धिकतंत्वादेवोपाधिवशात् कर्ता स्वतस्तु परमा्थंतोऽकतति । | --वि० भा० पु° ३५६ | ७, तज्जोवस्य कतूत्वादिकं परात्परमेरवरादेव भवति न स्वातच्त्येएभश्वस्य विविधसञ्चार इवाहवारोहात् 1-वि० भा० पु°
= ~ ‰
म =
आचाय विज्ञानभिश्ु के वेदान्तसिद्धान्त | १२१
तो क्या जीव घुडसवार से सम्बन्वित घोड़े कौ भांति ब्रह्म के परतन्् ही रै? इसका उत्तर यह दहै कि ईश्वर, जीवकृतशुभाशुभषपक्ष हो कर ही उससे शुभाशुभ करवाता है 1?
विज्ञानभिश्ु ब्रह्म श्रौर जीव के पारस्परिक सम्बन्ध के प्रसद्खं में श्रन्य वेदा- न्तियो के दास-भाव, भक्त-भाव, प्रतिविम्बवाद, श्रवच्छैदवाद श्रौर श्राभासवाद श्रादि का खण्डन करते हैर रौर श््रामास एव च' सूत्र से यह् श्रयं तेते ह कि जैसे, १-ठेतु ग्नौर हेत्वाभास दोनों सत् या वस्तुभूत है; दोनों का ्रस्तित्व है वैसे ही जीव भी आभास होने पर भी मिथ्या नही, प्रपितु ब्रह्म केही समान सत्तावान् है । विज्ञानभिक्चु कौ दृष्टि में इस सूत्र का एकं भ्रन्य श्रं भी सम्भव है । श्राभास होने से तात्पर्यं है “भासमान होना' । इस दष्टिसे र्-जीव भी ब्रह्य की भांति श्राभासमान है, प्रकाशस्वरूप रै चिन्मात्र है 1९ दोनों प्रकार से सूत्र का श्रथं ग्रहण करने पर एक बात नदित खूप से सिद्ध होती दकि जीव की सत्ता वास्तविक है 1
१. ृतप्रयत्नपेक्ष॒ एव जीवात्मा प्रसेदवरात्कर््ादिरूपो भवति । ईहवरो जीवकृतशभातरुभसापेक्ष एवान्यत् ्ुभाघुभं कारयतीति ।--वि° भा०
शासतरऽनुकतसम्दिग्धाथेषु समानतन््र ॥ बरह्ममीमांसाभाष्ये प्रतिपादितमस्माभिः 1) स° प्र° भा० प°
३. आत्मा जीवः हेत्वाभास इवेत्यर्थः ।--जीवानां च ग र भावो “जन्माद्यस्य यतः' "इतिसूत्रे व्याख्यातः । अथवा जीवस्य | मित्याकाडःक्षायामाह--आभास एव च" स च जीवो ब्रह्मवदाभासमानः
अकाशभानद्चिन्मात्र इत्यथः ।--वि० भा० पू ३७४
विज्ञानामृतमाष्य मेँ प्रकृति क्रा स्तरूप
भ्राचायं विज्ञ।नभिश्ु का प्रकृति भ्रौर माया सम्बन्धी सिद्धान्त वडा ही भ्रनोखा प्रौर विचित्र है । यह सिद्धान्त विज्ञानामृतभाष्य नाम के उनवेः वेदान्त-सूत्राष्य मेँ विशद रूप से प्रतिपादित हृभ्रा है। सांख्यमत , में प्रकृति सत्त्वरजस्तमोमयी श्नौर जड मानी गई है । प्रकृति का यही स्वरूप न्यूनाधिक रूप मे यद्यपि उन्हे भी श्रभीष्ट है परन्तु वे प्रकृति को स्वतंत्र नहीं मानते' श्रपितु पर” मेरवर या परत्रह्य* की भ्रन्तर्लीनि शक्ति के रूप में स्वीकार करते ह । इस मान्यता के कारण यद्यपि वे रामानुज श्रौर निम्बाकं के बहुत निकट प्रतीत होते है परन्तु इन लोगो कौ भांति वे प्रकृति को अ्रविद्या या माया अथवा ब्रक्षर नहीं मानते। उन्होने माया नाम की श्रपरिणामिनी प्रकृति को सामान्यप्रकरृति से भिन्न पर- मेश्वर की उपाधि रूप में स्वीकार किया है 1 शङ्कुराचायं की भांति प्रकृति को
माया रौर रविद्या कह कर उसे सवंदा तुच्छं भ्रथवा श्रसत् श्रथवा भ्रनिर्वचनीय मानने के वे तीत्र विरोधी हैँ।
चिन्मात्र परमेश्वर शक्तिमान् है श्रौर सोपाधि भी । पुरूष श्रौर प्रकृति ये दोनो उसकी शक्तियाँ द रौर माया उसकी उपाधि । माया का भ्रन्तर्भाव उन्होने प्रकृति में ही बताया है । यद्यपि सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है, फिर भी ब्रह्म को शक्ति होने के कारण भ्रन्ततोगत्वा बह्य ही सृष्टि का वास्तविक उपादान कारण है । इस प्रकारसे सृष्टिका कारण बनने में प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है प्रत्युत ब्रह्म के परतन्त्र है । सांख्य-योग मे प्रकृति पुरुषाथं-सम्पादन के लिए स्वयं ही स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्त हुई मानी जाती है । किन्तु विज्ञानभिश्ु ने प्रकृति- पुरूष के संयोग को परमेदवर-कृत माना है ।२ इसीलिए पूरे भाष्य में उन्होने भ्रन्य सांख्ययोगाचार्यो के प्रकृति-स्वातन््य-सिद्धान्त का प्रबल प्रत्याख्यान कियाहै।९
१. दृष्टान्ताच्च प्रधानं न स्वतन्त्रम् ।-वि° भा० प° २४५ २. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३४ ३. द्रष्टव्य, वि० भा० प° ३०१
आचार्यं विन्लानभि्चु के वेदान्त सिद्धान्त | १२द
सृष्टि के पूवं यह प्रकृति परमेर्वर मे गर्तस्थमृतसपंवत् विलीन रहती है 1" यह् स्मरणीय है कि जीव -चैतन्य यद्यपि परमेश्वर-चैतन्य कं भ्रंश है लेकिन जीवो- पाधि परमेश्व रोपाधिभूतमाया का भ्रंश नहीं है 1२ जीवोपाचि सामान्यप्रकृति से बनती हैँ । ्रतः दोनों अ्रलग स्वभाववाली वस्तुं है । जीवोपाधि क्लेादि- वासनाग्नों से मलिन होती है जव कि परमेद्वरोपावि विशुद्धस्वा होती दै। परमेख्वरोपाधि म निलयेच्छाज्ञानसंकल्पादि एेदवर्यं॑होते है । सृष्ट के निमित्त कारणा वनने में परभेरवर की उपाधिया माया दही मूल दै) विज्ञानभि्षु ने माया ज्व्द को परमेशवरोपाधिरूपप्रकृति के श्र्थमें ही रूढ माना है । जीवोपाधिभूत रति तथा जड़ात्मकप्रकृति उनकी दष्टि मे माया शव्द से भ्रवाच्यहै। इस ्रकार से प्रकृति व्यापक श्रौर माया संकुचित मर्थं म प्रयोग करने योग्य शब्द ह । मावा श्रौरं प्रकृति मेदस प्रकार कौ भेद-व्यवस्था का मूल स्रोत विज्ञान भिष्चु को कदाचित् गीता की इस पंक्ति मेँ समूपलन्ध हप्रा होग--
"प्रकृति स्वामविष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया 1 श्रीमद्भगवद्गीता भ्र०४ इलो० ६ ॥
प्रकृति रौर विचा शङ्धुराचार्यादि श्रखण्डादर तवादियों के अविद्या -सिदधान्त का उन्होने भलो-
मति खण्डन किया है श्रौर स्पष्ट क्रिया है कि रविद्या ` या शरज्ञान न प्रकृति के
पर्यायवाची ह श्रौर न माया के समानार्थक । भ्रतः श्रविद्या जगत् का कार्ण
नहीं मानी जा सकती है 1 इस खण्डन के सिलसिले मेँ उनका कथन है कि यदि ्रविद्या संसारकास्ण हो तो एक व्यक्ति की भ्रविद्या के नाश होने से जगत्कारण का नाश ्रौर इसीलिए सारे जगत् प्रप का नाद हो जाना चादिए।
तब जीवन्मुक्ति कौ दर्शा भी सम्भव न होगी । यदि जीवन्मुक्ति की दशामें तो ज्ञान श्रौर भ्रज्ञान का सह-
श्रविद्या का अ्रस्तित्व लेशमात् भी स्वीकार करं श्रस्तित्व सर्वथा भ्रसम्भव है 1 ग्रतः:्रविद्या जगत्कारण नहीं दो सकती 1 इसलिए
नतो प्रकृति कोश्रौरन माया कोटी “अविद्या कहा जा सकता है । वस्तुतः
पविद्या पुरुष-मेद से भिन्न प्रकार का ्रान्तज्ञान है जिसका लक्षण यथार्थं रूपमे
~ १. विरतव्यापारतया कारणर्पेण गर्तस्थमृतसपंवद् विलीनमासीदित्य्थंः \
--वि० भा० प° ३६ २. न चेश्वरोपधेरंगो जीवोचाधिरीषवरस्थापि तदद्राराभवन्मते संसार प्रसंगात् 1--वि° भा० १० ५२-५३ ३. द्रष्टव्य, वि० भा० प° णर्
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१२४ | चायं विज्ञानभिश्षु
योगसूत्रकार ने दिया दै प्रनित्याशुचिदुःखानात्मपु नित्यशुचिभुखात्मख्यातिरविद्या 1" वेदान्त मेँ श्रविद्या का यहं स्वरूप मानना विज्ञानभि्षु की दृष्टि मेंकेवल बौद्धो के कुप्रभाव काही योतक दैः प्रकृति" श्रौर ्रवानः शब्द पर्यायवाची ह सृष्टि ग्नौर स्थिति की दशाम प्रकृति नाना श्राकृतिवाले कार्यो में परिणत | होती रहती है 1 श्रतः उस समय उसे व्यक्त कहा जाता है) सृष्टि के पूर्वया । प्रलय ददा में निर्व्यापार श्रौर परमात्मा में गरतस्थमृतसर्पवद््रन्तहित रहुने के कारण? प्रकृति को भ्रव्यक्त कहा जा सकता है ।
प्रकृति को सत्ता
श्रव तक के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रकृति वस्तुतः परमेर्वर की जगज्जन्मा- दिनिर्वाहिका शक्ति दै । इस राक्ति के विना निविकार एवं निर्गूणब्रह्य की उपादानता श्रौर निमित्तता या श्रधिष्ठानता श्रसम्भवहै।* प्रति का भ्रस्तित्व ऊर्णनाभ के शरीर के श्रस्तित्व के समान है। प्रकृति सूक्ष्महैग्रौर विशाल जगत्भपंच उसी का स्थूल रूप है । धुले मिले हुए सैन्यवनमक से युक्त समूद्र-जल मं जैसे द्ैतापत्ति नहीं होती वैसे ही साम्यावस्योपलक्षित प्रकृति नामक शक्ति से युक्त शक्तिमान् परमेश्वर में भी दैतापत्ति नहीं है उसकी श्रदैतता श्रशयुण्ण है ।९ इस भ्रति का भ्रत्यन्तोच्छेद केभी नहीं होता लय भले ही हुभ्राकरे । लय का श्रथ नाश नहीं है भ्रपितु लीन होना है भर्थात् श्रविभक्ततया भ्रव्यक्त श्रौर निर्व्यापार दशा में रहना है । प्रकृति का विश्वरूप में श्रवभासित होने का स्वभाव .भी प्रलय की दशा मे शरष्ुण्ण रहता दै ।£ प्रकृति श्रौर जगत््पंच को श्रत्यन्त तुच्छ या
१. द्रष्टव्य, यो° सु० २।५। २. नेदं व्यासदर्ञनमपि तु सप्तमं प्रच्छ्नवोद्धदर्शनमेवेति ।--वि० भा० पुऽ ८५ एतेन वेदान्तेषु प्रपञ्चस्यात्यन्ततुच्छत्ववादोऽप्रामािक इति मन्तव्यम् 1 --वि० भा० पु० ३१४
द्रष्टव्य, वि० भा० प° ९द
४. ब्रह्मणश्च जगत्कतुं तवं स्वोपाधिमायोपाधिकं परिरामित्वरूपोपादानत्वं च प्रकृतितत्कार्याद्योपाधिकमपीष्यत एव ।--वि० भा० पु० ३४
५, तथा च विलीनावस्थसेन्धवेन समुद्रस्येव साम्यावस्थारूपेणएप्रधानादिनापि ब्रह्मणो न द तं कि त्वैक्यमेव समुद्रसेन्धवयोरिवेति भावः \--वि० भा० पु० २४१
६, द्रष्टव्य, वि० भा० पु° ९७
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आचायं विज्ञानभिश्चु के वेदान्तसिद्धान्त | १२५
ग्रसत् माननेवाले शङ्कराचार्य प्रभृति दार्शनिकों की भर्संनामे गीता१काभी उन्होने भ्राश्रय लिया है श्रौर स्वयम् भी पर्याप्मुखर रहे दै ।२ प्रकृति को उन्होने नित्यपरिणामिनी सिद्ध किया है । इस प्रकार की नित्यता के स्वरूप की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि यह नित्यता व्यावहारिक है परमेरवर की भाति पारमार्थिक नहीं, श्रपितु प्रथंक्रियाकारित्वज्ीलतारूप कौ हे ।२
प्रकृति के रूपो का वर्गीकरण
प्रकृति के सत्त्वादिगुणा यद्यपि वस्तुतः रूपादिहीन हैँ फिर भी उनसे राग- प्रकाशावरणरूपता की प्राप्ति के लिए उनमें लोहितशुक्लकृष्णरूप कत्पित कर लिए गए ह\ ये तीनों गुण ही समवेत रूप में प्रकृति भ्रथवा प्रवान नामसे प्रभिहित किए जाते हैँ । इस प्रकृति के मुख्य भेदं का वर्गीकरण इस प्रकार से किया जा सकता है-
१, साया
नित्यशुद्ध केवलसतत्वांशमयी प्रकृति नित्यज्ञान, नित्येच्छा एवं नित्यानन्द यक्त रूप मेँ ईर्वरोपाधि कटलाती रहै ।* इसी का नाम माया है। इसी को कारणसतत्व भी कहते हैँ । वह् ईर्वरके संकल्पादि की भ्राघारभूत भ्रौर भ्रत्तरद्धं होती है । सामान्यप्रकृति परिणामिनी होतो है जव कि माया भ्रपरिणामिनो है । कदाचित् इसी वैवम्यं के कारण विष्णुपुराण में माया को प्रकृति से भिन्न एक श्रलग तत्तव स्वीकार किया गया है । विज्ञानभिष्षु ने इस मान्यता के प्रति श्रपना वैरस्य प्रकट करते हुए कहा है कि माया भ्रौर सामान्य प्रकृति में एक प्रमुख साधम्यं भी है वह है जडत्व या भ्रचेतनता । इस साधम्यं के कारण हम माया को प्रकृति के अन्तरगत प्रविष्ट कर सकते है । ^
१. असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीइवरम् । गोता १६।८
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पु° १०५
३. प्रधानेऽथक्रियाकारित्वरूपव्यावहारिकसत्वस्स्येवास्माकमिष्टत्वात् 1 -वि० भा० पु° २४३
४, केवलं नित्यज्ञानच्छानन्दादिमत्सदैकरूपकारणसत्वमेवतस्योपाधिः 1 --वि० भा० पुण १३०
५. ईइवरोपाधेरपरिणामित्वेऽपि जउत्वसाधम्येण परकृतिमध्ये प्रवेश सम्भावाच्चेति 1 -वि० भा० पु° १२७
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| २, जीवोपाधि
| कृति जव मलिनसत्त्वविशेषणरूप श्रपने भ्रवयवों से पुरुष संयोग के | द्वारा महत्त्व के रूप मे परिणत होती है तो जीवोपाधि कहलाती है । यह् | परिणामिनी होती है 1"
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३, जडजगत्
उसी प्रकृति के तमोबहुल श्रंशों से स्वकीयपरिणामधारा के फलस्वरूप सकल जडजगत् विकसित होता रहता है । यदी प्रकृति का तीसरा रूपरहै। इस रूपमे भी प्रकृति परिणामिनी ही हैर ।
१. सैव च प्रकृति्मलिनसत्वविरेषल्पैरं गान्तररजस्तमःसम्भिन्न :पुरुषसंयोगेन महत्तत्वरूपतः परिरता सती जीवोपाधिभवति \- वि ०भा० पु° २६२
२. ततोऽपि निङ्ष्टैरंशान्तरेःस्वमन्यद्िकारजातमुत्पादयतीति \!--वि° भा० पु० २६२
नगत्प्रपञ्च
जगलमप॑च कौ वास्तविक सत्ता के सम्बन्व मेँ भ्राचायं विज्ञानभिष्ु को पूरं विदवास है 1 जगतप्रपञ्च नाम" श्रौर ष््प" से व्याकृत होकर दुर्यमान हो रहा है । यह् चेतन प्रर श्रचेतन दोनों से युक्त है । जगत् के सकल व्यापार देश, काल शरोर संस्थान की दृष्टि से प्रतिनियत ह । जगत् कीभ्रादि, मध्य ्रथवा भ्रन्त; प्रत्येक दशा सुनिरिचत रीति से उपस्थित होती है, उसमें किसी प्रकारक यदुच्छा त्रथवा श्रनृतता नहीं है । सव ङ पूर्णतया सुदिलष्ट है! एसे विपुल एवं विज्ाल जगत् की रचना का प्रकार इतन। विचित्र दुगंम एव जटिल है कि श्राचायं ने साफ़ शब्दों म जगत् को श्रचिन्त्यरचनात्मक कहा है । यह् जगत् उत्पन्न होता है, स्थित होता है, वृद्धि प्रपत करता है, विपरिणत होता है, क्षीण होता है ्रौर नष्ट होता है। उत्वत्ति इत्यादि छहों धमं इस जगतत््पंच में पाए जाते है । जो वारी-वारी से इस धर्मी मं वताए जाते ह| चाहेइन चछःखूपोमें से जिस श्रवस्था में यह् रहे, रहता यहं जरूर है । इसका भ्रात्यन्तिक नार म्रसम्भव है । इसकी सत्ता सावं कालिक है ।
नित्यता की सिद्धि
इसकी सावं कालिक सत्ता को तकं से पुष्ट करते हुए विज्ञानभिश्चु ने कहा है कि वेदान्तसूव्रकार को भी यही मत प्रभीष्ट है अन्यथा “जन्मायस्य यतः ' सूत्रका रूप "एतद्यतः° ही होता । अव्यक्त रूप से जगत् नित्य है ।* संसार को श्रित्य माननेवाले वेदान्तियो को विज्ञानभिष्चु ने बौद्धप्रभेद ही कहा है ।२ पद्मपुराणक़रत निन्दा का भी उन्होने उल्लेख किया है । श्रसत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीरवरम्' इत्यादि गीतावाक्य का भी उन्होने प्रमा उपस्थित क्या हे । श्रौर इतना ही नहीं, यह भी तकं उन्होने दिया है कि बन्धमोक्ष इत्यादि सब भिथ्या होने पर
१. द्रष्टव्य, बि० भा० पु० ३१-२२
२. ते तु बौद्धभरमेदा एव मायावादमसच्छास््नं प्रच्छ बोद्धमेव वेत्यादि- पद्मपुरारादिवादयात्... ...-... ^ क्ति च वन्धमोक्षादिकं सर्वं मिथ्येति वेदान्ता आहुरिति गु